समाज शास्‍त्र / Sociology

मर्टन के प्रकार्यवाद सिद्धांत का विश्लेषण | समाजशास्त्र में मर्टन विश्लेषण के सिद्धांत का विश्लेषण

मर्टन के प्रकार्यवाद सिद्धांत का विश्लेषण | समाजशास्त्र में मर्टन विश्लेषण के सिद्धांत का विश्लेषण | Analysis of Merton’s functionalism theory in Hindi | Analysis of Merton’s theory of analysis in sociology in Hindi

मर्टन के प्रकार्यवाद सिद्धांत का विश्लेषण

रॉबर्ट के मर्टन के अनुसार समस्याओं की समाजशास्त्रीय व्याख्या करने की आधुनिक पद्धति के रूप में प्रकार्यवादी विश्लेषण एक सर्वाधिक आशाजनक पर साथ ही संभवतः सबसे कम विधिबद्ध प्रणाली है। इस प्रकार्यवाद के एक साथ अनेक बौद्धिक क्षेत्रों में विकसित होने के फलस्वरूप इसका खंड विस्तार तो हुआ है, पर गहन विस्तार नहीं हो पाया। मटन ने ‘प्रकार्य’ शब्द के निम्नांकित पांच विभिन्न अर्थों में अंतर का उल्लेख किया है- (1) प्रकार्य व्यवस्था के रूप में (2) प्रकार्य सार्वजनिक उत्सव या सम्मेलन के रूप में (3) गणितशास्त्रीय प्रकार्य तथा (4) प्रकार्य एक सामाजिक पद पर आसीन व्यक्ति के कार्याकलाप के रूप में, (5) व्यवस्था को बनाये रखने में सहायक प्राणिशास्त्रीय या सामाजिक कार्य प्रणालियों के रूप प्रकार्य ।

संहिताकरण, प्रकार्य विश्लेषण और पुनर्निर्माण-

आर के. मर्टन-मर्टन के अनुसार इस शब्द को उद्देश्य, ‘प्रेरणा’ ‘प्राथमिक हित’, ‘लक्ष्य‘ आदि के विकल्प के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। परंतु प्रकार्य को प्रातीतिक अनुभवों के रूप में समझना गलत होगा। सामाजिक प्रकार्यों के निरीक्षणीय वैषयिक परिणाम होते हैं। उदाहरणार्थ, विवाह करने की प्रेरणाओं और विवाह के प्रकार्यों को एक मान लेना वास्तव में गलत होगा। मर्टन ने ‘प्रकार्य’ के दो आधारभूत अर्थों को स्वीकार किया है- (1) एक सावयदी व्यवस्था के रूप में प्रकार्य तथा (2) एक सावयवी अवस्था के अंतर्गत किसी लक्ष्य उद्देश्य आदि के परिणामों के रूप में प्रकार्य।

मटन ने लिखा है कि दूसरे प्रकार्यवादी विद्वान प्रथमतः यह विश्वास करते हैं कि- (1) समस्त सामाजिक इकाइयाँ एक सामाजिक संरचना या व्यवस्था में कुछ सकारात्मक प्रकार्यो को करती हैं। (2) ये इकाइयाँ संपूर्ण व्यवस्था के लिए प्रकार्य करती है और (3) इनके इन प्रकार्यों के आधार पर ही सामाजिक संरचना या व्यवस्था का अस्तित्व संभव होता है। अतः इकाइयों का प्रकार सामाजिक संरचना व व्यवस्था के अस्तित्व व निरंतरता के लिये अनिवार्य है। मटन ने इन मान्यताओं को स्वीकार नहीं किया है। इनका कहना है कि समस्त सामाजिक इकाइयाँ केवल प्रकार्य ही करती हैं और इस रूप में सामाजिक संरचना व व्यवस्था को बनाये रखने की दिशा में अपना योगदान करती ही है। इसके विपरीत, मर्टन के अनुसार यह भी हो सकता है कि कुछ इकाइयाँ प्रकार्य के स्थान पर अकार्य करती हों और इस प्रकार सामाजिक संरचना व व्यवस्था को संगठित करने की दिशा में नहीं अपितु विघटित करने की दिशा में योगदान करें। अतः यह कहना सही नहीं है कि सामाजिक इकाइयाँ संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के लिये प्रकार्य करती है और उनका प्रकार्य सामाजिक संरचना व व्यवस्था के अस्तित्व के लिये अनिवार्य हैं। मटन के अनुसार, सामाजिक स्थिति यह है कि कुछ सामाजिक इकाइयों के कार्य आदि प्रकार्यात्मक होते हैं तो कुछ इकाइयों के कार्य अंशतः अकार्यात्मक, कुछ के नकार्यात्मक और कुछ के पूर्णतया अकार्यात्मक होते हैं। अतः सभी इकाइयों के कार्य सामाजिक संरचना व व्यवस्था के अस्तित्व व गतिशीलता के लिये अनिवार्य नहीं होते हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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