शिक्षक शिक्षण / Teacher Education

समाज और शिक्षा में क्या सम्बन्ध (Relation between Society and Education in Hindi)

समाज और शिक्षा में क्या सम्बन्ध (Relation between Society and Education in Hindi)

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समाज और शिक्षा में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है परन्तु इससे पहले कि हम समाज और शिक्षा के इस आपसी सम्बन्ध के विषय में विचार करें, यह आवश्यक है कि हम शिक्षा के सन्दर्भ में समाज के वास्तविक अर्थ से परिचित हों। समाजशास्त्रीय भाषा में समाज एक अमूर्त सम्प्रत्यय है, सामाजिक सम्बन्धों का जाल है, परन्तु सामान्य प्रयोग में सामाजिक सम्बन्धों से बने समाज विशेष को समाज कहते हैं। समाजशास्त्रीय भाषा में इसे एक समाज कहते हैं। आज संसार के प्रायः सभी राष्ट्रों में शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का उत्तरदायित्व माना जाता है और इस दृष्टि से राज्य विशेष की सम्पूर्ण जनता ही उस राज्य का समाज होती है। आज जब हम शिक्षा के सन्दर्भ में समाज की बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य राज्य अथवा राष्ट्र विशेष की सम्पूर्ण जनता से ही होता है। जब हम इस प्रकार के किसी समाज का अध्ययन करते हैं तो उसके अन्तर्गत उसके घटक व्यक्ति-व्यक्ति, व्यक्ति-समूह और समूह-समूह के सामाजिक सम्बन्धों अथवा सामाजिक अन्तःक्रियाओं का ही अध्ययन करते हैं। तथ्य यह है कि जैसा समाज होता है वैसी ही उसकी शिक्षा होती है और जैसी किसी समाज की शिक्षा होती है वैसा ही वह समाज बन जाता है। स्पष्टीकरण प्रस्तुत है-

समाज का शिक्षा पर प्रभाव

प्रत्येक समाज अपनी मान्यताओं एवं आवश्यकताओं के अनुकूल ही अपनी शिक्षा की व्यवस्था करता है और समाज की मान्यताएँ एवं आवश्यकताएँ उसकी भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती हैं। समाज में होने वाले परिवर्तन भी उसके स्वरूप एवं आवश्यकताओं को बदलते हैं और उनके अनुसार उसकी शिक्षा का स्वरूप भी बदलता रहता है। यहाँ इस सबका वर्णन संक्षेप में आगे प्रस्तुत है।

  1. समाज की भौगोलिक स्थिति और शिक्षा

किसी भी समाज का जीवन उसकी भौगोलिक स्थिति से प्रभावित होता है। तब उसकी शिक्षा भी उससे प्रभावित होनी स्वाभाविक है। जिन समाजों की भौगोलिक स्थिति ऐसी होती है कि उनमें मनुष्य को जीवन रक्षा के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है, उनमें अधिकतर व्यक्तियों के पास शिक्षा के लिए न समय होता है और न धन, परिणामतः उनमें जन शिक्षा की व्यवस्था नहीं होती और शिक्षा का क्षेत्र भी सीमित होता है। इसके विपरीत जिन समाजों की भौगोलिक स्थिति मानव के अनुकूल होती है और प्राकृतिक संसाधन भरपूर होते हैं उनमें व्यक्तियों के पास शिक्षा के लिए समय एवं धन दोनों होते हैं, परिणामतः उनमें शिक्षा की उचित व्यवस्था होती है। यह तथ्य भी सर्वविदित है कि जिस देश में जैसे प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध होते हैं उसमें वैसे ही उद्योग-धन्धे पनपते हैं और उन्हीं के अनुकूल वहाँ शिक्षा की व्यवस्था की जाती है। कृषिप्रधान देशों में कृषि शिक्षा और उद्योगप्रधान देशों में औद्योगिक शिक्षा पर बल रहता है।

  1. समाज की संरचना और शिक्षा

भिन्न-भिन्न समाजों के स्वरूप भिन्न-भिन्न होते हैं। कुछ समाजों में जातियाँ होती हैं और जाति-भेद भी, कुछ में जातियाँ होती हैं परन्तु जाति-भेद नहीं होता और कुछ में जातियाँ ही नहीं होती। इसी प्रकार कुछ समाजों में कुलीन और निम्न वर्ग भेद होता है और कुछ समाजों में नहीं होता। समाज विशेष के इस स्वरूप का उसकी शिक्षा पर प्रभाव पड़ता है। अपने भारतीय समाज को ही लीजिए; जब इसमें कठोर वर्ण व्यवस्था थी तब शूद्रों को उच्च शिक्षा से वंचित रखा जाता था और आज जब वर्ण भेद में विश्वास नहीं किया जाता तो समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए शिक्षा की समान सुविधाएँ उपलब्ध कराने का नारा बुलन्द है।

