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बिहारीलाल के पद्यांशों की व्याख्या | बिहारीलाल के निम्नलिखित पद्यांशों की संसदर्भ व्याख्या

बिहारीलाल के पद्यांशों की व्याख्या | बिहारीलाल के निम्नलिखित पद्यांशों की संसदर्भ व्याख्या

बिहारीलाल के पद्यांशों की व्याख्या

  1. मेरी भव बाध हरौ राधा नागरि सोय।

जा तन की झाई परें स्याम हरित दुति होय।। 1।।

सन्दर्भ- ग्रन्थ रचना के आरम्भ में कवि बिहारी की प्रस्तावित उक्ति है। राधा की वन्दना है।

व्याख्या- (1) वे चतुर राधा मेरे सांसारिक कारों को दूर करें, जिनके शरीर का प्रतिबिम्ब पड़ने से श्रीकृष्ण के शरीर की आभा हरे रंग की हो जाती है। अर्थात् उनके शरीर की आम मन्द (हरित दुति) हो जाती है। (2) वे चतुर राधा मेरी सांसारिक बाधाओं (सफलता के मार्ग में अवरोधों) को दूर करें, जिनके शरीर की परछाई को देखकर कृष्ण हरे भरे (प्रसन्न हो जाते हैं। (3) वे चतुर राधा मेरे सांसारिक क्लेषों को दूर करें, जिनका मात्र (झाई पौ) ध्यान करने से समस्त प्रकार के कलुष (पाप एवं दुःख) निष्प्रभ (हरण की हुई आभा वाले) हो जाते है।

विशेष- (1) अलंकार – (1) श्लेष – झाई, स्याम, हरित। (2) काव्यलिंग – सम्पूर्ण छन्द। (3) रूपकातिशयोक्ति-तन। (2) यह दोहा ‘मंगलाचरण’ का छन्द है। इसमें वस्तुनिर्देश एवं नमस्कार दोनों का उल्लेख है। इसमें यह स्पष्ट संकेत है कि इस प्रन्थ में राधा-कृष्ण विषयक शृंगार का वर्णन है। इसमें अलंकारों का चमत्कार है। अतः यह एक रीति-रचना है।

  1. कंच-नयनि मंजनु किए, बैठी ब्यौरति बार।

कच-अंगुरी-बिच दीठि दै, चितवति नन्दकुमार।। 78 ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- नायिका की क्रिया-विदग्धता का वर्णन सखी सखी से करती है

व्याख्या- (देखो, यह) कंज-नयनी स्नान किए, बैठी (अपने) बाल सुलझा रही है, (और इसी ब्याज से अपने) बालों तथा उऊगलियों के बीच से दृष्टि दे (डाल) कर नन्दकुमार को देख रही है। भाव यह है कि हे सखी! देखो यह कमलनयनी नायिका स्नानोपरान्त अपने बालों को सुलझाती हुई उनके बीच से अपने प्रिय को देख रही है।

विशेष- (1) नायिका का स्पष्ट रूप से श्रीकृष्ण को न देखकर छिपकर देखने का वर्णन होने के कारण इस दोहे में पर्योयोक्ति (द्वितीय) अलंकार है। (2) क्रिया-चातुरी से नायक को देखती है। अतः क्रिया-विदग्धता नायिका है।

  1. पावक सो नयननु लगै, जावकु लाग्यौ भाल।

मुकुरु होहुगे नैंक में, मकुरु बिलोकौ लाल। 79 ।।

ससन्दर्- पूर्ववत्।

प्रसंग- नायक (श्रीकृष्ण) किसी अन्य नायिका के साथ राम बिताकर आया है, इसका पता नायिका को चल जाता है उसके भाल पर महावर लगने से, उसकी आँखों जलने से तो वह नायक से अपना प्रतिरोध व्यक्त करती है –

व्याख्या- हे श्रीमान् जी (कृष्ण लाल जी) ! बाद में फिर स्वीकार नहीं करोगे, इसी समय तुरन्त दर्पण में अपना मुंह देख लो कि आपके नेत्रों में आग-सी जल रही है और मस्तक पर महावर कैसे लग रही है। नायिका द्वारा नायक की खबर ली जा रही है कि आपके मुखमण्डल को देखकर उसे यह पता चल गया है कि श्रीकृष्णलाल जी कहीं अन्य नायिका के साथ रात्रिभर जागरण करके लौटे हैं, जिसका प्रमाण उनकी आँखों में आग-सी जलने से मिल रहा है। अन्य नायिका के साथ संभोग करने के समय (उसकी टाँगे ऊपर करते समय) असावधनी के कारण उस दूसरी नायिका के चरणों में लगा अलक्तक उसके माथे पर लग गया, जिसे देखकर नायिका ने अनुमान लगा लिया है कि नायक उपपत्नी से संभोग करके लौटा है।

