भाषा विज्ञान

भाषा की परिभाषा | भाषा के मूल तत्व या विशेषताएँ | भाषा के अभिलक्षण | भाषा की सरंचना

भाषा की परिभाषा | भाषा के मूल तत्व या विशेषताएँ | भाषा के अभिलक्षण | भाषा की सरंचना

भाषा की परिभाषा-

“मनुष्य की उस चेष्टा या व्यापार को ‘भाषा’ कहते हैं, जिसके द्वारा मनुष्य अपने उच्चारणोपयोगी शरीरावयवों से उच्चारण किये गये वर्णात्मक या व्यक्त शब्दों के द्वारा दूसरों पर अपने विचार अभिव्यक्त करता है।”

भाषा का निर्माण जिन व्यक्त ध्वनियों से होता है, उन्हें वर्ण कहा जाता है। स्वर-विकार, सुख विकृति, इंगित आदि भी भाषा के अंग हैं, जो असभ्य और पिछड़ी हुई जातियों की भाषा में पाये जाते हैं, किन्तु भाषा के विकास के साथ ही साथ ये कम होते चले जाते हैं।

भाषा विज्ञान का विषय मानवी भाषा है। सामान्य रूप से मानव मात्र की भाषा को ‘भाषा’ कहा जाता है। भाषा एक सामाजिक क्रिया है। वह वक्ता और श्रोता दोनों के विचारविनिमय का साधन है। वास्तव में ‘भाषा मनुष्य के मुख से निसृत वह सार्थक ध्वनि-समूह है, जिसका विश्लेषण और अध्ययन किया जा सके।” व्यवहार में भाषा शब्द का कई अर्थों में प्रयोग होता है।

भाषा शब्द का सामान्य अर्थ मानव मात्र की भाषा से लिया जाता है। पशु पक्षी भी अपनी बोली में भावाभिव्यक्ति करते हैं, किन्तु उनकी अस्पष्ट ध्वनियों को भाषा की संज्ञा नहीं दी जा सकती। इसी प्रकार इंगित, स्वर-विकास और मुख विकृति से ही भाषाभिव्यक्ति होती है, परन्तु इसे भी भाषा नहीं कहा जा सकता।

मानव के मुख से जो सार्थक ध्वनि समूह निकलता है और जिसका कुछ न कुछ स्पष्ट अर्थ निकलता है, उससे सामान्य भाषा का निर्माण होता है।

अनेक विद्वानों ने भाषा की परिभाषा-निम्नलिखित प्रकार से दी है जो निम्न है-

  1. प्लेटो के अनुसार विचार आत्मा की मूक अथवा अध्वन्यात्मक वातचीत है। जो ध्वन्यात्मक बन कर होठों पर प्रकट होते ही भाषा कहलाती है।
  2. क्रोचे के अनुसार, भाषा उस स्पष्ट सीमित तथा सुगठित ध्वनि को कहते हैं, जो अभिव्यंजना के लिये निर्धारित की जाती है।
  3. ब्लाक तथा इंगर- A language is a system of arbetrery vocal symbols by means of which a social group aperates.

भाषा व्यक्त ध्वनि चिन्हों की वह पद्धति है, जिसके माध्यम से समाज के व्यक्ति परस्पर व्यवहार करते हैं।

  1. गार्डनर के अनुसार- The common definition of speech is the uses articulate second symboles of the expression of thoughts.

(विचारों की अभिव्यक्ति के लिए जिन व्यक्त और स्पष्ट ध्वनि संकेतों का व्यवहार किया जाता है, उन्हें भाषा कहते हैं।)

पाश्चात्य विद्वानों द्वारा व्यक्त भाषा की परिभाषा में मात्र शब्दों का ही अंतर है। कतिपय हिन्दी विद्वानों की परिभाषाएं भी प्रस्तुत हैं, जो निम्नलिखित हैं-

  1. कामता प्रसार गुरु- “भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली-भांति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार आप स्पष्टत्या समझ सकता है।”
  2. डॉ मंगलदेव शास्त्री- “भाषा मनुष्य की उस चेष्ठा या व्यापार को कहते हैं जिससे मनुष्य अपने उच्चारणोपयोगी शरीरावयवों से उच्चारण किये गये वर्णात्मक या व्यक्त शब्दों द्वारा अपने विचारों को प्रकट करते हैं।”

हिन्दी के विद्वानों की परिभाषाएँ भी कोई मौलिक तथ्य सामने नहीं लातीं प्रायः यही माना गया है कि मानव मुख से प्रयत्न विशेष से निस्तृत वह ध्वनि समूह, जिसे समाज विशेष के सदस्य आपसी विचार विनिमय के लिए व्यवहार में लाते हैं। भाषा कहलाती है।

भाषा के मूल तत्व या विशेषताएँ-

(i) भाषा विचार विनिमय का साधन है, वह वक्ता के विचारों को श्रोता तक पहुँचाती है।

(ii) भाषा निश्चित प्रयत्न के फलस्वरूप मनुष्य के उच्चारण अवयवों से निःसृत ध्वनि समूह है।

भाषा के अभिलक्षण-

भाषा नित्य मानव द्वारा प्रयुक्त भाषा ही है। उसके अभिलक्षण से तात्पर्य उसकी विशेषताओं से ही हैं। डॉ० भोलानाथ तिवारी के अनुसार, “मानव भाषा के अभिलक्षण वे हैं जो उसे अन्य सभी प्राणियों की भाषाओं से अलग करते हैं।”

भाषा के अभिलक्षण- डॉ० तिवारी सहित अन्य विद्वानों ने मानव भाषा के मूलभूत लक्षण अथवा उसकी तात्विक विशेषताओं का उल्लेख इस प्रकार किया है-