  1. समाज की संस्कृति और शिक्षा

भिन्न-भिन्न अनुशासनों में संस्कृति को भिन्न भिन्न अर्थ में देखा-समझा गया है परन्तु आधुनिक परिप्रेक्ष्य में किसी समाज की संस्कृति से तात्पर्य उसके रहन-सहन एवं खान-पान की विधियों, व्यवहार प्रतिमानों, आचार-विचार, रीति-रिवाज, कला-कौशल, संगीत-नृत्य, भाषा–साहित्य, धर्म-दर्शन, आदर्श-विश्वास और मूल्यों के उस विशिष्ट रूप से होता है जिसमें उसकी आस्था होती है और जो उसकी अपनी पहचान होते हैं। किसी समाज की शिक्षा पर सर्वाधिक प्रभाव उसकी संस्कृति का ही होता है। किसी भी समाज की शिक्षा के उद्देश्य उसके धर्म-दर्शन, आदर्श-विश्वास और उसकी आकांक्षाओं के आधार पर ही निश्चित किए जाते हैं, उसकी शिक्षा की पाठ्यचर्या में सर्वाधिक महत्त्व उसके भाषा-साहित्य और धर्म-दर्शन को दिया जाता है और शिक्षा संस्थाओं में यथा व्यवहार प्रतिमानों को अपनाया जाता है।

  1. समाज की धार्मिक स्थिति और शिक्षा

यूँ धर्म संस्कृति का अंग होता है परन्तु यहाँ इस को अलग से इसलिए लिया गया है कि प्रारम्भ से ही शिक्षा पर धर्म का सबसे अधिक प्रभाव रहा है। दूसरी बात यह है कि अब धर्म के विषय में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं, कुछ उसे शिक्षा का आधार मानने के पक्ष में हैं और कुछ शिक्षा को धर्म से दूर रखने के पक्ष में हैं। धर्म की दृष्टि से समाजों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- एक वे जिनमें धर्म विशेष को माना जाता है और दूसरे वे जिनमें अनेक धर्मों का प्रचलन होता है। इन समाजों की शिक्षा व्यवस्था भिन्न-भिन्न होती है। धर्म विशेष को मानने वाले समाजों की शिक्षा में उनके अपने धर्म की शिक्षा को स्थान दिया जाता है; जैसे- मुस्लिम राष्ट्रों में। दूसरे प्रकार के समाजों में किसी धर्म विशेष की शिक्षा देना सम्भव नहीं होता, उनमें उदार दृष्टिकोण अपनाया जाता है; जैसे- अपने देश भारत में। कुछ समाजों में धर्म शिक्षा को स्थान ही नहीं दिया जाता; जैसे- रूस में।

  1. समाज की राजनैतिक स्थिति और शिक्षा

समाज की राजनैतिक स्थिति भी उसकी शिक्षा को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए, एकतन्त्र शासन प्रणाली वाले देशों में शिक्षा के द्वारा अन्धे राष्ट्रभक्त तैयार किए जाते हैं जबकि लोकतन्त्र शासन प्रणाली वाले देशों में शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को स्वतन्त्र चिन्तन और स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के लिए तैयार किया जाता है। इसके साथ-साथ एक बात और है और वह यह कि जो समाज राजनैतिक दृष्टि से सुरक्षित होता है उसकी शिक्षा के उद्देश्य व्यापक होते हैं और जिस समाज में राजनैतिक दृष्टि से असुरक्षा होती है वह केवल सैनिक शक्ति और उत्पादन बढ़ाने पर बल देता है।

  1. समाजसमाज की आर्थिक स्थिति और शिक्षा

समाज की आर्थिक स्थिति भी उसकी शिक्षा को प्रभावित करती है। आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न समाजों की शिक्षा बहुउद्देशीय होती है। वे अपने प्रत्येक सदस्य के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करते हैं, जन शिक्षा का प्रसार करते और इस सबके लिए अनेक साधन जुटाते हैं; जैसे- अमेरिका। प्रगतिशील समाज जन शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा पर अधिक बल देते हैं; जैसे- भारत। आर्थिक दृष्टि से पिछड़े समाज न अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की बात सोच पाते हैं, न जन शिक्षा की और न व्यावसायिक शिक्षा की; जैसे- बांग्ला देश। समाज का अर्थतन्त्र भी उसकी शिक्षा को प्रभावित करता है। कृषिप्रधान अर्थतन्त्र में शिक्षा की सम्भावनाएँ कम होती हैं, वाणिज्यप्रधान में अपेक्षाकृत उससे अधिक और उद्योगप्रधान में सबसे अधिक।

