शिक्षक शिक्षण / Teacher Education

इकाई पाठ योजना का निर्माण | इकाई पाठ योजना के पद | इकाई पद्धति के गुण | इकाई पद्धति के दोष

इकाई पाठ योजना
इकाई पाठ योजना

इकाई पाठ योजना का निर्माण | इकाई पाठ योजना के पद | इकाई पद्धति के गुण | इकाई पद्धति के दोष

इकाई पाठ योजना के निर्माण, गुण एवं दोष का वर्णन कीजिये।

मनोवैज्ञानिकों द्वारा ज्ञान को एक पूर्ण इकाई के रूप में स्वीकार किये जाने और बच्चो को स्वयं चुनाव के आधार पर सीखने के अवसर प्रदान किये जाने के कारण शिक्षण की अनेक विधियों का प्रतिपादन सम्भव हुआ। इनमें से कुछ प्रमुख प्रणालियां हैं समस्या समाधान प्रणाली, प्रोजेक्ट प्रणाली, डाल्टन प्रणाली आदि। अमरीका में इस दिशा में अनेक प्रयास प्रारम्भ हुए और शिक्षाशा्त्रियों ने सम्पूर्ण पाठ चर्चा के विभिन्न अनुभवों को एक पूर्ण इकाई के रूप में प्रस्तुत करना प्रारम्भ किया। अमरीकी शिक्षाशास्त्रियों के इन प्रयासों के फलस्वरूप इकाई प्रणाली अस्तित्व में आयी। इस इकाई प्रणाली के प्रतिपादक प्रो. मारीसन माने जाते हैं। मारीसन ने 1926 में पाठ योजना के क्षेत्र में एक नवीन उपागम को प्रतिपादित किया जिसे मारीसन उपागम या इकाई प्रणाली के नाम से जाना जाता है। इस प्रणाली का मूलभूत सिद्धान्त ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया में ज्ञान की एकता है। इस प्रणाली में ज्ञान को उसके विभिन्न अंगां का विश्लषण कर अर्जित करने का प्रयास किया जाता है। मारीसन महोदय का कहना है कि “इकाई वातावरण, संगठित वातावरण, कला या आचरण की व्यापक महत्वपूर्ण अंग है जिसे सीखने से व्यक्तित्व में सामंजस्य स्थापित हाता है। सक्षप में इकाई से तात्पर्य उस ज्ञान, क्रिया एवं अनुमव के संगठित रूप से है जो आपस में घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित होते हैं। इकाई किसी पाठ्यवस्तु का एक खण्ड मात्र नहीं है बल्कि वह तो सीखने की एक समग्र परिस्थिति है। पाठ्यक्रम को विभिन्न इकाइयों में विभाजित करते हुए पाठ्यक्रम को विद्यार्थियों के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है।

पाठ्यक्रम को उपयुक्त इकाइयों में विभाजित करना सरल कार्य नहीं है। अध्यापक को पाठ्यक्रम को विभिन्न इकाइयों में विभाजित करते समय अनेक सावधानियां बरतनी होती हैं जो कि निम्न है-

  1. अध्यापक को इकाई का निर्माण करते समय विद्यालय की स्थिति, उपलब्ध साधनों एवं उपकरणों का ध्यान रखना चाहिए।
  2. बच्चों के रुझान, आवश्यकताओं एवं अभिरुचियों का भी ध्यान रखना बहुत आवश्यक है।
  3. निर्मित की जाने वाली इकाई बच्चों की भौतिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुकूल होनी चाहिए।
  4. इकाई की समस्त सामग्री एवं क्रियाओं के बीच तार्किक सम्बन्ध होना चाहिए और एक इकाई दूसरी इकाई का आधार होनी चाहिए।
  5. इकाई का स्वरूप लचीला होना चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर इसमें थोड़ा बहुत परिवर्तन कर विभिन्न कक्षाओं के लिए प्रयोग किया जा सके।
  6. निर्मित इकाई द्वारा छात्र तथा विद्यालय दोनों की ही आवश्यकता पूर्ति सम्भव होनी चाहिए।

इकाई पाठ योजना के पद

मारीसन ने अपने द्वारा प्रतिपादित इकाई पद्धति को निर्मित करने में पांच पदों का उल्लेख किया है। वे हैं-