विशेष- (1) नायक उपपत्नी के साथ रमण करने के बाद लौटने पर नायिका उसकी खबर लेती है। ‘सुरतान्त’ वर्णन करके कवि बिहारी ने श्रृंगार रस की व्यंजना की है। (2) ‘पावक सो’ में उपमा अलंकार की छटा दृष्टव्य है। खण्डिता नायिका (नायिका भेद) का वर्णन किया है।

  1. अंग-अंग नग जगमगत, दीपसिखा सी देह।

दिया बढ़ाएँ हूँ, बढ़ौं उज्यारौ गेह।। 69 ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- नायिका के गौरवपूर्ण शरीर पर नग-जड़ित आभूषणों से नायिका की तन-दीप्ति में जो वृद्धि हो जाती है, उसी की प्रशंसा नायिका की अन्तरंग सखी नायक से करती है-

व्याख्या- नायिका की देह तो दीपक की लौ के समान समकती है और उसने अंग-प्रत्यंगों में जो मणियों से जड़े हुए आभूषण पहन रखे हैं, उन्हीं नगों में जब उसकी तनद्युति का प्रतिबिम्ब पड़ता है तो चारों ओर से चकाचौंध कर देने वाली आमा, ज्योति फूट पड़ती है। यहाँ तक कि यदि उसके घर में रात्रि के अन्धकार में यदि दीपक भी बुझा दिया जाये, तो भी नायिका की तनद्युति से इन मणियों के झिलमिलाने से पूरे घर में उजाला-सा दिखाई पड़ने लगता है। किसी घर में बहुत से दर्पण लगे हों, उसमें एक दीपक का प्रकाश सभी दर्पणों में प्रतिबिम्बित होने से कई गुना बढ़ जाता है,यही कल्पना यहाँ नायिका की तनद्युति के विषय में कवि विहारी ने की है।

विशेष- (1) ‘अंग-अंग’ में पुनरुक्तिप्रकारा अलंकार की छटा दर्शनीय है।

(2) ‘नग जगमगत’ में वर्णमैत्री का सौन्दर्य दृष्टव्य है।

  1. बैठि रही अति, सघन बन, पैठि सदन-तन माँह।

देखि दपहरी जेठ की, छाहौं चाहति छाँह। 52।।

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- ठीक दोपहर को सूर्य के सिर पर आ जाने पर (कुंजों की परिधि तक छाया के सिमट आने पर) नायिका नायक से कहती है

व्याख्या- हे प्रिय! देखो इतनी गर्मी पड़ रही है कि छाया भी गर्मी से व्याकुल होकर कुंजों में, घरों में आकर बैठ गयी है घने वनों में जो कुंज बने हैं, उनमें आकर बैठ गयी है, घरों या मकानों की भित्ति (परिधि) के अन्दर-ही-अन्दर आकर प्रविष्टा हो गयी है। ऐसा दुपहरी की गर्मी का प्रभाव है कि जब छाया भी (जो दूसरे हजारों लोगों को गर्मी से त्राण देती है) स्वयं छाया की शरण में जाने के लिए तत्पर हुई है। इसका अर्थ है कि छाया भी इतनी भीषण गर्मी से तिलमिला गयी है, तभी तो घरों, कुंजों से बाहर निकलती नहीं दिखाई देती (ठीक दोपहर में सूर्य के सिर पर आ जाने पर छाया कुंजों, घरों की भित्ति में ही सिमटकर रह जाती है।)

विशेष- (1) छाया का मानवीकरण करके बिहारी ने प्रकृति को ‘मानवीकरण’ रूप में, आलंकारिक रूप में चित्रित करके रीतिकालीन परम्परा से हटकर काव्य रचना की है (रीतिकालीन परम्परा तो यही थी कि प्रकृति को आलम्बन-उद्दीपन रूप मे ही चित्रित किया जाता रहा था)।

(2) दोपहरी के सूर्य (ठीक सिर पर होने के कारण) कुजों, घरों में छाया की स्थिति का सुन्दर सटीक बिम्ब भी उभारनेमे बिहारी को सफलता मिली है।