  1. सामाजिकसामाजिक परिवर्तन और शिक्षा

हम जानते हैं कि समाज परिवर्तनशील है। संसार का इतिहास इस बात का साक्षी है कि समाज के साथ-साथ उसकी शिक्षा का स्वरूप भी बदलता है। अपने भारतीय समाज को ही लीजिए। प्राचीन काल में इसकी भौतिक आवश्यकताएँ कम थीं और आध्यात्मिक पक्ष प्रबल था इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में धर्म और नीतिशास्त्र की शिक्षा पर अधिक बल दिया जाता था परन्तु आज उसकी भौतिक आवश्यकताएँ बढ़ गई हैं और आध्यात्मिक पक्ष निर्बल पड़ गया है इसलिए शिक्षा में विज्ञान एवं तकनीकी को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा है। कल तक नारियाँ केवल गृहिणी के रूप में रहती थीं इसलिए उन्हें केवल लिखने-पढ़ने एवं घरेलू कार्यों की शिक्षा दी जाती थी, आज वे पुरुष के साथ कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में कार्य करती हैं अतः उनके लिए पुरुषों की भाँति सभी प्रकार की शिक्षा सुलभ है। जब कभी सामाजिक क्रान्ति होती है तो वह शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन कर देती है।

 शिक्षा का समाज पर प्रभाव

एक ओर यदि यह बात सत्य है कि समाज शिक्षा को प्रभावित करता है तो दूसरी ओर यह बात भी सत्य है कि शिक्षा समाज के स्वरूप को निश्चित करती है और उसकी सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं आर्थिक स्थिति को प्रभावित करती हैं। शिक्षा मानव समाज की आधारशिला है; वह समाज का निर्माण करती है, उसमें परिवर्तन करती है और उसका विकास करती है।

  1. शिक्षा और समाज की भौगोलिक स्थिति पर नियन्त्रण

एक युग था जब मनुष्य को भौगोलिक परिस्थितियों का दास कहा जाता था परन्तु आज मनुष्य शिक्षा के द्वारा अपनी भौगोलिक परिस्थितियों पर नियन्त्रण करने में सफल हो गया है। वे दिन गए जब नदी और पहाड़ हमारे मार्ग में बाधक होते थे। शिक्षा के द्वारा हवाई जहाजों का निर्माण सम्भव हुआ और हवाई जहाजों से उड़कर हम नदी और पहाड़ ही पार नहीं करते अपितु बहुत कम समय में बहुत अधिक दूरी तय करते हैं। शिक्षा के द्वारा हम हर भौगोलिक परिस्थिति पर नियन्त्रण करने में सफल होते जा रहे हैं।

  1. शिक्षा और समाज का स्वरूप

शिक्षा के द्वारा ही मनुष्य अपने, समाज के, संसार के और इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के बारे में जानकारी प्राप्त करता है। इस ज्ञान के आधार पर ही वह अपने जीवन के उद्देश्य निश्चित करता है और इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए वह भिन्न-भिन्न समाजों का निर्माण करता है। सच्चा वेदान्ती मनुष्य-मनुष्य में तो क्या, संसार की किन्हीं दो वस्तुओं में भी भेद नहीं करता, वह सबको ब्रह्ममय देखता है। लेकिन ईश्वर विमुख व्यक्ति भौतिक पैमाने पर ही सब कुछ कसता है और मनुष्य-मनुष्य में अनेक प्रकार के भेद करता है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के व्यक्तियों के समाज का स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है। शिक्षा एक ओर समाज के स्वरूप की रक्षा करती है और दूसरी ओर उसमें आवश्यक परिवर्तन करती है।

  1. शिक्षा और समाज की संस्कृति

प्रत्येक समाज अपने सदस्यों में अपनी संस्कृति का संक्रमण शिक्षा के द्वारा ही करता है। इस प्रकार शिक्षा किसी समाज की संस्कृति का संरक्षण करती है। जब मनुष्य शिक्षित हो जाता है तो वह अपने अनुभवों के अधार पर अपनी संस्कृति में परिवर्तन करता है। इस प्रकार शिक्षा समाज की संस्कृति में विकास करती है। शिक्षा के अभाव में संस्कृति के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती।

