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घनानन्द के पद्यांशों की व्याख्या | घनानन्द के निम्नलिखित पद्यांशों की संसदर्भ व्याख्या

घनानन्द के पद्यांशों की व्याख्या | घनानन्द के निम्नलिखित पद्यांशों की संसदर्भ व्याख्या

घनानन्द के पद्यांशों की व्याख्या

  1. पहिले घनआनंद सींचि सुजान कहीं बतियाँ अति प्यार पगी।

अब लाय वियोग की लाय, बलाय बढ़ाय, बिसास-दगानि दगी।

अखियाँ दुखियानि कुबानि परी न कहूँ लगै कौन घरी सु लगी।

मति दौरि थकी, न लहै ढिक ठौर, अमोही के मोह-मिठास ठगी।।

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- प्रस्तुत छन्द में प्रेमिका व्यथित होकर प्रियतम के प्रति अपनी वश्यता और प्रियतम की निर्ममता का वर्णन कर रही है।

व्याख्या- पहले तो तुमने प्यार भरी मीठी-मीठी बातें करके मेरे हृदय को सींचा। अब मेरा दुःख बढ़ाते हुए वियोग की ज्वाला में उसे जला रहे हो। तुम कितने विश्वासघाती हो। फिर भी इन दुखिया आँखों को न जाने कौन-सी बुरी आदत पड़ गई है कि उनको चैन नहीं मिलता। पता नहीं ये किस घड़ी में लगी थीं कि अब कहीं लगती ही नहीं (हमेशा असन्तुष्ट रहती हैं)। मेरी बुद्धि दौड़-दौड़कर थक गई है (इन आँखें की दवा की तलाश में)। मेरी ये आँखें इस निर्मोही के मोह के मीठेपन में इस तरह ठग ली गई हैं कि इन्हें कोई ठौर-ठिकाना नहीं मिल रहा है।

विशेष- (1) अलंकार – ‘सींचि सुजान’, ‘प्यार पगी’, ‘बलाय बढ़ाय बिसास’, ‘दगानि दगी’, ‘ढिक ठौर’ एवं ‘मोहि-मिठास’ में अनुप्रास अलंकार। सम्पूर्ण छन्द में वर्ण-चयन भाव के नितान्त अनुरूप है।

  1. रावरे रूप की रीत अनूप, नयो नयो लागत ज्यौं-ज्यौं निहारिये।

त्यौं इन आँखिन बानि अनोखी, अघानि कहूँ नहिं आनि तिहारियै।

एक ही जीव हुतौ सुतौ वार्यौ, सुजान, सकोच औ सोच सहारियै।

रोकि रहै न, दहै, घनआनंद बाबरी रीझ के हाथनि हारियै।

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- प्रस्तुत सवैये में कवि घनानन्द सुजाम के रूप की नित्य जवीनता की ओर संकेत करते हुए कहता है कि-

व्याख्या- हे सुजान ! आपके रूप की रीति अपुनम है। उसकी कोई उपमा नहीं है, क्योंकि उसे जैसे-जैसे देखा जाता है, वैसे ही वैसे नया-नया प्रतीत होता रहता है और जिस प्रकार आपके रूप की रीति अनुपम है, उसी प्रकार मैं तुम्हारी शपथ खाकर कहता हूँ कि मेरी इन आँखों की आदत भी अनोखी है। ये आपके रूप का पान करती-करती कभी तृप्ति का अनुभव नहीं करतीं। हमेशा उसे देखना ही चाहती हैं। आँखों की तो यह दशा है और मेरा जो अकेला जीव था, वह मैंने आपके ऊपर निछावर कर दिया। अब मेरे पास संकोच एवं चिन्ता के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं है। अतः आप सहारा दीजिए, मेरा भार अपने ऊपर लीजिए अन्यथा काम बिगड़ जायेगा। देखिये भी तो रीझ मेरे रोके रुकती ही नहीं और मुझे जलाये जा रही है। हे आनन्दघन ! अब मुझे अपनी इस रीझ के हाथों पराजित होना पड़ रहा है।

