समाज शास्‍त्र / Sociology

समाज का अर्थ | संस्कृति का अर्थ | समाजीकरण का अर्थ | समाज, संस्कृति और समाजीकरण में सम्बन्ध

समाज का अर्थ | संस्कृति का अर्थ | समाजीकरण का अर्थ | समाज, संस्कृति और समाजीकरण में सम्बन्ध | Meaning of society in Hindi | Meaning of culture in Hindi | Meaning of socialization in Hindi | Relationship between society, culture and socialization in Hindi

समाज का अर्थ

(Society)

साधारण बोलचाल की भाषा में समाज शब्द को व्यक्तियों के समूह के लिये प्रयुक्त किया जाता है। किन्तु समाजशास्त्र में समाज शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट अर्थ में जाता है। इसके अन्तर्गत व्यक्ति-व्यक्ति के बीच पाये जाने वाले सामाजिक सम्बन्धों के आधार पर निर्मित हुई अर्थव्यवस्था को ही समाज की संज्ञा दी गयी है।

मैकाइबर एवं पेज के अनुसार “समाज परिपाटियों एवं कार्यप्रणालियों की सत्ता और पारस्परकि सहयोगी अनेक समूहों एवं विभागों की मानव व्यवहार के नियन्त्रणों तथा स्वतन्त्रताओं की एक व्यवस्था है। सदैव परिवतर्नशली इस ज़टिल व्यवस्था को हम समाज कहते है यह सामाजिक सम्बन्धों का जाल है। और यह सदैव परिवर्तित होता रहता है।

समाज शब्द का प्रयोग विभिन्न लोगों ने अपने-अपने ढंग से किया है। किसी ने इसका प्रयोग व्यक्तियों में समूह के रूप में किसी ने समिति के रूप में तो किसी ने संस्था के रूप में किया है। इसी वजह से समाज के अर्थ के सम्बन्ध में निश्चिन्ता का अभाव पाया जाता है। विभिन्न समाज वैज्ञानिकों तक ने समाज शब्द का अपने अपने ढंग से अर्थ लगाया है। उदाहरण के रूप में राजनीतिशास्त्र समाज को व्यक्तियों के समूह के रूप में देखते है, मानवशास्त्री आदिम समुदायों को ही समाज मानता है। जबकि अर्थशास्त्री आर्थिक क्रियाओं को सम्पन्न करने वाले व्यक्तियों के समूह को समाज कहता है।

समाज 

(Meaning of Society)

समाजशास्त्र में समाज शब्द का प्रयोग विशेष अर्थ में किया गया है। यहाँ व्यक्ति व्यक्ति के बीच पाये जाने वाले सामाजिक सम्बन्धों के आधार पर निर्मित व्यवस्था को समाज कहा गया है।

पारसन्स के अनुसार- “समाज को उन मानवीय सम्बन्धों की संपूर्ण जटिलता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो साधन साध्य सम्बन्धों के रूप में क्रिया करने में उत्पन्न हुए हो, चाहे ये यथार्थ हो या प्रतीकात्मक। “पारसन्स की इस परिभाषा में क्रिया को विशेष महत्व दिया जाता है और किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये साधन के रूप में किये गये कार्य को ही क्रिया कहा गया है। ऐसी क्रिया के परिणामस्वरूप उत्पन्न सम्बन्ध को ही सामाजिक सम्बन्ध और इस सामाजिक या मानवीय सम्बन्धों से बनने वाली संपूर्ण जटिलता या व्यवस्था को समाज कहा गया है।

गिडिंग्स के अनुसार, “समाज स्वयं संघ है संगठन है, औपचारिक सम्बन्धों का योग है जिसमें सहयोग देने वाले व्यक्ति एक दूसरे के साथ जुड़े हुए या सम्बद्ध है।”

