नगरीय धर्म का अर्थ

नगरीय धर्म का अर्थ | नगरीय धर्म की परिभाषा | नगरीय धर्म की विशेषताएँ

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नगरीय धर्म का अर्थ

नगरों के विकास में धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसी कारण प्राचीन काल से अनेक नगरों का विकास धार्मिक केन्द्रों के रूप में हुआ है। हमारे अनेक धार्मिक आन्दोलनों का सूत्रपात भी नगरों से ही हुआ है। जैसे- आर्य समाज, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज आदि । किन्तु नगरीय जीवन में धर्म का स्वरूप ग्रामीण जीवन से कुछ भिन्न होता है।

धर्म मानव की सार्वभौमिक प्रवृत्ति है। जिस प्रकार बुद्धि के आधार पर मनुष्य अन्य प्राणियों से अलग है उसी प्रकार धर्म के आधार पर मनुष्य को अन्य प्राणियों से पृथक किया जा सकता है।

प्राचीन काल से ही मनुष्य में यह विश्वास रहा है कि एक अलौकिक शक्ति सृष्टि की समस्त घटनाओं का संचालन करती है। ऐसी शक्ति को मनुष्य ने अपनी श्रद्धा और आस्था का आधार बनाया है। आदिकाल के मनुष्य का यह विश्वास था कि इस अलौकिक शक्ति को प्रसन्न करने से अनेक संकटों से मुक्ति मिल जाती है। अलौकिक शक्ति के प्रति इस विश्वास को ही धर्म कहा जाता है।

विभिन्न विचारकों ने धर्म की विवेचना विभिन्न आधारों पर की है। इनमें से धर्म की कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

हावल के अनुसार- “धर्म अलौकिक शक्ति के ऊपर विश्वास में आधारित है जो आत्मवाद और माना को सम्मिलित करता हैं।”

मजुमदार और मदान ने कहा है कि “धर्म किसी भय की वस्तु अथवा शक्ति का मानवीय परिणाम है जो पारलौकिक है और इन्द्रियों से परे है। यह व्यवहार अभिव्यक्ति है तथा अनुकूलन का रूप है जो लोगों को अलौकिक शक्ति की धारणा से प्रभावित करता है।”

मैलिनोवस्की के अनुसार- “धर्म के अन्तर्गत मानवीय व्यवहार के वे सभी प्रतिमान आते हैं जिससे वह अपने दैनिक जीवन की अनिश्चितता को दूर करता है और उस संकट की क्षतिपूर्ति के लिए भय को दूर करता है जो अनपेक्षित है। धर्म पहले मनुष्य की आशा और आकांक्षा का परिणाम न होकर उस भय का परिणाम है जो सदा लगा रहता था।”

टायलर के अनुसार- “धर्म आध्यात्मिक सत्ताओं और पिशाचों में विश्वास का नाम है।”

मैरेट के अनुसार- “धर्म आदिकालीन मानव की बौद्धिक कल्पनाओं का परिणाम है।”

बील्स तथा ह्राइजर के अनुसार- “धर्म मुख्य रूप से विश्व की व्यवस्थित धारणा का परिणाम है। यह मनुष्य को भविष्यवाणी करने, घटनाओं को समझने की अयोग्यता द्वारा निर्मित, चिन्ताओं को शान्त करने का एक यन्त्र है। जो स्पष्टतयः प्राकृतिक नियमों को अनुरूप बनाता है।’’

धर्म का निर्माण विभिन्न विश्वास और संस्कारों द्वारा होता है। धर्म के लिए तर्क की अपेक्षा विश्वास अधिक उपयोगी है। इसलिए वैज्ञानिक प्रगति, धार्मिक विश्वासों को कमजोर करती है। विज्ञान तथ्य पर आधारित हैं। लेकिन धर्म के लिए तथ्य की अपेक्षा विश्वास की अधिक उपयोगिता है। इसलिए प्रत्येक धर्म में विश्वास की प्रचुरता समान रूप से पायी जाती है। धर्म चाहे  प्राचीन हो अथवा अर्वाचीन, लेकिन विभिन्न विश्वास और संस्कारों के अभाव में उनका अस्तित्व असम्भव है।