विशेष- छन्द की प्रथम पंक्तिमें लेखक ने नायिका के सौन्दर्य के प्रभाव की बड़ी मनोरम व्यंजना की है। संस्कृत की उक्ति के अनुसार सौन्दर्य वही है जो प्रतिपल नया-सा लगे – ‘क्षणे क्षणे बन्नवतामपैति, तदेव रूपं रमणीयतायाः।’

इस उक्ति के अनुसार सुजान का सौन्दर्य अप्रतिम है।

  1. झलकै अति सुन्दर आनन गौर, छके दृग राजत काननि छवै।

हँसि बोलनि में छबि-फूलन की वर्षा, उर-ऊपर जाति है ह्वै।

लट लोल कपोल कलोल करैं, कल कंठ बनी जलजावलि द्वै।

अंग-अंग तरंग उठैं दुति की, परिहै मनौ रूप अबै धर च्वै।।

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- प्रस्तुत छन्द मतें घनानन्द नायिका के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए मुख्यतः सौन्दर्यजन्य प्रभावों को स्पष्ट कर रहे हैं। छन्द में नायिका के मुख, नेत्र, वार्ता, वेणी आदि के वर्णन के माध्यम से सौन्दर्य की एक साकार मूर्ति कवि ने प्रस्तुत की है। घनानन्द कहते हैं –

व्याख्या- उसके गोरे मुख की एक झलक में ही अत्यन्त सौन्दर्य है। उसकी कानो को छूने वाली बड़ी-बड़ी आँखें किसको नहीं छकातीं? (वे प्रेम के मद से मस्त है।) उसके हँसकर बोल देने मात्र से हृदय पर फूलों की वर्षा होने लगती है (अर्थात् हृदय का प्रेमावेग उमड़ने लगता है)। गालों पर छितराई हद उसकी टेढ़ी लटें, उसके सौन्दर्य से मानो खिलवाड़ करती हैं। उसके गले में दो लर वाली सुन्दर मोतियों की माला है। उसके अंग-प्रत्यंग से कांति की तरंगे उठती हैं, मानो उसका रूप अभी धरती पर चू पड़ेगा।

विशेष- अलंकार – इस सवैया छन्द में ‘कपोल-कपोल-करें’, ‘कल-केठ’ में अनुप्रास और ‘परिहै…..चवै में उत्प्रेक्षा अलंकार है।

  1. पहिलें अपनाय सुजान सनेह सौं, क्यौं फिर तेह कै तोरियै जू।

निरधार अधार दै धार-मंझार दई गहि बाँह न बोरियै जू।

घनआनंद आपने चातिक कों गुन-बाँधिकै मोह न छोरियै जू।

रस प्याय कै ज्याय, बहाय कै आस, दिसास में यौं विष घोरियैं जू।।

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- प्रस्तुत पद में प्रेमी अपने प्रेमपात्र की उदासीनता के प्रति उपालम्भ देता है अथवा घनानन्द अपनी प्रियतमा सुजान की बेवफाई के लिए उलाहना देते हैं। पहले तो प्रेम किया और फिर निरालम्ब छोड़कर चल दिये।

व्याख्या- पहले तो आपने मुझे स्नेह से अपनाया था, लेकिन फिर क्यों नाराज होकर उस प्रेम- सम्बल को तोड़ रहे हैं? पहले आपने इस निराधार को धारा के बीच आधार (सहारा) यिा; लेकिन अब मझधार में उसकी बाँह पकड़कर उसे बलपूर्वक मत डुबाइये (उसका सम्बल मत तोड़िये) अपने को अपने विशेष गुणों से (प्रेम की रस्सी से) इस प्रकार बांधकर फिर अकोह को निर्दय की तरह न तोड़िये। आपने इसे रस पिलाकर जिलाया और इसकी आशा को बढ़ाया। इस तरह कहीं विश्वास में विष घोला जाता है? अर्थात् विश्वस्त करके फिर विश्वासघात करना उचित नहीं है। ऐसा करने से तो व्यक्ति की साख चली जाती है। विशुद्ध-प्रेम-भावना दृष्टव्य है।

