जनसंख्या वृद्धि | जनसंख्या वृद्धि का क्षेत्रीय प्रतिरूप | भारत में जनसंख्या वृद्धि की प्रवृत्ति | जनसंख्या की समस्याएँ
जनसंख्या वृद्धि | जनसंख्या वृद्धि का क्षेत्रीय प्रतिरूप | भारत में जनसंख्या वृद्धि की प्रवृत्ति | जनसंख्या की समस्याएँ | Population Growth in Hindi | Regional pattern of population growth in Hindi | Population Growth Trend in India in Hindi | population problems in Hindi
जनसंख्या वृद्धि
1871 ई0 के पूर्व भारत में जनसंख्या के विश्वसनीय आँकड़े प्राप्त नहीं हैं। मोरलैंड के अनुसार 17वाँ शताब्दी के आरंभ में, भारत में 10 करोड़ जनसंख्या का अनुमान है। 1850 ई0 के आस-पास भारत में अनुमानित जनसंख्या 15 करोड़ थी। 1871 ई0 में प्रथम जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 25 करोड़ थी। 1901 ई0 से वर्तमान समय तक जनसंख्या की वृद्धि निम्नांकित तालिकानुसार हुई-
वर्ष |
भारत की जनसंख्या |
दशाब्दि परिवर्तन करोड़ (वृद्धि +, ह्रास-) |
1901 |
23.83 |
– |
1911 |
25.20 |
+5.75 |
1921 |
25.13 |
-0.31 |
1931 |
27.89 |
+11.00 |
1941 |
31.86 |
+14.22 |
1951 |
36.10 |
-13.31 |
1961 |
43.92 |
+21.51 |
1971 |
54.81 |
+24.80 |
1981 |
68.38 |
+24.66 |
1991 |
84.43 |
+23.86 |
2001 |
102.70 |
+21.34 |
Sources of Census of India, 2001 से संकलित।
जनसंख्या की कुल वृद्धि का सीधा संबंध जन्म एवं मृत्यु दर से होता है। भारत में वार्षिक जन्म एवं मृत्यु दर अग्रांकित तालिका में प्रदर्शित है-
वर्ष |
जन्मदर |
मृत्युदर |
1901-10 |
49.2 |
42.6 |
1911-20 |
48.1 |
47.2 |
1921-30 |
46.4 |
36.3 |
1931-40 |
45.2 |
31.2 |
1941-50 |
39.9 |
27.4 |
1951-60 |
41.7 |
22.8 |
1961-70 |
41.2 |
19.0 |
1971-80 |
37.2 |
15.0 |
1981-90 |
33.2 |
12.2 |
1991-2000 |
30.9 |
10.8 |
उपरोकत दोनों तालिकाओं का विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि भारत का जनांकिकीय इतिहास काफी विविधतापूर्ण रहा हे। बीसवीं सदी के आरंभ से आठवें दशक तक देश की जनसंख्या में लगभग तीन गुनी वृद्धि हुई है। वृद्धि दर के अनुसार इस अवधि को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-
- स्थिर जनसंख्या की अवधि-1901 से 1921 ई0 तक ।
- धीमी गति से बढ़ती जनसंख्या की अवधि 1921 से 1951 ई0 तक।
- तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या की अवधि 1961 से 2001 ई. तक।
जनसंख्या वृद्धि के स्थानिक प्रतिरूप
जनसंख्या की वृद्धि दर में व्यापक प्रादेशिक अंतर दृष्टिगोचर होते हैं। राज्य स्तर पर 1991-2001 के दौरान 21 रूपयों तथा 5 केंद्र शासित प्रदेशों में जनसंख्या वृद्धि दर में पिछले दशक (1981-1991) की तुलना में गिरावट दर्ज हुई। इन 21 राज्यों में देश की दो तिहाई से अधिक अनसंख्या निवास करती है। देश में पिछले दशक (1981-1991) की अपेक्षा 1991- 2001 के दौरान वृद्धि दर में 2.52 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई। 16 राज्यों के वृद्धि देशों में राष्ट्रीय औसत अधिक गिरावट दर्ज की गयी। पाँच राज्यों (राजस्थान, पंजाब, झारखंड, जम्मू एवं कश्मीर तथा गोवा) में राष्ट्रीय औसत से कम गिरावट दर्ज हुई। इसके विपरीत सात राज्यों (बिहार, गुजरात, हरियाणा, मणिपुर, नागालैंड, सिक्किम तथा उत्तर प्रदेश) में उनकी वृद्धि दरों में धनात्मक वृद्धि दर्ज हुई। (तालिका 10.3)।