र्यूटर के अनुसार “समाज एक अमूर्त धारणा है जो एक समूह के सदस्यों के बीच पाये जाने वाले पारस्परिक सम्बन्धों की जटिलता का बोध कराती है।” इस परिभाषा के अनुसार व्यक्तियों के बीच पनपने वाले सम्बन्धों की संपूर्ण व्यवस्था को समाज माना गया है जो कि अमूर्त है।

संस्कृति का अर्थ

(Culture)

मानव इसलिये मानव है क्योंकि उसके पास संस्कृति है। संस्कृति के अभाव में मानव को पशु से श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता है।

संस्कृति ही मानव की श्रेष्ठतम धरोहर है जिसकी सहायता से मानव पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता जा रहा है। प्रगति की ओर उन्मुख होता जा रहा है। यदि मानव से उसकी संस्कृति छीन ली जाये तो जो कुछ शेष बचेगा, वह मात्र अन्य प्राणियों के समान एक प्राणी ही होगा। मानव व पशु में मुख्य अन्तर संस्कृति का ही तो है। संस्कृति के आधार पर ही हम एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से एक समूह को दूसरे समूह से और एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से एक समूह को दूसरे समूह से और एक समाज को दूसरे समाज से पृथक कर सकते हैं। मानव ही विश्व में एक ऐसा प्राणी है जो अपनी शारीरिक व बौद्धिक विशेषताओं के कारण संस्कृति का निर्माण कर पाया है भौतिक क्षेत्र में अनेक वस्तुओं को निर्मित कर पाया और अभौतिक क्षेत्र में कई विश्वासों और व्यवहार के तरीकों को जन्म दे पाया है।

समाजशास्त्रीय अर्थ में संस्कृति को समाज की धरोहर या विरासत के रूप में परिभाषित किया गया है। समाज द्वारा निर्मित भौतिक एवं अभौतिक दोनों पक्षों को संस्कृति में सम्मिलित करते हुए रॉबर्ट बीरस्टीड लिखते हैं, “संस्कृति वह सम्पूर्ण जटिलता है जिसमें वे सभी वस्तुएँ सम्मिलित हैं जिन पर हम विचार करते है, कार्य करते हैं और समाज के सदस्य होने के नाते अपने पास रखते है।” वे पुनः लिखते हैं, “इसके अन्तर्गत हम जीवन जीने के कार्य करने एवं विचार करने के उन सभी तरीकों को सम्मिलित करते हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होते हैं और समाज के स्वीकृत अंग बन चुके हैं।”

लैंडिस के अनुसार, “संस्कृति वह संसार है जिसमें एक व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक निवास करता है, चलता फिरता है और अस्तित्व को बनाये रखता है।”

पारसन्स ने अपनी पुस्तक (The Social System) में संस्कृति को एक ऐसे पर्यावरण के रूप में परिभाषित किया है जो मानव क्रियाओं का निर्धारण करती है।

हरस्कोबिट्स-संस्कृति को पर्यावरण का मानव निर्मित भाग कहते हैं।”

मैलिनोवस्की के अनुसार संस्कृति जीवन व्यतीत करने की एक सम्पूर्ण विधि है जो कि व्यक्ति की शारीरिक मानसिक एवं अनय आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और उसे प्रकृति के बन्धनों से मुक्त करती है।