विशेष- अलंकार- ‘निरधार अधार’ में ‘अधार’ पर निरर्थक-सार्थक आवृत्ति होने से यमक अलंकार। ‘धार-मझार’, ‘प्याय-ज्याय’ और ‘आस-विहास’ में समान स्वर-व्यंजनों की एक बार रस- व्यंजक आवृत्ति होने से छेकानुप्रास अलंकार। ‘घनआनन्द अपने चातिक को’ में केवल उपमान (चातिक) का कथन होने से रूपकातिशयोक्ति अलंकार। प्रकारान्तर से अभीष्टार्थ की अभिव्यक्ति होने से पर्यायोक्ति अलंकार।

  1. रूपनिधान सुजान सखी जब तें इन नैननि नेकु निहारे।

दीठि थकी अनुराग-छकी मति लाज के साज-समाज बिसारे।

एक अचंभौ भयौ घनआनँद हैं, नित ही पल-पाट उघारे।

टारैं टरैं नहीं तारे कहूँ सु लगें मनमोहन मोह के तारे॥ 1 ॥

प्रसंग- प्रस्तुत पद में नायिका अपनी प्रिय अन्तरंग सखी से कहती है-

व्याख्या- हे सखी! जब से मेरे इन नेत्रों ने रूप और शोभा के आगार श्रीकृष्ण को देखा है तब से वे स्थिर सी हो गयी हैं, उनके सौन्दर्य पर टिक सी गयी हैं, वहाँ से हिलती डुलती नहीं, यही नहीं पलकों का उठना-गिरना भी बन्द हो गया है। बस निर्निमेस कृष्ण के रूप को ताके जा रही हैं। उनके प्रेम में डूबी मति या बुद्धि ने सारी मर्यादाओं को भुला दिया है। बुद्धि ही तो सोचने-विचारने- समझने का एककार्य करती है, उचित-अनुचित, मर्यादा-अमर्यादा, आदि के बीच भेद-भाव करती है। लेकिन लगता है उसने भी कुंठित हो सोचने-विचारने का कार्य बन्द कर दिया है। घनानन्द कवि कहते हैं कि वह नायिका आगे कहती है कि सबसे बड़ा जो मुझे आश्चर्य हो रहा है कि मेरे ये नेत्र पलक रूपी दरवाजों को खुला रखने में ही आनन्दित महसूस करते हैं। नेत्रों की पुतलियाँ स्थिर हो गयी हैं, उन्हें चलाने की कोशिश भी करो तो नहीं चलते। ये श्रीकृष्ण के मोह रूपी ताले में बन्द हो गयी हैं जिससे पुतलियाँ हिल-डुल नहीं रही हैं।

विशेष- श्लेष, परिकरांकुर।

  1. हीन भये जलमीन अधीन कहा कठु मो अकुलानि समानै।

नीर सनेही कों लाय कलंक, निरास है कायर त्यागत प्रानै।

प्रीति की रीति सु क्यौं समझैं जड़, मीत के पानि परै कों प्रमानै।

या मन रकी जु दसा घनआनंद जीव की जीबनि जान ही जानै।।4।।

प्रसंग- प्रस्तुत छनद में विरहिणी अपने प्रेम को मछली के प्रेम से श्रेष्ठतर बतला रही है।

व्याख्या- अपने प्रेमी जल से वियुक्त होकर मछली मरने के लिए विवश हो जाती है। जल के वियोग में उत्पन्न होने वाली मछली की आकुलता भी मेरी आकुलता का सामना नहीं कर सकती। मेरी विकलता उससे कहीं अधिक है। वह मछली अपने स्नेही जल का विश्वास छोड़कर उसे कलंक लगाकर अपने प्राणों को त्याग देती है। वह कष्ट सहने से भयभीत हो जाती है। मैं मछली की तरह मर कर प्रिय पर कलंक नहीं लगाना चाहती। मैं तो बड़े साहस के साथ विरह के कष्टों को झेल रही हूँ। मछली प्रेमी की रीति को क्या समझे, वह तो प्रियतम जल के हाथ में पड़े होने को प्रमाणित करती है। वह इतना अवश्य प्रमाणित करती है कि वह अपने जड़ प्रिय के वश में है, किन्तु वह अपनी प्रीति में पारखी होने का परिचय नहीं देती। प्रीति की रीति तो वही समझ सकता है जो प्रिय के उदासीन हो जाने पर भी जीवित रहकर वियोग-वेदना को सहन करने का साहस दिखाता है। विरहिणी कहती है कि प्रिय के वियोग में मेरे मन की जो दशा हो रही है, उसे घनआनन्द देने वाले और प्राणों के प्राण सुजान ही जान सकते हैं।

