भूगोल / Geography

कोबर की भू-सन्नति सिद्धान्त | पर्तवों की उत्पत्ति से सम्बन्धित कोबर की संकल्पना

कोबर की भू-सन्नति सिद्धान्त | पर्तवों की उत्पत्ति से सम्बन्धित कोबर की संकल्पना | Kober’s Geosyncline theory in Hindi | Cobar’s concept related to the origin of the mountains

कोबर की भू-सन्नति सिद्धान्त

कोबर की भू-सन्नति सिद्धान्त

कोबर की भू-सन्नति सिद्धान्त

(The Geosyncline-Orogen theory of Kober)

जर्मन भू-वैज्ञानिक कोबर ने संसार के विभिन्न भागों के पर्वतों का अध्ययन कर प्रतिरूपी पर्वत-निर्माण स्थल (Typical Orogen) की कल्पना की है जिसमें एक अग्रप्रदेश और एक पृष्ठप्रदेश के स्थान पर दो अग्रप्रदेश (Foreland) हैं जो एक दूसरे की दिशा में अधिक्षेपित (Over thrusting) होते हैं। इन दो अग्रप्रदेशों अथवा प्राचीन दृढ़ स्थलखण्डों या क्रेटोजेन (Rigid masses or Kratogen) के किनारों पर भू-सन्नति की तलछटों के सम्पीडन से पर्वत श्रेणियों का निर्माण होता है, और इन दो पार्श्ववर्ती पर्वत श्रेणियों (Border ranges or Randlett) के बीच का भाग वलन की क्रिया से लगभग अप्रभावित रह जाता है। इस अप्रभावित भाग को कोबर ने (Zwischeng ebrige betwixt-mountains) सन्नतियों की तलछटों से पर्वत-निर्माण प्रक्रम द्वारा इन दृढ़ भूखण्डों के क्षेत्रफल में वृद्धि हुई है, और इस प्रकार महाद्वीपों के वर्तमान आकार का विकास हुआ है।

कोबर संकुचन परिकल्पना के भाष्यकार (Exponent of the contraction hypothesis) रहे हैं। उनके अनुसार पृथ्वी के उत्पत्ति-काल से ही संकुचन बराबर होता रहा है, और इसी संकुचन से समय-समय पर पर्वत-निर्माण के लिए बल प्राप्त होता रहा है। कोबर के अनुसार पृथ्वी के भू-वैज्ञानिक इतिहास में छः प्रमुख पर्वत-निर्माण काल हुए हैं। इनमें से तीन कैम्ब्रियन युग से पूर्व हुए हैं जिनके बारे में हमारा ज्ञान बहुत थोड़ा है, और तीन बाद में जिनके बारे में हमारी जानकारी अधिक है। उनके विचार में प्रत्येक पर्वत-निर्माण के समय एक ही प्रकार की घटनाओं के क्रम की पुनरावृत्ति हुई है और इसका सामान्य प्रक्रम बतलाया जा सकता है। सबसे पहले भूसन्नति का निर्माण हुआ है जिससे अवसादों का निक्षेप तथा साथ-साथ भू-सन्नति की तली का धंसन (Subsidence) होता है इसके बाद भू-सन्नति के दोनों पार्श्वो अर्थात् अग्रप्रदेशों के एक दूसरे की ओर खिसकने से संपीडन के कारण अवसादों का वलन होता है और पर्वतों का निर्माण होता है। पर्वतन (Orogenesis) काल में ही ज्वालामुखी क्रियायें तथा चट्टानों में तीव्र रूपान्तरण (Vulcanism and intense metemorphism) भी होते हैं। फिर पर्वतों के निर्माण के बाद, अपरदन का एक लम्बा काल रहा है जिसमें पर्वतों का अनाच्छादन होता है और अन्त में वे कट  कर पेनिप्लेन में परिवर्तित हो जाते हैं।

कोबर के विचार मूलतः हॉल तथा डाना की भू-सन्नतीय परिकल्पना- जिसका बाद में हॉग ने संवर्द्धन किया है, पर आधारित हैं और इसमें उन्होने पर्वतीकरण संबंधी अपने विचारों का सम्मिश्रण किया है। किन्तु जहाँ हाँग की भूसन्नति एक संकीर्ण गड्ढा है, कोबर की भू-सन्नति एक लम्बा तथा चौड़ा जल क्षेत्र है।