  1. दीरघ-साँस न लेहु दुख, सुख साईहिं न भूलि।

दई-इर्द क्यौं करतु है, दई-इर्द सु कबूलि।। 51 ॥

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- विपत्ति पड़ने पर मुंह लटकाकर आने वाले व्यक्ति को गुरु सुख-दुःख में समान भाव से रहने का उपदेश करता है –

व्याख्या- दुःख या विपत्ति पड़ने पर धैर्य नहीं खोना चाहिए, क्योंकि जब व्यक्ति धैर्य खो देता है तो अधीरतावश गहरी साँसें लेने लगता है, हाय। अफसोस। करके रुदन मचाता है या करुण क्रन्दन करने लगता है। ऐसी स्थिति में इतना दुःख न मानने के लिए गुरु उपदेश करते हैं। इसके साथ-ही-साथ यह भी संकेत करते हैं कि सुखी था, तब तो भगवान को भी विस्मृत कर देता था। इस कारण गुरु ने नीतिपरक उपदेश के स्वर मे कहा कि सुख में भगवान् का स्मराण करना नहीं भूलना चाहिए और दुःख पड़ने पर हाय देव। हाय परमात्मा! करने की कोई आवश्यकता नहीं है। ‘हे प्रभु’। का समरण ही करना था तो सुख में क्यों नहीं किया करता था। अब दुःख पड़ा तो देव-देव करने लगा। अरे अधम। भगवान् ने जो भी दिया है अर्थात् अब दुःख भी दिया है, उसे सिर आँखो ले, सहर्ष स्वीकार कर, क्योंकि परमात्मा तो सुख-दुःख दोनों ही देता है। तू सुख मे तो उस ईश्वर को भूल जाता है और दुःख में याद करता है। यह ठीक नहीं है।

विशेष- (1) बिहारी ने यहाँ नीतिपरक उपदेश किया है कि विपत्ति में भी धैर्य रखना चाहिए।

(2) ‘दई-दई’ में वीप्सा अलंकार और बाद में दई-दई में (दो अर्थ – (1) दैव, (2) दे दी होने से) यमक अलंकार का चमत्कार दिखाया गया है।

  1. कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेसु लजात।

कहिहै सबु तेरो हियौं, मेरे हिय की बात।।

शब्दार्थ- नायिका नायक के प्रति सन्देश भेजती हुई कहती है कि कागद पर लिखते नहीं बनता। वियोग ताप से कागद के जल जाने, अश्रुओं से भीग जाने आदि की आशंका है और जबानी सन्देश कहने में लज्जा लगती है क्योंकि प्रेम की बात दूसरों से कहने की नहीं होती। दूसरे सुन कर हंसते हैं। अतः मेरे हृदय की सारी बात तुम्हारा ही हृदय कर देगा।

  1. अलंकार-विरोधाभास
  2. तुल्य नुराग जनित प्रेम है।
  3. दोनों ओर के प्रेम की अतिशयता का वर्णन है
  4. नायिका प्रोषितपतिका है।
  5. मोहन मूरति स्यात की, अति अद्भुत गति जोई।

बसत सुचित-अन्तर तऊ प्रतिबिम्बितु जग होई॥

सन्दर्भ- किसी भक्त का स्वगत कथन है। उसके हृदय में कृष्ण बस गये हैं। उसको समसत जगत की कृष्णमय दिखाई देने लगा है-

विशेष- (i) मोहन मूरति – कृष्ण की मूर्ति में ऐसी मोहिनी शक्ति है कि उनके हृदय में बसते ही चित्त मोहित होकर समस्त जगत को तन्मय देखने लगता है। (ii) श्याम की गति अद्भुत इसलिए है कि वे चित्त के भीतर रहकर समस्त सृष्टि को अपनी छवि से प्रतिबिम्बित करते हैं जो वस्तु भीतर रखी जाती है, उसका प्रतिबिंब बाहर नहीं जाता। (iii) यहाँ कवि की बहुज्ञता के अन्तर्गत प्रतिबिंबवाद के दार्शनिक सिद्धान्त का संकेत है। (iv) अलंकार – तीसरी विभावना (प्रतिबन्धक कारण होने पर भी कार्य हो रहा है।)

