सामाजिक उद्विकास

सामाजिक उद्विकास | सामाजिक उद्विकास का सामाजिक परिवर्तन के साथ सम्बन्ध | Social upliftment in Hindi | Relationship of social upliftment with social change in Hindi

सामाजिक उद्विकास | सामाजिक उद्विकास का सामाजिक परिवर्तन के साथ सम्बन्ध | Social upliftment in Hindi | Relationship of social upliftment with social change in Hindi

सामाजिक उद्विकास

उद्विकास विभेदीकरण एवं एकीकरण की प्रक्रिया है, जिसका अर्थ है- विकसित होना। अर्थात् एक सादी और सरल वस्तु का धीरे-धीरे एक जटिल अवस्था या वस्तु में बदल जाना। उद्विकास सामाजिक परिवर्तन की एक प्रक्रिया अथवा ढंग है। उदविकासा के रूप में सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या करने वालों में हरबर्ट स्पेन्सर प्रमुख हैं जिन्होंने उद्विकास की अवधारणा चार्ल्स डार्विन से ग्रहण की थी। डार्विन ने कहा था कि जीवों का विकास सरलता से जटिलता की ओर एवं समानता से असमानता की ओर निरन्तर और सुनिश्चित लारों पर हुआ है। डार्विन के इस सिद्धान्त को स्पेन्सर ने समाज पर लागू करते हुये कहा कि समाज का उद्विकास भी जीवों के समान ही हुआ है। उन्होंने सामाजिक उद्विकास के चार स्तरों का उल्लेख किया है- 1. जंगली अवस्था, 2. पशुचरण अवस्था, 3. कृषि अवस्था एवं 4. औद्योगिक अवस्था उन्होंने स्पष्ट किया कि समाज में जब परिवर्तन एक निश्चित दिशा में निरन्तर हो और उसकी संरचना तथा गुणों में भी परिवर्तन हो, तो उसे हम सामाजिक उद्विकास कहते हैं। इसे निम्नलिखित सूह द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है- गुणात्मक परिवर्तन की संरचना में परिवर्तन निरन्तरता दिशा उद्विकास हरबर्ट स्पेन्सर ने सामाजिक उद्विकास के चार नियम निश्चित किये हैं-

  1. सामाजिक उद्विकास प्राकृतिक उद्विकास के नियम का एक सांस्कृतिक या मानवीय स्वरूप हैं।
  2. सामाजिक उद्विकास उसी प्रकार से घटित होता है जैसे कि प्राकृतिक उद्विकास
  3. सामाजिक उद्विकास एक धीमी प्रक्रिया है।
  4. सामाजिक उद्विकास की प्रकृति प्रगतिशील है।

सामाजिक उद्विकास में विभेदीकरण अनिवार्य नहीं है। यह केवल एक निश्चित दिशा में होने वाला परिवर्तन है। यह परिवर्तन उत्थान हो सकता है तथा पतन भी। कहने का तात्पर्य है कि सामाजिक उद्विकास मूल्यों पर आधारित नहीं होता। सामाजिक उद्विकास नियोजित या अनियोजित विकास है, जो संस्कृति एवं सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों या सामाजिक अन्तः क्रियाओं के स्वरूपों का होता है। सामाजिक उद्विकास को समरेखिक समझना उचित नहीं है। यद्यपि कुछ विद्वानों ने सामाजिक उद्विकास के कुछ स्तरों को निश्चित किया है, किन्तु यह मानना उचित नहीं है कि प्रत्येक सामाजिक संस्था इन स्तरों से गुजरती है। मैकाइवर एवं पेज ने लिखा है कि, “बिल्लियों कुत्तों से विकसित नहीं होती, लेकिन कुत्ते और बिल्लियाँ दोनों ही उद्विकास के फल हैं।” स्पष्ट है कि विभेदीकरण अनेक रूप धारण कर सकता है तथा संश्लेषण का कोई भी प्रकार हो सकता है। इसके अतिरिक्त उद्विकास की उत्पत्तियाँ खोजना भी व्यर्थ है, क्योंकि वे सदैव अगम्य होती हैं। उद्विकास के कोई विशेष नियम नहीं हैं। केवल एक ही नियम है, वह यह कि उद्विकास होता अवश्य है।

सामाजिक उद्विकास को प्राणिशास्त्रीय उद्विकास के समान मान लेना अनुचित एवं अवैज्ञानिक है। इस पर भी इस सिद्धान्त के आधार पर सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों के क्रम विकास का अध्ययन करने में सहायता मिलती है। यह सिद्धान्त यह भी स्पष्ट करता है कि समाज कोई आकस्मिक घटना नही है और न ही समाज के विभिन्न पक्षों का विकास दो चार दिनों में हुआ है। समाज आज हमें जिस रुप में दृष्टिगोचर हो रहा है, वह एक क्रम विकास का ही निश्चित परिणाम है।

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