भाषा विज्ञान

ध्वनि परिवर्तन के प्रमुख कारण

ध्वनि परिवर्तन के प्रमुख कारण

ध्वनि परिवर्तन के प्रमुख कारण

जीवित भाषा में परिवर्तन शाश्वत है। परिवर्तन ही भाषा का विकार है। ध्वनि विकार मुख्यतः मुख-सुख और अपूर्ण अनुकरण से होता है। ‘कृष्ण’ पहले ‘क्रिशन’ हुआ फिर ‘किशुन’ और बाद में किसुन या ‘किसन’ हो गया। यह ध्वनि परिवर्तन बहुत धीरे-धीरे होने पर भी अपने क्षेत्र में बहुत व्यापक होता है। इस ध्वनि परिवर्तन के बाहा और आन्तरिक दोनों प्रकार के कारण होते हैं। बाह्य में भौगोलिक वातावरण, समाज का राजनैतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक अवस्थाएं प्रमुख हैं। आन्तरिक कारणों में प्रयोगाधिक्य स्वराधात आदि को लिया जा सकता है। ध्वनि परिवर्तन केवल किसी एक कारण से नहीं होते, उसे आन्तरिक और बाह्य कई कारण प्रभावित करते हैं।

ध्वनि-परिवर्तन के कारण

(1) वाक्य यन्त्र को अपूर्णता, श्रवणान्द्रिय की भिन्नता- किन्ही भी दो व्यक्तियों का वाक् – यन्त्र ठीक-ठीक एक ही प्रकार का नहीं होता। इसलिए एक ही ध्वनि के उच्चारण में एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे व्यक्ति तक कुछ-न-कुछ अन्तर अवश्य पड़ेगा और यह अन्तर आगे बढ़ता ही चला जायेगा। यह अन्तर बहुत समय पश्चात् दृष्टिगोचर होता है। वाक्-यन्त्र की तरह श्रवणेन्द्रिय की भिन्नता भी ध्वनि परिवर्तन का कारण बनती है। वाक्-यन्त्र की तरह श्रवणेद्रिय की भिन्नता भी ध्वनि- परिवर्तन का कारण बनती है। वाक्-यन्त्र श्रवणेन्द्रिय का कार्य साथ-साथ चलता रहता है। एक मनुष्य दूसरे से सुनकर सीखता है और उसके कहने से तीसरा और चौथा सीखता है। यह क्रम अविराम रूप से चलता रहता है। इस प्रकार का परिवर्तन सदियों के पश्चात् लक्षित होता है। इन कारणों को प्रायः अब ठीक नहीं माना जाता।

(2) अज्ञान और अनुकरण की अपूर्णता- अज्ञान ध्वनि परिवर्तन का कारण बनता है। अज्ञान के कारण लोग शब्द का रूप समझ नहीं पातें वे उसको जिस प्रकार समझते है उसी प्रकार उच्चारण करते हैं विदेशी और अपरिचित शब्दों में प्रायः ध्वनि परिवर्तन इसी प्रकार होता है। कम्पाउण्डर का कम्पोडर, इंजीनियर का इंजियर यही रूप है। इस परिवर्तन में अज्ञान और अनुकरण के साथ-साथ मुख-सुख भी कार्य करता है। अनुकरण की अपूर्णता के कारण ही ‘ब्राह्मण’ ‘ब्रह्मन’ कहा जाता है।

(3) विभाषा का प्रभाव- एक जाति, राष्ट्र या संघ के एक-दूसरे के सम्पर्क में आने पर भी ध्वनि-पविर्तन हो जाता है। भारत में आर्यों के आने पर द्रविड़ों के प्रभाव से उनके ध्वनि-समूह मेल ‘द’ का प्रवेश हुआ। इसी प्रकार अफ्रीका के बुशमैन परिवार की भाषाओं की क्लिक ध्वनियाँ समीप के अन्य भाषा वर्गों को प्रभावित कर रही हैं।