(1) यादृच्छिकता- भाषा में किसी भाषा अथवा पदार्थ का किसी शब्द से किसी प्रकार का सहज अथवा तर्कपूर्ण सम्बन्ध नहीं। किसी भी पदार्थ के लिए शब्द का प्रयोग समाज ने स्वेच्छा से करके-पदार्थ और शब्द में नित्य सम्बन्ध स्थापित कर लिया है। यही स्थिति रचना के स्तर पर भी पायी जाती है। हिन्दी की वाक्य रचना में कर्ता, कर्म और क्रिया के विन्यास का क्रम है तो अंग्रेजी में कर्त्ता, क्रिया और कर्म के विन्यास का संस्कृत में तो कोई क्रम है ही नहीं, इस स्थिति क्रम विन्यास के पीछे कोई सुनिश्चित आधार भी नहीं है। यही है स्वेच्छा से निर्धारित यादृच्छिकता।

(2) सृजनात्मकता- मानव-भाषा की दूसरी विशेषता सृजन क्षमता है। भाषा में शब्दों और रूपों के सीमित होने पर भी सादृश्य के आधार पर उसमें नये शब्दों की रचना की पर्याप्त क्षमता है।

(3) अनुकरण ग्राह्यता- मानव-भाषा सामाजिक सम्पत्ति है। कोई भी व्यक्ति जिस समाज में रहता है, वह उसी की भाषा को अनुकरण के माध्यम से सहज रूप से सीख जाता है। यही है उसकी अनुकरण शक्ति।

(4) परिवर्तनशीलता- भाषा परिवर्तनशील है भले यह परिवर्तन पर्याप्त समय बाद लक्षित हो। इसी परिवर्तन के कारण भारतीय आर्य-भाषा ने वैदिक संस्कृत, अपभ्रंश आदि रूप धारण किये।

(5) विविक्ता- मानव-भाषा विभिन्न वाक्यों का समुच्चय है। प्रत्येक वाक्य में अनेक शब्दों का प्रयोग होता है और प्रत्येक शब्द कई ध्वनियों के योग से निर्मित होता है। परन्तु विचार विनिमय में इन्हें ध्वनियों शब्दों तथा वाक्यों को विच्छन्न रूप में ग्रहण न करके इनमें एक अविच्छिन्न सम्बन्ध की स्थापना की जाती है। भाषा के इस अविच्छिन्न रूप से आवश्यक पड़ने पर विच्छेद अथवा विश्लेषण किया जा सकता है।

(6) द्वैतता- मानव-भाषा की यह विशेषता भी महत्वपूर्ण हैं। इसमें रुपिग और खनिम एक साथ ग्रहग किये जाते हैं। रूपिम सार्थक इकाई को कहते हैं। खनिम निरर्थक पर ये अर्थ भेदक तथा सार्थक इकाइयों का निर्माण करने वाली ध्वनियां है। उदाहरण के लिए क, ध् ध्वनियां अपने आप में निरर्थक है। पर इन्हीं से कोड़ी-घोड़ी जैसे अनेक शब्द बन जाते हैं।

(7) परिवर्तित भूमिका- मानव, मानव से वार्तालाप करते समय, परस्पर बक्ता और श्रोता रूप धारण करता है। भाषण प्रवचन आदि अवश्य वक्ता और श्रोता अलग-अलग होते हैं। वक्ता के  श्रोता बनने और श्रोता के वक्ता बनने को ही भूमिका परिवर्तन कहा जाता है।

(8) दिक्-काल अन्तरणता-मानव-भाषा की एक विशेषता उसका स्थान विशेष तथा समय विशेष तक सीमित न होना है। दिल्ली के वासी लखनऊ, लन्दन आदि की चर्चा करते हैं। साथ ही आज हम अतीत के विषयों पर भी चर्चा करते हैं। अतः मानव-भाषा स्थान और समय की सीमा में बद्ध नहीं होती है।

(9) द्वि-मार्गता- मानव भाषा के प्रयोग की दो सारणियां हैं- 1. मुख द्वारा उच्चारण, 2. कान द्वारा श्रवण भाषा की लिखित पठित सारणी भी इन्हीं पर आधारित है।

(10) असहजवृत्तिका- जीवन की सहज वृत्तियों सुधा, तृषा तथा कामवासना आदि के लिए पशु-पक्षी मुख से कुछ ध्वनियां निकलते हैं। पर मानव यदि कोई ध्वनि निकालता है तो उसे भाषा का ही नाम दिया जाता है। अतः मानव सहज प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति है।

(11) स्वत पूर्णता- भाषा भावाभिव्यक्ति में पूर्ण है क्योंकि प्रत्येक भाषा की शब्दावली उस भाषा के बोलने वालों के प्राकृतिक वातावरण के आधार पर बनती है। अंग्रेजी में वैज्ञानिक शब्दावली और संस्कृत कि दार्शनिक शब्दावली इसका प्रमाण है। भाषा की पूर्णता का अभिप्राय सामाजिक परिवेश को अभिव्यक्त करने की क्षमता से सम्पन्न होता है।

(12) व्यार्जित सामाजिक सम्पदा- भाषा की उत्पत्ति और उसका विकास समाज सम्बन्धित है। माँ अपनी भाषा शिशु को प्रदान करती है। इस प्रकार मातृ-भाषा के रूप में भाषा परम्परागत और उत्तराधिकार में प्राप्त होने वाली अर्जित सम्पत्ति है। भाषा सीखने हेतु व्यक्ति को प्रयत्न नहीं करना पड़ता है।

(13) साख्योन्मुखता- भाषा जटिलता से सरलता की ओर ही उन्मुख रहती है, क्योंकि मानव सरलता ही पसन्द करता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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