  1. जोग-जुगति सिखये सबै, मनो महामुनि मैन।

चाहत पिय अद्वैतता, कानन सेवत नैन॥

सन्दर्भ- यहाँ नायिका के सुदीर्घ नेत्रों के सौन्दर्य का वर्णन है। सखी-सखी से नायिका के नेत्रों की प्रशंसा कर रही है-

व्याख्या- मानों महामुनि कामदेव उसके नेत्रों को प्रिय से मिलन की।

  1. मैं समुझयौ निरधार, यह जग काँचो काँच सौं।

एकै रूप अपार, प्रतिबिंबित लखियतु जहाँ।।

सन्दर्भ – होई ब्रह्मज्ञानी या अद्वैतवादी ब्रह्म की सर्वव्यापकता का स्वयं चिन्तन कर रहा है अथवा सत्संग में उपदेश दे रहा है-

व्याख्या- मैंने यह सिद्धान्त निश्चित रूप से समझा लिया है कि यह नश्वर और असत्य संसार काँच के समान कच्चा है। इसमें सर्वव्यापी ब्रह्म का एक ही रूप असंख्य रूपों में प्रतिबिंबित होता है। अर्थात् एक ही ईश्वर अपने अपार अनन्त रूप से जगत के समस्त पदार्थों में प्रतिभासित हो रहा है।

विशेष- 1. बिहारी ने ब्रह्म के अद्वैतवादी दर्शन का संकेत किया है। उनका यह ज्ञान कवि- विषयक जानकारी ही है। इसके आधार पर उनको अद्वैतवादी कह देना भ्रम है।

  1. अलंकार – (क) असत्य संसार की समानता काँच से होने में उपमा। (ख) प्रमाण।
  2. अजौं तरयौना ही रहा श्रात सवक इक रग।

नाक-बास बेसरि लह्यौ बसि मुकुतन के संग।।

प्रसंग- प्रस्तुत दोहे में कवि ने बेसरि तथा कान में धारण किये जाने वाले आमूषण का वर्णन किया है और साथ ही साथ सत्संगति की महिमा का भी प्रतिप्प्रादन किया है।

व्याख्या- इस दोहे के दो अर्थ लगाये जाते हैं- 1. आभूषण के पक्ष में तथा, 2. सत्संगति के पक्ष में।

  1. आभूषणपरक अर्थ- कवि कहता है कि कर्णाभूषण कानों की एकांगी सेवा करते रहने पर भी आज तक वह अधोवी ही बना रह गया, उसकी स्थिति में किसी भी प्रकार का कोई भी परिवर्तन नहीं हो सका। जबकि बेसरि ने मोतियों की संगति होने के कारण नासिका जैसे उच्च एवं महत्वपूर्ण अंग पर स्थान ग्रहण कर लिया है।
  2. सत्संगति परक अर्थ- कवि कहता है कि निरन्तर एकनिष्ठ भाव से वेदों का सेवन करने वाला व्यक्ति आज तक अधोवर्ती ही बना रह गया, उसका उद्धार नहीं हो सका। इसके ठीक विपरीत अधम से अधम प्राणियों ने मुक्त लोगों के सम्पर्क में आने से स्वर्गलोक में अपना निवास बना लिया।

विशेष- 1. प्रस्तुत दोहे में यह बताया गया है कि केवल वेदों के अध्ययन से मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती है, उसके लिए तो सत्संगति ही अनिवार्य है। 2. ‘तरयौना’ ‘श्रुति’, ‘नाक-यास’, ‘बेसरि’ तथा ‘मुकुतन’ शब्दों में श्लेष की छटा द्रष्टव्य है। 3. इसके अतिरिक्त मुद्रा एवं व्यतिरेक अलंकार भी प्रयुक्त है। 4. शैली चमत्कारी एवं प्रभावोत्पादक है।

  1. कहत नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।

भरे भौन मैं करत हैं नैननु ही सब बात ॥

व्याख्या- नायक और नायिका ऐसे भवन में मिलते हैं जहाँ दूसरे लोग भी मौजूद हैं अतएव ये दोनों नयनों के द्वारा इशारे करके ही आपस में बातचीत करते हैं। नायक कुछ कहता है लेकिन नायिका उसके प्रस्ताव को अस्वीकार करने का अभिनय करती है, यद्यपि उस अस्वीकृति में नायिका की स्वीकृति निहित है। नायक-नायिका के बनावटी इन्कार पर रीझ जाता है, लेकिन नायिका नायक के इस व्यवहार से खीझ जाती. है। नायक और नायिका इस प्रकार देखा-देखी द्वारा मेल कर लेते हैं। नायक प्रसन्न होकर हँस देता है और नायिका शीघ्र मेल कर लेने के अपने इस काम पर लज्जित होती है। इस प्रकार नायक-नायिका दोनों नेत्रों द्वारा कुछ कहते हैं, मना करते है, मोहित होते हैं, खीझते हैं, मेल करते हैं, प्रसन्न होते हैं और लजाते हैं।

