क्षेत्रीयकरण | क्षेत्रीयता को रोकने के उपाय | क्षेत्रीयता को दूर करने के उपाय | क्षेत्रवाद के उदय के कारण

क्षेत्रीयकरण | क्षेत्रीयता को रोकने के उपाय | क्षेत्रीयता को दूर करने के उपाय | क्षेत्रवाद के उदय के कारण

क्षेत्रीयकरण

अथवा

क्षेत्रीयता से आप क्या समझते हैं?

संकुचित अर्थ में क्षेत्रीयता का तात्पर्य एक प्रदेश या प्रदेश के निवासियों की उस समाज विरोधी (Anti Social) भावना या प्रवृत्ति से है जिसके अनुसार वे अन्य क्षेत्रों यहाँ तक कि सम्पूर्ण राष्ट्र के हितों या स्वार्थों की बलि देते हुए अपने क्षेत्र के हितों या स्वार्थों की पूर्ति के लिए अन्मुख होते हैं। क्षेत्रीयता का यह स्वरूप उस क्षेत्र के निवासियों में यह भावना भर देता है कि उनकी भाषा, संस्कृति, परम्परायें, प्रजातीय विशेषतायें, ऐतिहासिक स्मृतियाँ आदि सर्वश्रेष्ठ हैं, अतः उनके क्षेत्र के सर्वांगीण विकास के लिए हर सम्भावित सुविधाओं का होना आवश्यक है। उन्हें इस बात की थोड़ी भी चिन्ता नहीं होती है कि वे अपने क्षेत्र के स्वार्थों की पूर्ति के लिए दूसरे क्षेत्रों का कितना अहित कर रहे है। क्षेत्रीयता के संकुचित स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए श्री हेडविंग हिंट्ज (Hedwing Hintze) ने लिखा है, ‘क्षेत्रीयता विशेषानुरक्तवाद (Particularism) से अत्यन्त घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है और वह अत्यधिक अथवा दमनकारी केन्द्रीयकरण के विरूद्ध एक प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न होती है और इसीलिए इसके अन्तर्गत आधुनिक राजनीतिक तथा सांस्कृतिक जीवन की विविध समस्याओं की समस्या जैसे अल्पसंख्यकों की समस्या, प्रशासनीय विकेन्द्रीकरण स्थानीय स्वशासन, स्वदेश पूजा तथा स्थानीय देशभक्ति की समस्याओं का समावेश होता है।”

क्षेत्रीयता को रोकने तथा दूर करने के उपाय

क्षेत्रीयता को रोकने तथा उसे दूर करने के उपाय इस प्रकार हैं- 1. सभी क्षेत्रों के आर्थिक विकास पर बल, 2. भाषावाद कीसमस्या का समाधान, 3. राष्ट्रभाषा का प्रचार, 4. क्षेत्रीय राजनैतिक दलों पर प्रतिबन्ध, 5. विभिन्न क्षेत्रों में संस्कृतियों की सामान्य विशेषताओं का प्रचार, 6. केन्द्रीय सरकार तथा राज्यों के बीच अच्छे सम्बन्ध, 7. केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में सन्तुलित प्रतिनिधित्व तथा 8. राष्ट्रीय एकता एवं हितों पर बल।

क्षेत्रवाद के उदय के कारण

(1) ऐतिहासिक कारण – भारत के राजनैतिक इतिहास में यह उतार-चढ़ाव एक बार नहीं बल्कि असंख्य बाद हुआ, जिसके परिणामस्वरूप क्षेत्रीयता या स्वशासन को स्थापित करने की इच्छा इस देश की एक राजनैतिक परम्पररा बन गयी और जनत में स्थानीय स्वामिभक्ति तथा स्थानीय हितों कोध्यान में रखते हुए कार्य करने की आदत बन गयी। इस परम्परा के अनुरूप रूप से चलने के कारण वर्तमान समय में क्षेत्रीयता की प्रवृत्ति इतनी गम्भीर हो गयी है कि नागालैण्ड, तमिल प्रदेश, पंजाबी सूबा आदि की माँग की जाने लगी है। इस प्रकार भारत में क्षेत्रीयता की भावना का विकास करने में ऐतिहासिक कारणों का पर्याप्त योगदान रहा है।

(2) राजनैतिक कारण- अनेक दल भाषा तथा धर्म की आड़ लेकर एक क्षेत्र के लोगों को यह आशा दिखाकर उनमें क्षेत्रीयता की भावना भड़काते है कि अपने प्रदेश को शीघ्र ही स्वशासन की स्वतन्त्रता मिलने वाली है और उसके बाद वे अपने क्षेत्र के खोये हुए गौरव को स्वयं पुनर्जीवित कर लेने में सफल हो जायेंगे। प्रायः क्षेत्रीय नेता अपने क्षेत्र में ही नहीं केन्द्र सरकार तक पर अपना विस्तृत प्रभाव रखते हैं। ये नेता अपने क्षेत्रों के स्वार्थों की पूर्ति के लिए केन्द्रीय सरकार पर आघात पहुँचाने तक में हिचकिचाहट नहीं करते, जिसके परिणामस्वरूप केन्द्रीय तथा राज्य की सरकारों के सम्बन्ध विकृत रूप धारण कर लेते हैं। परिणामस्वरूप केन्द्रीय सरकार की ओर से कुछ ऐसे कार्य हो जाते हैं जो लोगों में क्षेत्रीयता के विकास मे जाने अनजाने सहयोग दे बैठते हैं। इस प्रकार राजनैतिक कारण या राजनैतिक के लोगों में क्षेत्रीयता की भावना का विकास करने में सक्रिय सहयोग देते है।

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