ऊपर वर्णित पर्वतन गतियों (Orogenic movements) के अतिरिक्त एक और प्रकार की गति का जिक्र किया गया है जो स्थलीय भागों अर्थात् क्रेटोजेन (Kratogen) में पायी जाती है। इस प्रकार की गति को उन्होंने क्रटोजेनिक गति (Keratogenic Movements) कहा है। पर्वतन गति से भूसन्नतियों में गहराई तक वलन और रूपान्तरण होता है, औश्र क्रेटोजेनिक गति से स्थलीय भागों में विभ्रंशों और विभंगों (Rifts and tracetures) का निर्माण होता है। किन्तु स्थलीय भागों के किनारों पर जहाँ सागरीय अतिक्रमण (Transgression of sea) हुआ है, वहाँ के अवसादों में हल्का वलन क्रेटोजेनिक गतियों से उत्पन्न समझा जाता है। उदाहरण के लिए, जूरा पर्वत के छिछले वलन (Superficial folds), राइन तथा पूर्वी अफ्रिका की विभ्रंश घाटियाँ तथा मध्य यूरोप के होर्स्ट या ब्लॉक पर्वत सभी क्रेटोजेनिक गतियों के परिणाम हैं।

कोबर के विचार में पर्वतों की दिशा तथा स्थिति बहुत हद तक दृढ़ भू-खण्डों की स्थिति से नियंत्रित हुई है। यूरोप का मूलकेन्द्र रूस तथा फेनो-स्कैन्डिया का दृढ़ भूखण्ड है जिसको विभिन्न युगों के मोड़दार पर्वत अर्थात् स्कैन्डिनेविया के कैलिडोनियन पर्वत, हर्सिनियन युग के युराल पर्वत तथा अल्पाइन युग के कारपेथियन पर्वत दत्यादि घेरे हुए हैं। अतः रूसी दृढ़ भू- खण्ड में विभिन्न भू-वैज्ञानिक कालों में वलित क्षेत्रों के जुड़ने से यूरोप का विस्तार होता गया है। और भू-सन्नतियों में पर्वतीय क्षेत्रों के विकास द्वारा अंगारालैंड तथा गौंडवाना लँड एक दूसरे से जुड़ गये हैं जिससे यूरेशिया के विस्तृत स्थलखण्ड का निर्माण हुआ है। इसी प्रकार अन्य महादेशों में भी प्राचीन दृढ़ भूखण्ड हैं, जिनको घेरे हुए अपेक्षाकृत गये मोड़दार पर्वतों के क्षेत्र मिलते हैं। वास्तव में इस विचार के प्रवर्तक स्वेस रहे हैं जिनके अनुसार नये पर्वतन पट्टियों के जुड़ने से महाद्वीपों के क्षेत्रफल में विस्तार हुआ है। स्टिल (H. Stille) ने भी इस मत का समर्थन किया है।

कोबर संकुचन में विश्वास करते हैं, और संपीडन प्रतिबलों (Compressive stresses) के लिए संकुचन ही चालन-शक्ति (Motive force) प्रदान करता है। किन्तु वे संतुलन के सिद्धान्त (Theory of isostasy) को पूर्णतः मानते हैं, और ऊँची पर्वत श्रेणियाँ भू-पटल पर इसलिए खड़ी हैं कि उनके नीचे गहराई तक कम घनत्व की चट्टानें पाई जाती हैं। पृथ्वी की सिकुड़न से उत्पन्न क्षैतिज गति के कारण पर्वतन क्षेत्र (Orogenetic zone) में अत्यधिक मात्रा  में पदार्थों का संग्रह और अवतलन (Subsidence) होता है। जब पर्वतन क्षेत्र में वलन होता है. तो जितना पदार्थ ऊपर उठता है उससे कहीं अधिक पदार्थ नीचे की ओर गहराई में प्रवेश करता है। क्षैतिज और उद्धधर बलों में बराबर द्वन्द चलता रहता रहता है, और विभिन्न भू-वैज्ञानिक कालों में एक ही क्षेत्र में उत्थापन और धंसन एकान्तर रूप से (Alternately) संभव है।

कोबर के पर्वत निर्माणक सिद्धान्त की आलोचना इस बात पर की गयी है कि पृथ्वी की सिंकुड़न से उत्पन्न संकुचन की शक्ति इतनी प्रबल नहीं हो सकती कि इससे हिमालय और आल्पस जैसे महान पर्वतमालाओं का निर्माण संभव हो सके। फिर कोबर की यह धारणा कि दो अग्रप्रदेश एक दूसरे की ओर खिसकते हैं और इससे उत्पन्न संपीडन बलों से वलन होता है, विवाद का विषय रही हैं। कोबर के सिद्धान्त के द्वारा पश्चिम-पूरक दिशा में फैले पर्वत मालाओं (आल्प्स तथा हिमालय) की व्याख्या तो हो जाती है, किन्तु उत्तर-दक्षिण दिशा में फैले हुए रॉकीज तथा ऐन्डीज पर्वत मालाओं का स्पष्टीकरण मुश्किल है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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