केंद्र शासित प्रदेश अत्यधिक नगरीकृत होने के कारण सामान्यतः उच्च वृद्धि दर दर्ज करते हैं, जैसा कि दमन एवं दीव (26.97 प्रतिशत), तथा दादरा एवं नगर हवेली (25.63- प्रतिशत) की वृद्धि दरों से स्पष्ट होता है। किंतु, दूसरी ओर अन्य केंद्र शासित प्रदेशों ने अपनी वृद्धि दरों में 1.83 (चंडीगढ़) तथा -21.76 (अंडमान एवं निकोबार) के मध्य गिरावट दर्ज की।
तालिका : (A) राज्य के अंदर प्रवास की उपनतियाँ (प्रतिशत में)
प्रवास के प्रकार |
कुल प्रवासी जनसंख्या |
पुरुष प्रवासी |
महिला प्रवासी |
ग्रामीण- ग्रामीण |
69.33 |
49.67 |
75.77 |
ग्रामीण-नगरीय |
15.74 |
27.27 |
11.95 |
नगरीय- ग्रामीण |
5.84 |
7.68 |
5.23 |
नगरीय-नगरीय |
9.10 |
15.38 |
7.04 |
योग |
100.00 |
24.69 |
75.31 |
तालिका (B) अंतः राज्यीय प्रवास की उपनतियाँ (प्रतिशत में)
प्रवास के प्रकार |
कुल प्रवासी जनसंख्या |
पुरुष प्रवासी |
महिला प्रवासी |
ग्रामीण- ग्रामीण |
28.40 |
18.02 |
36.71 |
ग्रामीण-नगरीय |
32.83 |
41.42 |
25.95 |
नगरीय- ग्रामीण |
7.17 |
6.67 |
7.58 |
नगरीय-नगरीय |
31.60 |
33.90 |
29.75 |
योग |
100.00 |
44.48 |
55.52 |
राज्य के अंदर प्रवास के विश्लेषण से यह ज्ञात होता है कि ग्रामीण से ग्रामीण क्षेत्रों के लिये प्रवास करने वाली जनसंख्या का प्रतिशत सर्वोच्च (69.3 प्रतिशत) है। ऐसे प्रवासों में महिलाओं का अंशदान 75 प्रतिशत है। ऐसे प्रवास विवाह के कारण होते हैं। पुरुषों का अंशदान 50 प्रतिशत से कुछ कम है।
अंतःराज्यीय प्रवास करने वालों की संख्या राज्य के अंदर प्रवासियों से कम है। इस वर्ग के प्रवासियों में महिलाओं की संख्या पुरूषों से अधिक है। अंतःराज्यीय प्रवासी महिलाओं में 36.7 प्रतिशत ग्रामीण से ग्रामीण तथा लगभग 30 प्रतिशत नगरीय से नगरीय, लगभग 26 प्रतिशत ग्रामीण से नगरीय तथा केवल 7.6 प्रतिशत नगरीय से ग्रामीण क्षेत्रों की ओर रही है। इसके विपरीत पुरूष प्रवासियों में सर्वाधिक प्रतिशत (41 प्रतिशत) ग्रामीण से नगरीय, लगभग 34 प्रतिशत नगरीय से नगरीय, 18 प्रतिशत ग्रामीण से नगरीय तथा 6.7 प्रतिशत नगरीय से ग्रामीण क्षेत्रों की ओर रहा है।
उपरोकत दोनों तालिकाओं के विश्लेषण से निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं-
(i) लगभग 85 प्रतिशत राज्य के अंदर प्रवास करने वाले तथा लगभग 63 प्रतिशत अंतःराज्यीय प्रवास करने वाले लोग ग्रामीण क्षेत्रों में उत्पन्न हुए।
(ii) राज्य के अंदर प्रवास करने वाली समस्त जनसंख्या में तीन-चौथाई महिलायें हैं जो विवाह के कारण अन्य स्थानों पर प्रवास करती हैं।
(iii) राज्य के अंदर प्रवास करने वाली समस्त जनसंख्या में से लगभग आये, पुरुष प्रवासी हैं जो ग्रामीण से ग्रामीण क्षेत्रों की ओर प्रवास करते हैं। ऐसे प्रवास स्पष्टतः रोजगार के लिये, फार्म या अन्य प्रतिष्ठानों की ओर होते हैं, जो ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित होते हैं।
जनसंख्या की समस्याएँ
अन्य विकासशील देशों की भाँति भारत भी जनातिरेक (over population) की समस्या से ग्रस्त है जिसका प्रमुख कारण तीव्र दर (लगीग 2 प्रतिशत वार्षिक दर) से बढ़ती हुई जनसंख्या है। भूमि तथा इसके संसाधनों पर जनसंख्या का दबाव निरंतर बढ़ रहा है क्योंकि संसाधन सीमित हैं जिन्हें जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में बढ़ाया नहीं जा सकता है। परिणामतः भारत के लाखों लोग ‘निर्धनता रेखा’ के नीचे निवास करते हैं तथा अधिकांश लोग कुपोषण से ग्रस्त हैं।