  1. शिक्षा और समाज की धार्मिक स्थिति

हम यह देख रहे हैं कि कोई समाज अपनी शिक्षा में धर्म विशेष की शिक्षा का विधान करता है, कोई इस क्षेत्र में उदार दृष्टिकोण अपनाता है और संसार के भिन्न–भिन्न धर्मों की शिक्षा का विधान करता है और कोई समाज अपनी शिक्षा में धर्म को स्थान ही नहीं देता। परिणामस्वरूप पहले प्रकार के समाजों में धार्मिक कट्टरता पाई जाती है, दूसरे प्रकार के समाजों में धार्मिक उदारता पाई जाती है और तीसरे प्रकार के समाजों में अब एक ओर भौतिक विज्ञानों की शिक्षा से धार्मिक कूपमंडूकता एवं अन्धविश्वासों का अन्त होने लगा है और दूसरी ओर बढ़ती हुई सामाजिक अराजकता से मनुष्य अपनी शिक्षा को वास्तविक धर्म पर आधारित करने की ओर उन्मुख होने लगा है। शिक्षा के अभाव में लोग धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझ ही नहीं सकते।

  1. शिक्षा और समाज की राजनैतिक स्थिति

शिक्षा के द्वारा मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि की जाती है और उसके आचरण को निश्चित दिशा दी जाती है। शिक्षा के द्वारा ही उसमें विचार करने एवं सत्य-असत्य में भेद करने की शक्ति का विकास होता है। शिक्षा के द्वारा ही समाज में राजनैतिक जागरूकता आती है और व्यक्ति अपने अधिकार एवं कर्तव्यों से परिचित होते हैं। इसी के द्वारा उनमें राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय भावना का विकास किया जाता है। बिना उचित शिक्षा के विधान के व्यक्ति केवल राष्ट्र का अन्धा भक्त बनाया जा सकता है, जागरूक नागरिक नहीं।

  1. शिक्षा और समाज की आर्थिक स्थिति

एक युग था जब शिक्षा के द्वारा मनुष्य में केवल मानवीय गुणों का विकास किया जाता था, परन्तु रोटी – कपड़े – मकान की समस्या को सुलझाने वाली शिक्षा उस समय नहीं दी जाती थी, ऐसा नहीं कहा जा सकता। यह तो हो सकता है कि उस समय इसके लिए उचित विद्यालयों की स्थापना न की गई हो परन्तु परिवार और समुदायों में यह शिक्षा बराबर चलती रही होगी अन्यथा इस क्षेत्र में विकास कैसे होता! आज तो शिक्षा समाज की आर्थिक स्थिति का मूलाधार है। आज सभी समाज शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को किसी व्यवसाय अथवा उत्पादन कार्य में निपुण करने का प्रयत्न करते हैं। देखा यह जा रहा है कि जिस समाज में इस प्रकार की शिक्षा का जितना अच्छा प्रबन्ध है वह आर्थिक क्षेत्र में उतनी ही तेजी से बढ़ रहा है। बिना शिक्षा के हम आर्थिक क्षेत्र में विकास नहीं कर सकते।  

  1. शिक्षा और सामाजिक परिवर्तन

एक ओर यदि यह बात सत्य है कि समाज शिक्षा में परिवर्तन करता है तो दूसरी ओर यह बात भी सत्य है कि शिक्षा द्वारा सामाजिक परिवर्तन होते हैं। शिक्षा द्वारा मनुष्य अपनी जति की भाषा, रहन-सहन, खान-पान के तरीके और रीति-रिवाज सीखता है और उसके मूल्य एवं मान्यताओं से परिचित होता है। इससे उसका मानसिक विकास होता है और वह अपने, समाज के तथा इस ब्रह्माण्ड के बारे में सदैव सोचता रहता है। समाज में रहकर वह नए-नए अनुभव करता है और समाज की आवश्यकताओं एवं समस्याओं से परिचित होता है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति और समस्याओं के हल के लिए वह विचार करता है और उनके हल खोजता है और इससे समाज को प्रभावित करता है। कभी-कभी एक व्यक्ति पूरे समाज को बदल देता है। शिक्षा के अभाव में यह सब सम्भव नहीं। सामाजिक क्रान्ति के लिए शिक्षा मूलभूत आवश्यकता होती है।

उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि समाज और शिक्षा अन्योन्याश्रित होते हैं, जैसी किसी समाज की भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति होती है वैसी ही उसकी शिक्षा होती है। इतना ही नहीं अपितु किसी समाज में सामाजिक परिवर्तनों के साथ-साथ उसकी शिक्षा में भी परिवर्तन होते चलते हैं। और जिस समाज में जैसी शिक्षा की व्यवस्था की जाती है वैसी ही उस समाज की भौगोलिक स्थिति पर पकड़, और उसके स्वरूप एवं उसकी सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति में परिवर्तन होने लगता है। सामाजिक परिवर्तन लाने में शिक्षा आधारभूत भूमिका अदा करती है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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