  1. खोज (Explanation)- इस प्रथम पद में शिक्षक को कक्षा के बारे में सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। शिक्षक का कक्षा के विद्यार्थियों के बीच पाये जाने वाले अन्तरों के बारे में सम्पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। साथ ही साथ उसे छात्रों की आवश्यकताओं, रुचियों आदि का भी ज्ञान होना चाहिए। अध्यापक को शिक्षण के उद्देश्यों और छात्रों के पूर्व ज्ञान के बारे में भी सम्पूर्ण जानकारी का हाना आवश्यक है। इस सब ज्ञान के होने पर ही शिक्षक ऐसे विषयों का चुनाव कर सकेगा जिन्हें छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत किया जाने पर वे उन्हें शीघ्र ही गहण कर सकेंगे।
  2. प्रस्तुतीकरण (Presentation)- दूसरे सोपान में शिक्षक को इकाई की सामग्री का छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत करना होता है। यह कार्य वात्तालाप अथवा व्याख्यान के माध्यम से किया जाता है। व्याख्यान या वार्तालाप प्रारम्भ करने से पूर्व शिक्षक को इस बारे में सन्तुष्ट हो जना चाहिए कि छात्रों को इकाई की विषयवस्तु के बारे में पूर्ण ज्ञान हो गया है और तभी उसे आगे बढ़ना चाहिए।
  3. आत्मीकरण (Assimilation)- इस तीसर सोपान में मॉरीसन महोदय ने पाठ्यवस्तु क्रियाओं के विकास की बात कही है। इस पद में शिक्षक छात्रों को निर्देशन प्रदान करता है। बच्चे अध्यापक की देखरेख एवं निर्देशन में अध्ययन कार्य को जारी रखते हैं, आपस में वार्तालाप करते हैं और इस प्रकार शिक्षण की इकाई का विकास सम्भव होता है।
  4. संगठन (Organization)- इस सोपान में छात्रों द्वारा ग्रहण किये गये ज्ञान को प्राप्त अनुभवो के आधार पर क्रमबद्ध रूप से लिपिबद्ध करना होता है। शिक्षक उनके द्वारा लिपिबद्ध किये गये अनुभवों के आधार पर यह जान पाते हैं कि छात्रों ने प्रस्तुत ज्ञान को किस सीमा तक ग्रहण या आत्मसात किया हैं।
  5. कथन (Recitation)- इस अन्तिम सोपान में बच्चे अपने द्वारा लिखित अनुभवों को कक्षा के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं, आपस में विचार विमर्श करते हैं, वाद-विवाद करते हैं और अपने द्वारा लिखित कथनों के तर्क प्रस्तुत करते हैं। यह सारा कार्य शिक्षक के निरीक्षण में सम्पत्न होता है और अध्यापक इन्हीं के आधार पर छात्रों द्वारा आत्मसात किये ज्ञान के बारे में निर्णय ले पाते हैं।

इकाई पद्धति के गुण

इकाई पद्धति के गुणों को निम्न प्रकार से गिनाया जा सकता है-

  1. इकाई पद्धति पूर्ण रूप से मनोवैज्ञानिक पद्धति है और यह गेस्टाल्ट के मनोविज्ञान पर आधारित है। इस पद्धति में खण्डों की अपेक्षा पूर्ण पर अधिक बल दिया गया है।
  2. इकाई पद्धति बालक केन्द्रित है। इसमें छात्रों की क्षमताओं, योग्यताओं, रुचियों, अभिरुचियों, रुझानों आदि का विशेष ध्यान रखा जाता है।
  3. यह पद्धति रुचिपूर्ण है जिस कारण शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने में सरलता रहती है।
  4. यह पद्धति बालकों में स्वस्थ अध्ययन की आदत डालने में सहायक होती है।
  5. इस पद्धति में अधिगम व्यवस्थित रूप में विद्यमान रहता है जिस कारण शिक्षकों द्वारा प्रस्तुत किया गया ज्ञान छात्रों के मस्तिष्क में स्थायी हो जाता है।
  6. यह पद्धति बालकों में सामाजिक गुणों का विकास करती है।
  7. इकाई पद्धति के बाल केन्द्रित होने के कारण इसके द्वारा जहां विद्यार्थियों में सामाजिक गुणों का विकास सम्भव होता है वहीं उनमें अपने विचारों को व्यक्त करने की क्षमता भी विकसित होती है।

৪. इकाई पद्धति का आधार प्रजातान्त्रिक होने के कारण छात्रों को वार्तालाप एवं अन्तःक्रियायें करने की पर्याप्त सुविधायें उपलब्ध रहती हैं जिस’ कारण छात्रों का सवांगीण विकास सम्भव होता है।

इकाई पद्धति के दोष

  1. इकाई पद्धति में ज्ञान को व्यवस्थित रूप में दिये जाने के कारण ज्ञान की विस्तार पूर्वक व्याख्या करनी होती है, जिसमें समय अधिक लगता है। अतः शिक्षाशास्त्रियों का मानना है कि इस पद्धति में समय की अधिक बर्बादी होती है।
  2. ज्ञान को विस्तार पूर्वक दिये जाने के कारण इस पद्धति का क्षेत्र सीमित हो जाता है। 40 या 45 मिनट की क्लास में ज्ञान को विस्तार पूर्वक दिये जाने के कारण इस पद्धति से अधिक ज्ञान बच्चों को नहीं दिया जा सकता और ज्ञान की मात्रा को सीमित रखना पड़ता है।
  3. विस्तार पूर्वक ज्ञान के दिये जाने की व्यवस्था के कारण विद्यार्थियों को पूर्ण ज्ञान नहीं दिया जा सकता। फलस्वरूप एक शिक्षण सत्र में उन्हें कम ज्ञान ही हासिल हो पाता है।
  4. इस पद्धति में चूंकि शिक्षक एवं छात्र एक निश्चित व्यवस्था में बंधे रहते हैं अतः शिक्षण में अधिगम की मौलिकता समाप्त सी हो जाती है।

दकाई पद्धति की इन कमियों के बाद भी यह पद्धति शिक्षण में महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें ज्ञान को विस्तार पूर्वक समझाकर छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है जिससे छात्रों के मस्तिष्क में किसी प्रत्यय अथवा कार्य की धारणा स्पष्ट तथा स्थायी हो जाती है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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