विशेष- परकीया नायिका का चित्रण है। पूर्वार्स में कारक दीपक अलंकार है तथा प्रतिबन्ध होने पर भी नेत्रों का कार्य चल रहा है अतएव विभावना (तृतीय) अलंकार भी है।

  1. दीरघ सॉस न लेहि दुख, सुख साईहिं न भूलि।

दई दई क्यौं करतु है, दई दई सु कबूलि॥

प्रसंग- ईश्वर के प्रति मनुष्य के सहज दृष्टिकोण को लक्षित करके कवि कहता है कि यह बात मनुष्य के स्वभाव में निहित होती है कि वह आपत्ति के क्षणों में ही ईश्वर का स्मरण करता है।

व्याख्या- एक मित्र दूसरे मित्र से कहता है कि हे भाई ! संकट के क्षणों में लम्बी-लम्बी सांस मत लो और सुख के क्षणों में ईश्वर को भूल भी मत जाओ। विपत्तियों के आगमन पर दैव-दैव क्यों करता है, तुम्हें इस बात को भली-भाँति समझना चाहिए कि ये विपत्तियाँ ईश्वर प्रका हैं, इसलिए इन्हें प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लेना ही श्रेयस्कर है।

विशेष- (i) दई-दई में श्लेष अलंकार की छटा दर्शनीय है साथ ही पुनरुक्ति अलंकार है।

(ii) भावसाम्य-

“दुख में सुमिरन सब करत, सुख में करै न कोइ।

जो सुख में सुमिरन करै, दुःख काहे को होई।”

-कबीरदास

(iii) प्रस्तुत दोहे में बताया गया है कि विपत्तियों से घबराना नहीं चाहिए, उन्हें ईश्वर प्रदत्त समझकर-सहर्ष झेलना चाहिए।

  1. बढ़त-बढ़त संपत्ति-सलिलु, मन-सरोज बढ़ि जाइ।

घटत-घटत सु न फिरि घटै, बरू समूल कुम्हिलाई।

सन्दर्भ- यहाँ कवि की उक्ति है। वह स्पष्ट करता है कि मन और आवश्यकताओं के बार-बार बढ़ जाने से फिर उनका कम होना सम्भव नहीं है-

व्याख्या- सम्पत्ति रूपी सलिल के बढ़ने से मनरूपी कमल-नाल बढ़ जाती है किन्तु सम्पत्ति रूपी जल के घटने पर मन रूपी कमल-नाल घटती नहीं, चाहे वह जड़ से ही नष्ट हो जाये। सरोवर में जैसे-जैसे पानी बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे कमल की दण्डी बढ़ती जाती है। कमल जल के ऊपर ही रहता है, परन्तु सरोवर का जल घटते-घटते कम हो जाता है, परन्तु कमल की नाल कम नहीं होती, वह जड़ से सूख अवश्य जाती है। इसी प्रकार जब सम्पत्ति बढ़ती है, तब मनुष्य की इच्छाएँ और आवश्यकताएँ बढ़ जाती हैं, परन्तु सम्पत्ति कम हो जाती है और इच्छाएँ कम नहीं होतीं, चाहे मनुष्य बिल्कुल नष्ट ही क्यों न हो जाये।

अलंकार – (क) रूपक, (ख) अनुप्रास

  1. या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोई।

ज्यों-ज्यौं बूड़ै स्याम रंग त्यों त्यौं उज्जलु होइ।।

प्रसंग- प्रस्तुत दोहा बिहारी का भक्तिपरक दोहा है। इसमें किसी भक्त की अनन्य भक्ति की प्रशंसा की गयी है। कवि यह चित्रित किया है कि आराध्य की अनुमति तभी सम्भव है जब भक्त उसके प्रेम (भक्ति) में पूर्णतया डूब जाय।