भावुकता और बनकर बोलना- भावुकता पर्याप्त ध्वनि-परिवर्तन करती हैं। व्यक्तिवाचक संज्ञाओं में ध्वनि-विकास इसी नियम के अन्तर्गत होता है। दुलारी का दुल्ली, मुन्ना का मुन्नू, कुमारी को कुम्मों भावुकता के कारण ही हो जाते हैं। बनकर बोलने का भी ध्वनि विकार पर अस्थाई प्रभाव पड़ता है। बहुत से लोग कहना का कैना, बैठों का बेटो, ‘बहुत’ का ‘बोत’ बोलते हैं। इसके पीछे अज्ञान भी कार्य करता है।

बोलने में शीघ्रता, मुख-सुख, प्रयत्न लाघव- बोलने की शीघ्रता से भी ध्वनि विकार होता है। साहित्य में ‘पण्डित जी’ लिखा जाता है। किन्तु शीघ्रता में ‘पंडी जी’ उच्चारण हो जाता है। इसी प्रकार ‘उन्होंने’ का ‘उन्ने’, ‘जिन्होंने’ का ‘जित्रे’ मास्टर साहब का ‘मास्साहब’ हो जाता है।

ध्वनि परिवर्तन का मुख्य कारण यह है कि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि वह कम- से कम प्रयास में अधिक-से-अधिक भाव व्यक्त करने की चेष्टा करता है। अंग्रेजी में Talk, Walk, Knife, Psychology आदि में कुछ ध्वनियों का उच्चारण नहीं किया जाता है। मुख सुख के लिए कुछ नयी ध्वनियाँ भी जुड़ जाती है। उदाहरण के लिए बहुत से लोग ‘स्कूल’ का ‘सकून’, ‘स्टेशन’ को ‘टेशन’ कहते हैं।

भ्रामक व्युत्पत्ति- भ्रामक व्युत्पत्ति के अन्तर्गत अपरिचित शब्द के संसर्ग में आकर मनुष्य.. उससे मिलता-जुलता शब्द बोलने लगते हैं। इस प्रकार ध्वनि में विकार उत्पन्न हो जाता है। इसी नियम के अन्तर्गत ‘लाईब्रेरी’ से ‘रायबरेली’, ‘एडवांस’ में ‘अढवांस’, ‘वनर्जी’ से ‘बनारजी’, ‘चार्जशीट’ से ‘चार-शीट’ बने हैं।

भौगोलिक वातावरण- भौगोलिक वातावरण भी ध्वनि परिवर्तन में सहायक होती है। ठण्डे देश में विस्तृत ध्वनियों का विकास नहीं होता, विस्तृत ध्वनियों का सुझाव भी संवृत ध्वनियों की ओर होने लगता है। गर्म देश में जाने पर परिवर्तन इसके विपरीत होगा। पहाड़ों से घिरे ऐसे भू-भाग में जिसका सम्पर्क बाहर के भू-भाग से नहीं होता, स्वतन्त्र रूप से ध्वनियों का विकास होने लगता है। वास्तविकता यह है कि जब मानसिक, शारीरिक विकास का धर्म तथा संस्कृत पर प्रभाव पड़ता है, तो ध्वनि-परिवर्तन पर पड़ना स्वाभावक ही है।

सामाजिक और राजनैतिक प्रभाव- सामाजिक और राजनैतिक प्रभाव भी ध्वनि परिवर्तन का कारण बनते हैं। दुःख और अप्रसन्नता के कारण वातावरण में लोग सामान्यतः धीरे से बोलते हैं। ऐसी दशा में संवृत ध्वनियों की ओर झुकाव बढ़ता है। शान्ति के वातावरण में लोग शुद्ध बोलने का प्रयत्न करते हैं। सांस्कृतिक पुनरुत्थान का प्रभाव भी ध्वनि परिवर्तन पर पड़ता है। उदाहरण के लिए, वाराणसी से ‘बनारस’ बना और अब सदियों की यात्रा करके सांस्कृतिक उत्थान के कारण फिर ‘वाराणसी’ हो गया।