तीव्र दर से बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण आर्थिक प्रगति तथा सामाजिक विकास के सभी प्रयास निष्फल हो रहे हैं। इसके अतिरिक्त, जनसंख्या की तीव्र दर ने अनेक पर्यावरणीय तथा सामाजिक समस्याओं को उग्र बना दिया है। जनसंख्या की विस्फोटक वृद्धि से संबंधित कुछ समस्याओं का विवरण निम्नलिखित है-
(1) भोजन की समस्या
स्वतंत्रता के पश्चात् तीन दशकों तक देश में खाद्यान्न की कमी विकट समस्या को हल करने के लिये भारत को बड़ी मात्रा में विदेशों से खाद्यान्न आयात करने पड़े। किंतु उसके बाद स्थिति में सुधार हुआ। हरित क्रांति के कारण पंजाब तथा तमिलनाडु में क्रमशः गेहूँ तथा चावल उत्पादन में सहसा वृद्धि हुई, यद्यपि हरित क्रांति का प्रभाव अधिकांशतः उत्तर पश्चिमी राज्यों तक सीमित रहा। कुल मिलाकर, भारत अब खाद्यान्न उत्पादन में आत्म-निर्भर हो गया है। खाद्यान्नों का उत्पादन 1951 में 40.1 मिलियन टनसे बढ़कर 1961 में 60.9 मिलियन टन, 1971 में 84.5 मिलियन टन, 1981 में 104 मिलयन टन, 1991 में 141.9 मिलियन टन तथा 2002 में अब तक के शिखर पर, 174 मिलियन टन पहुँच गया। किंतु दालों के उत्पादन में तदनुरूप वृद्धि नहीं हो सकी। जहाँ अन्नों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 1951 में 40.1 मिलियन टनसे बढ़कर 1961 में 60.9 मिलियन टन, 1971 में 84.5 मिलियन टन, 1981 में 334.2 ग्राम प्रतिदिन थी, 2002 में यह 457.3 ग्राम हो गयी (1991 में अधिकतम उपलब्धता 468.5 ग्राम प्रतिदिन दर्ज हुई)। इसके विपरीत दालों की उपलब्धता वास्तव में 1951 में 60.7 ग्राम प्रतिदिन प्रति व्यक्ति से घटकर 2002 में 35 ग्राम मात्र रह गयी है। समस्त खाद्यान्नों की उपलब्धता में अवश्य ही सुधार हुआ है जो 1951 में 394.5 ग्राम से बढ़कर 2002 में 492.2 ग्राम प्रतिदिन हो गया तथा 1991 में सर्वोच्च (510.0 ग्राम प्रतिदिन) दर्ज हुआ। भारत अब चावल तथा गेहूँ का निर्यात भी करने लगा है। जो 2002-03 में समस्त खाद्य सामग्रियों के निर्यात का क्रमशः 18.4 प्रतिशत तथा 5.4 प्रतिशत रहा।
(2) कुपोषण का अभिप्राय एक ऐसी विकृतिजन्य दशा से है जो किसी आवश्यक पोषक तत्त्व की कमी या अधिकता से उत्पन्न होती है। कुपोषण चार प्रकार का होता है- (1) पोषण की कमी, (2) पोषण का अतिरेक, (3) असंतुलन तथा (4) विशिष्ट कमी।
भारतीय स्वस्थ शरीर के लिये आवश्यक कैलोरी (2357/प्रतिदिन) से कम (1945/ प्रतिदिन) उपभोग करता है। निर्धनता रेखा के नीचे रहने वाली लगभग 30 प्रतिशत जनसंख्या इससे भी कम कैलोरी (1700) का सेवन करती है। दालों तथा तिलहनों की उपलब्धता में निरंतर गिरावट चिंताजनक है क्योंकि ये ही प्रोटीन तथा वसा के प्रमुख स्रोत होते हैं। युवा गर्भवती तथा दुग्ध पान कराने वाली महिलाएँ तो अपनी आवश्यकता की 60 प्रतिशत मात्र कैलोरी प्राप्त करती हैं। शिशु भी कुपोषण से ग्रस्त होते हैं।
(2) निर्धनता –
भारत जैसे विकासशील देशों में निर्धनता सबसे बड़ी समस्या है। 1977-78 में भारत में लगभग 330 मिलियन (देश की 51.3 प्रतिशत जनसंख्या) निर्धन लोग थे। 1983 में निर्धन लोगों का प्रतिशत घटकर 44.5, 1988 में 38.9, 1994 में 36 तथा वर्ष 2000 में 26.1 रह गया। 2007 तक इसके 20 प्रतिशत से भी कम होने की संभावना है। संख्या की दृष्टि से निर्धन लोग 1977-78 में 328.9 मिलियन से घटकर 1999-2000 में 260.3 मिलियन रह गये।
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