विशेष- (i) यहाँ घनानन्द ने सुजान के प्रति अपने प्रेम को मछली के जल के प्रति प्रेम से भी श्रेष्ठतर बतलाया है। (ii) मुहावरों का सुन्दर काव्यात्मक प्रयोग हुआ है। (iii) अलंकार – (क) मछली का प्रेम प्रसिद्ध उपमान है, उसे विरहिणी अपने प्रेम में विशेषता बतला रही है। अतः पूरे छन्द में व्यतिरेक अलंकार है।

(ख) ‘घनआनन्द’ से श्लेष ।

(ग) यत्र-तत्र अनुप्रास और छेकानुप्रास।

(घ) ‘जीव की जीवनि’ में सभंगपद यमक।

  1. रस मूरति स्याम सुजान लखें जिय जो गति होति सु कासों कहौं।

चित चुंबक-लोह लौ चायनि च्वै चुहटै उहटै नहिं जेतो गहौं।

बिन काज या लाज-समाज के साजनि क्यौं घनआनँद देह दहौं।

उर आवत यौं छबि-छाँह ज्यों हौं ब्रजछैल की गैल सदाई रहौ॥6॥

प्रसंग- नायिका मुरली-मनोहर, रसिक शिरोमणि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण का आनन्द प्रदाता रूप और व्यक्तित्व को देखकर भाव-विह्वल हो उठती है। उस समय उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति क्या है उसका वर्णन करते हुए कहती है कि-

व्याख्या- प्रियतम सुजान की माधुरी मूरति देखकर मेरे मन की हालत क्या हो गयी है, वर्णन नहीं किया जा सकता और अपनी मानसिक और हार्दिक दशा को कहूँ भी तो किससे कहूँ। अजीब हालत है मेरी, क्या है यह किसी से कह नहीं सकती। मेरा चित्त रसिया प्रियतम से उसी प्रकार चिपक गया है जैसे चुम्बक से लोहा चिपक जाता है। लोहे को जितना ही चुम्बक से छुड़ाना या अलग करना चाहों वह उतना ही कसकर चिपकता जाता है, वैसे ही मेरा चित्त है, प्रियतम कृष्ण से ऐसा चिपक गया है कि जितना ही उसे अलग करने का प्रयत्न करो उतना ही दृढ़ता से यह कृष्ण को जकड़ लेता है। घनानन्द कहते हैं कि नायिका कहती है कि समाज की मर्यादा और लोक-लाज के भय से मैं व्यर्थ ही विरह की आग में जल रही हूँ। सवाल उठता है क्यों जलूँ? अब तो मन में यही धारणा पक्की होती जा रही है कि क्यों न मैं जाकर श्यामसुन्दर की गली में ही रह, निवास करूं ताकि आते-जाते उनकी रूप माधुरी का पान करें, उनकी छवि देख-देख कर मन को शान्त करें, तृप्त करूं साथ ही स्वयं भी आनन्दित होऊँ।

