भाषा व्यवस्था तथा भाषा व्यवहार

भाषा व्यवस्था तथा भाषा व्यवहार | भाषा व्यवस्था तथा भाषा व्यवहार में अन्तर

भाषा व्यवस्था तथा भाषा व्यवहार | भाषा व्यवस्था तथा भाषा व्यवहार में अन्तर

भाषा व्यवस्था तथा भाषा व्यवहार

भाषा व्यवस्था तथा भाषा व्यवहार के बारे आचार्य किशोरी दास बाजपेयी के शब्दों में “विभिन्न अर्थों में सांकेतिक शब्द समूह ही भाषा है जिसके द्वारा हम अपने मनोभाव दूसरे के प्रति सरलता से प्रगट करते हैं” भाषा उन वाचिक प्रतीकों का यादृच्छिक व्यवस्था है, जिसके द्वारा एक समाज विशेष के सदस्य परस्पर व्यवहार और क्रिया प्रतिक्रिया में संलग्न रहते हैं।

परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भाषा की प्रतीक व्यवस्था विशुद्ध या यादृच्छिक रूढ़ि पर आधारित होती है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि संकेत तथा वस्तु में परस्पर सुनिश्चित संबंध होता है। डॉ0 राजकिशोर शर्मा ने इस संदर्भ में अपने विचार प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि भाषा में प्रयुक्त शब्द प्रतीकों का संबंध उनके द्वारा सांकेतिक वस्तु विशेष के साथ नहीं होता है। प्रायः सभी भाषाओं में पाये जाने वाले अनुकरणात्मक या ध्वनि अनुकरणानात्मक शब्दों का संबंध वस्तुतः विशेष के साथ कुछ निहित सीमा तक पाया जाता है। जैसे बिल्ली की बोली के लिए प्रयुक्त शब्द प्रतीक म्याऊँ, चिड़िया की बोली के लिए चीं चीं आदि।

डॉ० शर्मा ने भाषा प्रतीकों की व्यवस्था के साथ भाषा व्यवहार पर भी विचार किया है। उनका कथन है कि भाषा की विविध परिभाषाओं से ही स्पष्ट है कि भाषा किसी समाज वर्ग के बीच प्रमुख रूप से व्यवहार का माध्यम है। यह ऐसा व्यवहार है जिसे हंसने, रोने, उठने, बैठने आदि प्रवृत्यात्मक व्यवहारों की तरह सहज ही में नहीं प्राप्त किया जाता बल्कि उसे समाज के बीच में रहकर अर्जित करना पड़ता है भाषा में धीरे-धीरे परिवर्तन आता रहता है। भाषा व्यवहार में वैयक्तिक विभेदों को भी प्रदर्शित करती है। चूंकि भाषा अनुकरण द्वारा सीखी जाती है इसीलिए एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी में पहुंचकर उसका स्वरूप थोड़ा बहुत बदल जाता है। प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक युग की मानिसिक और सांस्कृतिक व्यवस्था का अन्तर है भाषिक अन्तर को जन्म देता है।

भाषा व्यवस्था तथा भाषा व्यवहार में अन्तर

यह निम्न है-

भाषा अनेक रूपानुवर्तनी होती है। भाषा व्यवस्था तथा भाषा व्यवहार उसके उन्हीं विभिन्न रूपों में दो अलग-अलग रूप है। इनकी परिकल्पना प्रस्तुत करने का श्रेय मूलतः सस्यूर को है। उन्होंने संक्षेप में इन पर विचार किया।

मुख्य अंतर इस प्रकार बताये गये हैं-

(1) भाषा एक व्यवस्था है, जो किसी भाषा के सभी भाषियों के मस्तिष्क में भाषिक क्षमता (Competence) के रूप में होती है, जबकि वाक उस भाषा-भाषी समाज के व्यक्ति द्वारा उस भाषा का प्रयुक्त या व्यवहृत रूप है। यह भाषा का प्रयोग अथवा भाषा निष्पादन तोता हिन्दी बोल रहा है वाक्य ठीक है। कोई तोता हिन्दी के एक दो वाक्य सीखकर बोल सकता है उच्चरित कर सकता है किन्तु तोता हिन्दी जानता है वाक्य गलत है, क्योंकि यहां हिन्दी जानने का अर्थ है हिन्दी भाषा या उसकी व्यवस्था को जानना, जो तोते के लिए सम्भव नहीं, हाँ वाक् रूप में वह किसी भाषा के एक दो वाक्य प्रयोग कर सकता है।

(2) भाषा की सत्ता मानसिक होती है, जबकि वाक् की सत्ता भौतिक होती है प्रस्ताविक उच्चारण या लेखन के रूप में होती है।

(3) भाषा अमूर्त होती है, किन्तु उसकी तुलना में वाक मूर्त होता है, क्योंकि उसमें वाक्य अपना रूप ले लेता है।

भाषा विज्ञान – महत्वपूर्ण लिंक

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