ईमाईल दुर्खीम ने विश्वास को दो भागों में विभाजित कर प्रथम को पवित्र और द्वितीय को अपवित्र कहा है। उसके अनुसार जो पवित्र है वह धर्म है और जो अपवित्र है वह जादू है। लेकिन मैलिनोवस्की ने इसे इसी प्रकार से विभाजित किया है। जादू को जहाँ दुर्खीम ने अपवित्र श्रेणी में शामिल किया है वहाँ मैलिनोवस्की ने जादू को धर्म की भाँति ही पवित्र माना है। मैलिनोवस्की के अनुसार- “धर्म और जादू पवित्र हैं और विज्ञान अपवित्र है।”

नगरीय धर्म की विशेषताएँ-

धर्म के अन्तर्गत विविध विश्वास, क्रिया-कलाप, अनुष्ठान आदि का समावेश होता है। इनके माध्यम से धर्म की अभिव्यक्ति होती है। अभिव्यक्ति को दृष्टि में रखते हुए नगरीय सन्दर्भ में धर्म की विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-

(1) धार्मिक क्रियाओं को सम्पन्न करने की संक्षिप्त अवधि- मिल्टन सिंगर ने मद्रास (चेन्नई) नगर के अपने अध्ययन द्वारा यह निष्कर्ष निकाला कि नगरों में धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करने की अवधि कम होती है। गाँवों मैं पौराणिक कथा का कार्यक्रम लगभग एक माह तक चलता है, किन्तु नगरों में यह कार्यक्रम सामानयतः एक सप्ताह हो जाता है। गाँवों में धार्मिक उत्सवों को सम्पन्न कराने वाले लोग वंशगत पेशेवर होते हैं, किन्तु नगरों में ये वंशगत नहीं होते। ये लोग एक ही समुदाय के सदस्य न होकर, अलग-अलग समुदायों के सदस्य होते हैं।

(2) आधुनिक उपकरणों का उपयोग- नगरों में सम्पन्न होने वाले धार्मिक कार्यों में आधुनिक उपकरणों को काम में लाया जाता है। यथा, लाउडस्पीकर, रेडियो आदि। धार्मिक कार्यों के प्रचार के लिए अखबार, विज्ञापन तथा परचों का उपयोग किया जाता है। पुराण तथा गाथाएँ धार्मिक विषय की आधार होती हैं, किन्तु इन्हें धर्म-निरपेक्षता तथा राजनीति से संलग्न किया जाता है।

(3) निरपेक्षीकरण- नगरीय धर्म में निरपेक्षीकरण की प्रवृत्तियाँ अधिक पायी जाती हैं। मिल्टन सिंगर के अनुसार, ये प्रवृत्तियाँ पवित्र परम्परागत संस्कृति के परिवेश से मुक्त नहीं हैं।

(4) कट्टरता में कमी- नगरीय धर्म के अन्दर उतनी कट्टरता नहीं पायी जाती जितनी कि ग्रामीण क्षेत्रों में पायी जाती है। नगरीय परिवेश में व्यक्ति हमेशा नये विचारों को ग्रहण करने को तत्पर रहता है। अतः धार्मिक उत्सवों तथा अन्य धार्मिक संस्कारों के समय खान-पान सम्बन्धी भेदभाव नहीं माना जाता।

(5) संस्कारों में औपचारिकता- नगरीय संस्कारों में औपचारिकता का तत्व अधिक पाया जाता है। विवाह, यज्ञोपवीत आदि संस्कारों को लोग इस कारण सम्पन्न करते हैं कि उनका कोई विकल्प नहीं है और वे धर्म की वृहत्परम्परा से सम्बद्ध हैं। अतः इन संस्कारों में आस्था कम होती है और प्रचलन का प्रभाव अधिक होता है।

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