व्याख्या- कृष्ण भक्त कह रहा है कि प्रेम में निमग्न चित की स्थिति को आज तक कोई भी समझ नहीं पाया। प्रेम में डूबे हुए हृदय की यह विशेषता होती है कि यह जितना ही स्याम-रंग में अर्थात् श्रीकृष्ण के के प्रेम में डूबता है उतना ही अधिक स्वच्छ और निर्मल होता है।

विशेष- (i) प्रस्तुत दोहे में भक्ति रस की स्थापना है।

(ii) विषम, विरोधाभास, अनुप्रास, उपमा तथा रूपक अलंकार की छटा दर्शनीय है।

(iii) यहाँ कवि ने ‘बूई’ शब्द के द्वारा इस बात की ओर संकेत किया है कि मन तब तक पूर्णतया शुद्ध नहीं हो सकता जब तक कि वह निजत्व का त्याग करके आराध्य के साथ तदाकार नहीं हो जाता।

(iv) इस दोहे को यदि किसी नायिका की उक्ति मान लिया जाय तो एक शृंगारपरक अर्थ भी लगाया जा सकता है। (v) तुलनात्मक

  1. कौड़ा आँसू बूंद कसि साँकर बरूनी सजल।

कीन्हें बदन निमूंद दृग-मलिंग डारे रहत॥

प्रसंग- प्रस्तुत सोरठे में एक पूर्वानुरागिनी नायिका अपने प्रियतम की मधुर स्मृतियों में खोई हुई है जिससे उसकी आँखे तरल हो गयी हैं, उसकी सखी नायक के सामने उसकी इसी मनोदशा का वर्णन कर रही है।

व्याख्या- नायक से नायिका की सखी कहती है कि नायिका के नेत्र रूपी मलंग आँसू रूपी बड़ी-बड़ी कौड़ियों तथा अश्रुपूरित पलकों रूपी श्रृंखला को अपने शरीर पर कसकर अपना मुख बन्द किये हुए अपने आपको डाले रहते हैं। अर्थात् जिस प्रकार मलंग साधु स्वयं लौह-श्रृंखला में बांध करके किसी एकान्त स्थान में ईश्वरराधना करते हैं ठीक उसी प्रकार नायिका के नेत्र रूपी मलंग आंसुओं से पूरित होकर सदैव तुम्हारे ही रूप की आराधना में संलग्न रहते हैं। अतः उसे शीघ्रातिशीघ्र दर्शन दो।

विशेष- (i) प्रस्तुत सोरठे में कव ने प्रोषितपतिका-नायिका का चित्रांकन किया है। (ii) ‘कौड़ा- आंसू ‘साँकरबरुनी’ तथा ‘दृग मलिंग में रूपक अलंकार की सुन्दर योजना की गयी है। (iii) प्रेम की एकनिष्ठता का चित्रण किया गया है।

  1. केसरि कै सरि क्यों सके, चंपकु कितकु अनूप।

गात -रूपु लखि जात दुरि जातरूप कौ रूपु॥

प्रसंग- प्रस्तुत दोहे में नायिका के रूप सौन्दर्य की चर्चा करती हुई उसकी एक सखी दूसरी सखी से कहती है।

व्याख्या- नायिका की एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि हे सखी! नाविका की अद्वितीय छवि के समक्षा कुंकुम कहीं भी नहीं ठहरता अर्थात् वह उसकी बराबरी नहीं करता है, चम्पक-पुष्प भी उसकी अनुपम शोभा के सम्मुख तुच्छ दिखायी पड़ता है। उसका शरीर इतना आलोकित और आकर्षक है कि स्वर्णाभा भी उसकी तुलना में हीन दिखायी पड़ती है। यद्यपि स्वर्णकान्ति अपने आप में बेजोड़ हुआ करती है, किन्तु नायिका की छवि के सम्मुख वह भी प्रभाहीन दिखायी पड़ती है।

विशेष- (i) प्रस्तुत दोहे में कवि ने मुग्धा नायिका का वर्णन किया है।

(ii) काकुवक्रोक्ति, यमक (केसरि तथा जात में) तथा प्रतीप (चंपक कितकु अनुपु में) अलंकार का सुन्दर विधान किया गया है।

(iii) नायिका का अद्भुत सौन्दर्य कवि ने चित्रित किया है।

  1. मकराकृति गोपाल कै सोहत कुंडल कान।

धरयो मनौ हिय-धर समरू, ड्यौड़ी लसत निसान।।

प्रसंग- प्रस्तुत दोहे में श्रीकृष्ण के कानों में सुशोभित होने वाले मत्स्याकार कुण्डलों की शोमा का वर्णन नायिका की एक सखी कर रही है।