विशेष- छेकानुप्रास, श्लेष, उपमा और रूपक अलंकार।

  1. रससागर नागर-स्याम लखें अभिलाषनि-धार मंझार बहौं।

सु न सूझत धीर को तीर कहूँ पचि हारि कै लाज-सिवार गहौं।

घनआनंद एक अचंभो बड़ो गुन हाथ हूँ बूड़ति कासों कहौं।

उर आवत यौं छबि-छाँह ज्यौं हौं ब्रजछैल के गैल सदाई रहौं।॥ 8।।

प्रसंग- पूर्ववत् ।

व्याख्या- हे सखी ! आनन्द के सागर, रस शिरोमणि चतुर नागर श्याम सुन्दर को देखकर मैं इच्छाओं की धारा में बहने लगती हूँ अर्थात् मनमोहन कृष्ण के रूप सौन्दर्य को देखकर मन में अनेकानेक इच्छाएं और कामनाएँ उमड़ने लगती हैं। भावना और इच्छाओं का वेग इतना बढ़ जाता है कि मन उसी में डूबता-उतराता बहने लगता है। ऐसे समय में कोई किनारा या तट भी नहीं सूझता कि उसे पकड़ कर मैं स्वयं को बहने से बचा सकूँ। बहुत तंग आकर थककर मैं लज्जा रूपी शैवाल या सिवाल को पकड़ती हूँ अर्थात् लोक-लाज और सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन न होने पावे इसके लिए स्वयं को भावनाओं के वेग में बहने से रोकती हूँ किन्तु जैसे शैवाल घास को पकड़ कर कोई अपने को धारा में बहने से नहीं रोक सकता, उसी प्रकार लोक-लाज भी मेरी भावनाओं के प्रवाह में कोई अवरोध या रोक नहीं लगा पाती और इस प्रकार रसिक शिरोमणि के प्रेम रस सिन्धु में डूब जाती हूँ। आश्चर्य तो इस बात का होता है कि मेरे पास प्रियतम के गुण रूपी रस्सी का सहारा है जिससे डूबने का भय नहीं होना चाहिए लेकिन फिर भी मैं उनकी अनुरक्ति रूपी सागर में डूब जाती हूँ। अब तो मेरे मन में यही विचार बार-बार उठता है कि उनकी छाया के समान बनकर उनका सान्निध्य प्राप्त करूं तथा अपने को प्रसन्न करूं।

विशेष- अनुप्रास, रूपक, श्लेष तथा विरोधाभास अलंकार।

  1. मुख हेरि न हेरति रंक मयंक सु पंकज छीवति हाथ न हौं।

जिहिं बानक आयो अचानक ही घनआनंद बात सु कासों कहौं।

अब तौ सपने-निधि लौं न लहौं अपने चित चेटक-आँच दहौं।

उर आवत यौँ छबि-छाँह ज्यौं हौं ब्रजछैल के गैल सदाई रहौं।

प्रसंग- प्रियतम के दर्शन पर नायिका के मन में जो भाव उठते हैं उनका वर्णन करती हुई अपनी सखी से कहती है-

व्याख्या- आनन्द विधान प्रियतम को देखने के पश्चात् चन्द्रमा पर नजर ही नहीं टिकती क्योंकि चन्द्रमा का सौन्दर्य प्रियतम के सामने कोई महत्व नहीं रखता। चन्द्रमा उनके मुख के आकर्षण के सामने रंक दिखाई पड़ता है। उनकी सुन्दरता के सामने कमल का सौन्दर्य फीका मालूम पड़ता है। प्रियतम के मुख-सौन्दर्य को जब तक नहीं देखा था तब तक आकर्षित करता रहा लेकिन अब तो कमल को छूने की भी इच्छा नहीं करती। मेरे जीवन में आनन्दघन प्रियतम ने जिस मनमोहक रूप और वेशभूषा में प्रवेश किया और उससे मुझे जो आनन्द, सुख और आह्लाद की अनुभूति हुई वह अवर्णनीय है, बता नहीं सकती, वर्णनातीत है, उनका वर्णन करने में असमर्थ हूँ। सामने तो आते नहीं, सपने में ही आते हैं इस प्रकार स्वप्न-निधि बन गये हैं। मेरे चित को प्रियतम के मुख देखने की लत ने व्याधि का रूप ले लिया है और इस व्याधि के ताप में जलती रहती हूँ। सम्मुख न देखने के कारण विरह ग्रस्त होती हूँ। जो मुझे और भी जलाती है। इस ताप और विरहग्नि की लपट से बचने का केवल एक ही उपाय मुझ समझ में आता है कि सारी लोक-लाज तथा मर्यादाओं का उल्लंघन करके वहाँ जाकर रहने लगूं जहाँ प्रियतम निवास करते हैं। यहाँ मैं उनकी छाया बनकर निरन्तर निकटता और उनका सानिध्य प्राप्त करूं तभी इस आन्तरिक वेदना और दर्द से पीछा छूटेगा।