लिखने का प्रभाव- लिखने का प्रभाव भी भाषा के ध्वनि परिवर्तन का कारण बनता है। अंग्रेजी में ‘गुप्ता’, मिश्रा’ आदि शब्दों के लिखने के अन्त में लिखा जाता है। हिन्दी में भी इसका प्रभाव पड़ता है। बुद्ध और अशोक के स्था पर ‘बुद्धा’, ‘अशोका’ का प्रयोग सुना जाने लगा।

अन्ध-विश्वास- अन्ध-विश्वास के कारण भी कभी-कभी परिवर्तन हो जाता है। ‘गोभी’ में गाय की ध्वनि होनी के कारण पूर्वी जिलों में बहुत से धार्मिक लोग ‘गोभी’ न कहकर ‘कोबी’ कहते हैं।

सादृश्य-‌ सादृश्य के कारण भी शब्दों की ध्वनि में कभी-कभी परिवर्तन हो जाता है। ‘स्वर्ग’ के सादृश्य पर ‘नरक’ और नरक से ‘नर्क’ हो गया। ब्रज भाषा के पिंगल के सादृश्य पर ही राजस्थानी के लिए ‘डिंगल’ का प्रयोग होने लगा। संस्कृत में द्वादश के सादृश्य पर एकदश भी एकादश हो गया।

बलाघात- किसी ध्वनि पर बल देने से श्वांस का अधिक भाग उसी उच्चारण में लग जाता है। इसके परिणामस्वरूप आस-पास की ध्वनियाँ दुर्बल होने लगती हैं। ‘उपाध्याय’ का ‘झा’ इसी प्रकार रह गया है। ‘अभ्यंतर’ के बीच में बल है। अतः प्रारम्भ का ‘अ’ समाप्त हो गया और ‘भीतर’ बन गया।

शब्दों की असाधारण लम्बाई- लम्बे शब्दों में ध्वनि परिवर्तन अधिक होता है। इस कारण के साथ में उच्चारण सुविधा, शीघ्रता, स्वराघात आदि का योग रहता है। इसी के अन्तर्गत संक्षिप्त रूप चल पड़ते हैं। ‘पटियाला ईस्ट पंजाब’ के लिए पेप्सू यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमरीका के लिए यू.एस.ए. आदि अनेकानेक शब्दों को उदाहरणास्वरूप लिया जा सकता है। ‘जैरामजी’ के स्थान पर ‘राम’ इसी के परिणामस्वरूप हो गया। इस परिवर्तन में बलहीन व्यंजनों का उच्चारण समाप्त होता रहता है। जिन भाषाओं में इस प्रकार के व्यंजन अधिक होते हैं, उनमें यह परिवर्तन भी अधिक होता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अनेकों कारण मिलकर ध्वनि परिवर्तन में योग देते रहते हैं। कुछ शब्दों की ध्वनियों में मिलकर स्वाभाविक विकास हो जाता है। ‘मया’ से मैं या ‘बनते’ से ‘वा’ या ‘बाटे’ का विकास इसी प्रकार हुआ है। अनुनासिकता के कारण ‘सर्प’ से ‘साँप’ या ‘कूप’ से ‘कुआ’ का विकास स्वाभाविक रूप से हो गया। कवि लोग कविता में तुक के लिए जान-बूझकर ही शब्दों में मनमाना ध्वनि परिवर्तन कर लेते हैं। रीतिकाल के कवियों में यह प्रवृत्ति विशेष रूप से मिलती, जब कोई भाषा-भाषी किसी दूसरी भाषा के सम्पर्क में आता है, तो एक भाषा की ध्वनियाँ दूसरी को प्रभावित करती हैं जो अपने में नहीं होती। उदाहरण के लिए भारतीय भाषाओं में समय- समय पर यूनानी, चीनी, तुर्की, अरबी, अंग्रेजी, पुर्तगाली आदि भाषाओं से जो शब्द लिए गये। उनमें ध्वनि परिवर्तन हुआ।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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