व्याख्या- नायिका की सखी कहती है कि नायक अर्थात् श्रीकृष्ण के कानों मछली के आकार वाले कुंडल अत्यन्त सुशोभित हो रहे हैं। हे सखी उन कुंडलों को देखने से तो ऐसा प्रतीत होता है मानो कामदेव ने हृदय रूपी प्रदेश को अपने अधिकार में कर लिया है और उसी के प्रतीक रूप में ड्योढ़ी पर उसकी मत्स्याकार ध्वजा फहरा रही है।

विशेष- (i) कवि ने कान के लिए ड्योढ़ी शब्द का साभिप्राय प्रयोग किया है। कान का भीतरी भाग भी बाहर से स्पष्ट दिखायी नहीं पड़ता है और कामदेव का प्रवेश इसी मार्ग से होता है। किसी के प्रति आसक्ति का जन्म उसके गुण-श्रवण के माध्यम यही कान ही होते हैं। (ii) पुराणों के अनुसार कामदेव के ध्वज पर मछली की आकृति अंकित होती है। इसमें कव का पौराणिक ज्ञान प्रमाणित होता है।

  1. मंगल बिन्दुसुरंग मुख, ससि केसरि-आड़ गुरु।

इक नारी लहि संगु, रसमय किय लोचन जगत।।

सन्दर्भ- यहाँ नायक का कथन स्वगत रूप में है या वह नायिका की किसी अन्तरंग सखी से कह रहा है। नायिका के मुख पर लाल बिन्दु तथा केसर की पीली आड़ देखकर नायक की आँखे अनुरागमय हो रही हैं-

व्याख्या- नायिका का मुख चन्द्रमा है, उसके मस्तक पर लगा हुआ रोली का बिन्दु मंगल है और केसर का आड़ा टीका वृहस्पति है। इन तीनों ने एक राशि। (नायिका) को पाकर संसार के नेत्रों को जलमय बना डाला है। भाव यह है कि जिस प्रकार मंगल, चन्द्रमा और वृहस्पति के एक राशि में होने पर इतनी अधिक जल-वृद्धि होती है कि संसार जलमय हो जाता है, उसी प्रकार अपने चन्द्रमा के समान मुख पर केसर का आड़ा तिलक और रोली की बिन्दी लगाये हुए नायिका देखने वालों को रसमय बना रही है।

विशेष- इस दोहे में बिहारी का परिपक्व ज्योतिष ज्ञान व्यक्त हुआ है। ज्योतिष के अनुसार यदि मंगल, चन्द्रमा और वृहस्पति एक राशि पर हो तो. बहुत अधिक वर्षा होती है। बिहारी ने यहाँ इसी सिद्धान्त को नायिका पर घटाया है।

  1. स्वरथु, सुकृतु न, श्रमु वृथा देखि, बिहंग विचारि।

बाज पराये पानि परि तूं पच्छीनु न मारि।

भूषन-मारु संभारिहैं क्यों इहिं तन सुकुमार।

सुघे पाइ न धर परैं सोभा हीं कैं भार।।

प्रसंगप्रस्तुत दोहे का सृजन कविवर बिहारी ने स्प्रभिप्राय किया था।

व्याख्या- प्रस्तुत दोहे में कवि कहता है कि हे, बाज तू दूसरों के वेश में होकर अन्य पक्षियों को मत मारो। तुम इस प्रकार क्यों करते हो? अर्थात् दूसरों के कहने में आकर के अन्य पक्षियों की हत्या क्यों करते हो? इससे न तुम्हारा कोई व्यक्तिगत स्वार्थ ही सिद्ध होता है और न ही पुर्ण्याजन होता है, तनिक विचार करके तो देखो।

सखि नायिका की सुकुमारता का वर्णन करते हुए कहती है कि जब वह अपने सौत्दर्य के भार को नहीं संभाल पाती, उसके पैर जमीन पर उस सुन्दरता के भार के कारण ठीक-ठीक नहीं पड़ते तब वह अपने सुकुमार तन पर आभूषणों का जो बोझ पड़ेगा उसे कैसे संभाल सकेगी।

वस्तुत्प्रेक्षा। काम दशा में क्षीणता की हालतों में व्याधि, विरह दशा!

हिन्दी – महत्वपूर्ण लिंक

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Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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