विशेष- (1) बानक-अचानक, ब्रज छैल गैल में-पद-मैत्री

(2) व्यतिरेक, छेकानुप्रास, अन्त्यानुप्रास और श्लेष अलंकार।

  1. जासों प्रीति ताहि निठुराई सों निपट नेह,

कैसे करि जिय की जरनि सो जताइयै।

महा निरदई, दई कैसें के जिवाऊँ जीव,

बेदन की बढ़वारि कहाँ लौं दुराइयै।

दुख को बखान करिबे कौं रसना कं होति,

ऐपै कहूं बाको मुख देखन न पाइयै।

रैन-दिन चैन को लेस कहूँ पैये, भाग

आपने ही ऐसे, दोष काहि कौ लगाइयै॥1॥

प्रसंग- पुर्वानुरागिनी नायिका प्रियतम की निष्ठुरता का स्मरण करती हुई अपने भाग्य को ही दोष देती है (नायिका का कथन अपनी अन्तरंग सखी के प्रति है)

व्याख्या- हे सखी ! मैंने जिनसे प्रेम किया है, उसे निष्ठुरता से बहुत अधिक महा निर्दयी हो गये। हे विधाता मैं अब अपने प्राणों की रक्षा किस प्रकार करूँ? मेरे हृदय में विरह वेदना जो दिन- प्रतिदिन अधिक से अधिक होती जाती है उसे किस प्रकार छिपाऊँ ? दुःख को ठीक-ठीक कहने के लिए यदि कहीं जिह्वा होती, तो भी कोई बात थी अर्थात् मेरी जिहा भी वेदना को आधिक्य बखान करने में असमर्थ हो रही है। इतने पर भी उस निर्दय प्रियतम का कहीं सुख देखने को नहीं मिलता। मुझे दिन- रात कहीं भी लेश-मात्र भी शान्ति नहीं मिलती। यह सब हमारे खोटे भाग्य का ही दोष है और किसी को क्या दोष दिया जाये?

विशेष- (1) विरोध प्रदर्शन का यहाँ सुन्दर रूप सामने आता है।

सवैया

  1. अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।

तहाँ साँचे चलैं तजि आपुनपौ झझकं कपटौ जे निसाँक नहीं।

घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ इत एक तें दूसरो आँक नहीं।

तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं।। 3॥

सन्दर्भ- प्रेम के व्यापार को निरन्तर चलाने के लिए उसमें शुद्धि की आवश्यकता होती है और यह व्यापार उन्हीं दो व्यक्तियों के बीच चल सकता है, जिनके हृदय में छल-कपट बिल्कुल भी न हो। प्रेमी अपने प्रिय से शुद्ध को न पाकर उसे उलाहमा देता हुआ तथा शुद्ध प्रेम करने के लिए आग्रह करता हुआ कहता है-

व्याख्या- प्रेम का मार्ग अत्यन्त सीधा और सरल है और इसमें चतुराई तथा कुटिलता के लिए थोड़ी सी भी गुंजाइश नहीं है। प्रेम को वे ही निभा सकते हैं, जिनके हृदय में कुटिलता अथवा छल-छिद्र नहीं होती है। हृदय की शुद्धि रखने वाले वे लोग ही प्रेम का निर्वाह कर सकते हैं, जिनके हृदय मेंक्षअभिमान अथवा ऐठ नहीं होती है। वे कपटी लोग इसके निर्वाह करने में झिझकते हैं जो एक दूसरे के प्रति शंका रहित नहीं रहते हैं। घनानन्द सुजान को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे प्यारे सुजान सुनो मेरे हृदय में तो केवल तुम्हारे ही प्रेम की एकमात्र छाप है। इसमें और किसी के प्रति प्रेम नहीं है, किन्तु तुम्हारी ओर से मुझे प्रेम प्राप्त नहीं होता है। पता नहीं तुमने कैसी शिक्षा पाई है या किन लोगों के‌बहकावे में आ गये हैं कि तुम मेरा मन तो ले लेते हो किन्तु बदले में अपनी छटा (शोभा) की मधुर मूर्ति के दर्शन भी नहीं कराते हो।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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