सामाजिक उद्विकास की अवधारणा | भारत में सामाजिक उद्विकास के कारक | समाज में उद्विकास की किन्ही दो अवस्थाओं का वर्णन

सामाजिक उद्विकास की अवधारणा | भारत में सामाजिक उद्विकास के कारक | समाज में उद्विकास की किन्ही दो अवस्थाओं का वर्णन

सामाजिक उद्विकास की अवधारणा

सामाजिक उद्विकास सामाजिक परिवर्तन का एक प्रमुख स्वरूप है। उद्विकास परिवर्तन की वह प्रक्रिया है जिसके अनुसार किसी वस्तु के आन्तरिक तत्व अपने आप प्रकट होकर उस वस्तु का रूप बदल देते हैं। इस प्रकार उद्विकास एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा सरल वस्तु जटिलता की ओर जाती है और धीरे-धीरे वस्तु का बाह्य स्वरूप ही बदल जाता है।

‘उद्विकास’ शब्द का अंग्रेजी Evolution रूपान्तर हैं ‘इवोल्यूशन’ शब्द लैटिन भाषा के शब्द Evolvere से लिया गया है। Evolvere शब्द के अक्षर E का अर्थ है ‘बाहर की ओर’ तथा volvere शब्द का अर्थ है ‘फैलना’। इस प्रकार Evolvere शब्द का अर्थ ‘बाहर की ओर फैलना’  इसी से ‘उद्विकास’ का अर्थ हुआ ‘आन्तरिक शक्तियों का बाहर की ओर फैलना।’ ‘उद्विकास’ शब्द की व्याख्या करते हुये समाजशास्त्रियों ने कहा है कि जब आन्तरिक गुण बाहर की ओर प्रकट होनेलगते हैं तो किसी वस्तु का उद्विकास होता है। इस प्रकार उद्विकास होने से वस्तु के स्वरूप में परिवर्तन हो जाता है।

उद्विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें किसी वस्तु के भीतर छिपे हुये या अस्पष्ट पहलू या विशेषतायें अपने आप को प्रकट करती है। यह एक ऐसा परिवर्तन है जिसमें परिवर्तित हुई वस्तु के आन्तरिक पहलू स्पष्टतः दृष्टिगोचर होने लगते हैं और उनको एक विशिष्ट दिशा में प्रस्फुटित होते हुये देखा जा सकता है। सामाजिक दृष्टि से उद्विकास समाज के सदस्यों (व्यक्तियों) के आन्तरिक गुणों का बाह्य रूप में प्रकट होना है। यह सरलता से जटिलता की ओर ले जाने वाली एक प्रमुख प्रक्रिया है।

भारत में सामाजिक उद्विकास के कारक

भारत में सामाजिक परिवर्तन की एक प्रमुख स्वरूप के रूप में समाजिक उद्विकास का अध्ययन किया जाता है। उद्विकास विकास की यह प्रक्रिया है जिसके अनुसार किसी वस्तु के आन्तरिक तत्व अपने आप प्रकट होकर उस वस्तु का रूप बदल लेते हैं। इस प्रकार उद्विकास वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा सरल वस्तु जटिलता की ओर जाती है और धीरे-धीरे उसका स्वरूप बदल जाता है।

(1) दीर्घ प्रक्रिया – उद्विकास निरन्तर होने वाली एक प्रक्रिया है जो सभी युगों तक समाजों में पायी जाती है। दूसरे शब्दों में, समाज का उद्विकास एक लम्बे समय से होता है। यह धीरे-धीरे होता है और असंख्य वर्षों में जाकर समाज ने इस वर्तमान स्वरूप को प्राप्त किया है। आज भी उद्विकास की प्रक्रिया निरन्तर क्रियाशील है।

(2) अनिश्चितता- जिस प्रकार उद्विकास की प्रक्रिया में यह कहना अनिश्चितता है कि विकसित वस्तु का स्वरूप क्या होगा? उसी प्रकार समाज की प्रारम्भिक अवस्था में भी अनिश्चितता थी। उस समय न कोई संगठन था न कोई समिति थी।सब कुछ अनिश्चितता ही था। साथ ही जटिलता के जिस स्वरूप की ओर हम बढ़ रहे वह क्या होगा? इसके बारे में अनिश्चितता की स्थिति पायी जाती है।

(3) विभिन्न अंगों की स्पष्टता – उद्विकास की प्रक्रिया में सरलता से जटिलता की ओर जाने की बात मुख्य रूप से पाई जाती है। इस प्रक्रिया में समय के भिन्न-भिन्न अंग भिन्न रूप से दिखाई देने लगते हैं। इसी प्रकार समाज ज्यों-ज्यों उद्विकास की प्रक्रिया में आगे बढ़ता त्यों-त्यों उसके विभिन्न अंग जैसे- समिति, संस्था द्वारा अन्य संगठन स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगते हैं।

(4) समरूपता में सरलता – जिस प्रकार उद्विकास की प्रक्रिया प्राणी या वस्तु के आरम्भ से सरल होती है और उसमें समरूपता पाई जाती है तथा उसके आन्तरिक गुण समग्र में निहित होते हैं। इसी प्रकार समाज का भी प्रारम्भिक रूप सरल था। सभी व्यक्तियों में समरूपता थी। उनमें रहन-सहन, खान-पान, भ्रमण करने के तरीके समान थे।

समाज में उद्विकास की किन्ही दो अवस्थाओं का वर्णन

(1) जंगली अवस्था (Savage Stage) – जंगली अवस्था के बिल्कुल प्रारम्भ में मनुष्य भोजन की तलाश में जंगलों में घूमा करता था। उसकी कोई संस्कृति न थी। उसके पश्चात मनुष्य ने अपने शिकार को भूनकर खाना प्रारम्भ किया। मनुष्य का यहीं से सामूहिक जीवन प्रारम्भ होता है। जंगली अवस्था की अन्तिम अवस्था वह है जब मनुष्य ने अपने शिकार तीर-कमान से करना प्रारम्भ कर दिया। इस समय आपसी संघर्ष पत्थर के समान हथियारों से होते थे।

(2) बर्बरता अवस्था (Barbarian Stage) – इस अवस्था के प्रारम्भ में मनुष्य ने बर्तन बनाना प्रारम्भ किया। इस समय परिवार का रूप भी कुछ अंशों के रूप में दिखाई देने लगा था। इस अवस्था के मध्य मुष्यों ने जानवर पालना और पौधे उगाना आरम्भ किया। अब लोग परिवार बनाकर रहने लगे थे। इए अवस्था के अंत तक मनुष्यों ने लोहा गलाना आरम्भ कर दिया था। इसी कारण इस अवस्था को धातु युग के नाम से पुकारा जाता है।

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