समाज शास्‍त्र / Sociology

मर्टन का मध्य क्षेत्रीय सिद्धांत | मर्टन की “मध्य क्षेत्रीय सिद्धांत” की आलोचनात्मक व्याख्या

मर्टन का मध्य क्षेत्रीय सिद्धांत | मर्टन की “मध्य क्षेत्रीय सिद्धांत” की आलोचनात्मक व्याख्या | Merton’s central regional theory in Hindi | Critical interpretation of Merton’s “Central Regional Theory” in Hindi

मर्टन का मध्य क्षेत्रीय सिद्धांत

मर्टन ने अपने मध्य क्षेत्रीय सिद्धांत में सर्वप्रथम ‘प्रकार्य’ शब्द के निम्न पांच विभिन्न अर्थों में अंतर का उल्लेख किया है-

(1) प्रकार्य, सामाजिक उत्सव या सम्मेलन के रूप में

(2) प्रकार्य व्यवस्था के रूप में,

(3) प्रकार्य एक सामाजिक पद पर आसीन व्यक्ति के कार्यकलाप के रूप में

(4) गणितशास्त्रीय प्रकार्य तथा

(5) व्यवस्था को बनाये रखने में सहायक प्राणीशास्त्रीय या सामाजिक कार्य-कलापों के रूप में प्रकार्य ।

मर्टन ने पाँचवें अर्थ में अपने सिद्धांत को आधार के रूप में स्वीकार किया है। इसी आधार पर आपको प्रकार्यवादियों की श्रेणी में सम्मिलित किया जा सकता है।

मर्टन ने लिखा है कि केवल उपरोक्त पाँच अर्थों में ही नहीं अपितु अन्य एकाधिक अर्थों में भी ‘प्रकार्य’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। अक्सर इस शब्द को ‘उद्देश्य’, ‘प्रेरणा’, ‘प्राथमिक हित’, ‘लक्ष्य’ आदि के विकल्प रूप में प्रयोग में लाया जाता है। परंतु मर्टन के अनुसार, प्रकार्य को प्रतीतिक अनुभवों के रूप में समझना गलत होगा। सामाजिक प्रकार्यों के निरीक्षणीय वैषयिक परिणाम होते हैं। वह कारण जो लोग अपने व्यवहार के लिये प्रस्तुत करते हैं तथा उनके व्यवहार के परिणाम- ये दोनों एक नहीं हैं। इसलिये मटन ने ‘प्रकार्य’ के दो आधारभूत अर्थों को स्वीकार किया है-(1) एक सावयवी व्यवस्था के में प्रकार्य तथा (2) एक सावयवी व्यवस्था के अंतर्गत किसी लक्ष्य, उद्देश्य आदि के परिणाम के रूप में प्रकार्य ।

प्रकार्यवादी सिद्धांतों की तीन आधारभूत मान्यतायें हैं-

(1) समस्त सामाजिक इकाइयाँ एक सामाजिक संरचना या व्यवस्था में कुछ सकारात्मक प्रकार्यों को करती हैं,

(2) ये इकाइयों संपूर्ण व्यवस्था के लिये प्रकार्य कराती हैं और

(3) इनके इन प्रकार्यों के आधार पर ही सामाजिक संरचना या व्यवस्था का अस्तित्व सम्भव होता है।

अतः इकाइयों का प्रकार्य सामाजिक संरचना या व्यवस्था का अस्तित्व व निरन्तरता के लिये अनिवार्य है। मटन ने इन मान्यताओं को स्वीकार नहीं किया है। इनका कहना है कि प्रकार्यवादियों का यह दृष्टिकोण गलत है कि समस्त सामाजिक इकाइयों केवल प्रकार्य ही करती हैं और इस रूप में सामाजिक संरचना व व्यवस्था को बनाये रखने की दिशा में अपना योगदान करती है।

प्रकार्यवादी दृष्टिकोण की उपरोक्त कमियों का उल्लेख करते हुए मर्टन ने अपने कुछ आधारों या मान्यताओं को भी प्रस्तुत किया है। ये मान्यतायें इस प्रकार है- (1) प्रकार्यात्मक एकता या संगठन वास्तव में एक प्रयोगसिद्ध या प्रत्यक्षमूलक संगठन है (2) सामाजिक रीतियाँ तथा घटनायें एक समूह के लिये प्रकार्यात्मक हो सकती है, जबकि दूसरे समूहों के लिये वही रीतियाँ तथा घटनायें अकार्यात्मक हो सकती हैं, (3) सार्वभौमिक प्रकार्यवाद की धारणा में संशोधन आवश्यक है क्योंकि एक समाज या समूह के जो प्रकार्यात्मक परिणाम हैं, वे दूसरे समाजों या समूहों पर लागू नहीं भी हो सकते हैं (4) इस मान्यता का मी, जब प्रकार्यात्मक रूप में तत्व या इकाई अपरिहार्य है, संशोधन होना चाहिए क्योंकि एक ही इकाई के एकाधिक प्रकार्य हो सकते हैं और एक प्रकार्य की पूर्ति विकल्पों द्वारा ही संभव है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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