संस्कृति की विशेषाएँ

संस्कृति की निम्नलिखित विशेषतायें इस प्रकार हैं-

  1. संस्कृति में सामाजिक गुण निहित होता है:- संस्कृति किसी व्यक्ति विशेष की देन नहीं होती वरन् सम्पूर्ण समाज की देन है। उसका जन्म और विकास समाज के कारण ही हुआ है। समाज के अभाव में संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती। कोई भी संस्कृति पाँच, दस या सौ, दो सौ व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व नहीं करती वरन समाज या समूह के अधिकांश लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। संस्कृति सामूहिक आदतों, व्यवहारों एवं अनुभवों की ही उपज होती है। संस्कृति के अंग जैसे प्रथाएं जनरीतियाँ, भाषा, परम्परा, धर्म विज्ञान कला दर्शन आदि किसी एक व्यक्ति की विशेषताओं में प्रकट नहीं करते वर सम्पूर्ण समाज की जीवन विधि का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  2. संस्कृति समूह के लिए आदर्श होती है- एक समूह के लोग अपनी संस्कृति को आदर्श मानते हैं और वे उनके अनुसार अपने व्यवहारों एवं विचारों को ढालते हैं। जब सांस्कृतिक की तुलना की जाती है। तो एक व्यक्ति दूसरी संस्कृति की तुलना में अपनी संस्कृति को आदर्श बताने का प्रयास करता है, उसकी अच्छाइयों का उल्लेख करता है। उदाहरणार्थ, हिन्दू संस्कृति की तुलना मुस्लिम संस्कृति से करने के दौरान एक हिन्दू अपनी संस्कृति को ही श्रेष्ठ बताता है।
  3. संस्कृति मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करती है- संस्कृति की यह विशेषता है, कि वह मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। मानव की अनेक सामाजिक, शरीरिक एवं मानसिक आवश्यकताएँ है। उनकी पूर्ति के लिए ही मानव से संस्कृति का निर्माण किया है। प्रकार्यवादियों ने संस्कृति के प्रकार्यों पर अधिक बल दिया है। प्रकार्यवादियों में मैलिनॉवरकी एवं रैडक्लिफ ब्राउन का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
  4. संस्कृति मानव निर्मित- संस्कृति केवल मनुष्य समाज में ही पायी जाती है। मनुष्य में कुछ ऐसी मानसिक एवं शारीरिक विशेषताएँ है- जैसे विकसित मस्तिष्क, केन्द्रित की जा सकने वाली आंखे हाथ और उसमें अंगूठे की स्थिति गर्दन की रचना, आदि जो उसे अन्य प्राणियों से भिन्न बनाती है और इसी कारण वह संस्कृति को निर्मित एवं विकसित कर सका है और विकसित मस्तिष्क के कारण ही मानव नये-नये आविष्कार करता और उन्हें मानव जाति के अनुभवों में संजोता है। संस्कृतिक का धनी होने के कारण ही मनुष्य, अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है वह अति-प्राणी (Super-organic) कहलाने का अधिकारी है।
  5. संस्कृति सीखी जाती है हॉवल कहते है कि संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है। संस्कृति मनुष्य को अपने माता पिता द्वारा उसी प्रकार वंशानुक्रमण में प्राप्त नहीं होती जिस प्रकार से शरीर रचना प्राप्त होती है। संस्कृति मानव के सौखे हुये व्यवहार प्रतिमानों का योग है। एक मनुष्य अपने जन्म के साथ किसी संस्कृति को लेकर पैदा नहीं होता है। वरन् जिस समाज में पैदा होता है, उसकी संस्कृति के धीरे-धीरे समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा सीखता है सीखने की क्षमता मानव में ही नहीं वरन् पशुओं में भी होती है, किन्तु पशु द्वारा सीखा हुआ व्यवहार संस्कृति नहीं बन पाती। पशु द्वारा सीख हुआ व्यवहार मानव की तरह सामूहिक व्यवहार अंग नहीं हैं। अपितु केवल पशु का व्यक्तिगत व्यवहार मानव की तरह सामूहिक व्यवहार का अंग नहीं है। अपितु केवल पशु का व्यक्तिगत व्यवहार है। सामूहिक व्यवहार ही प्रथाओं जनरीतियों, परम्पराओं, रूढ़ियों आदि को जन्म देते हैं और ये केवल मानव समाज में ही पाये जाते हैं, पशुओं में नहीं।
  6. संस्कृति हस्तान्तरित की जाती है- संस्कृतिक चूँकि सीखी जा सकती है। इसलिये ही नयी पीढ़ी के द्वारा संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करती है इस प्रकार एक समूह से दूसरे समूह को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को संस्कृति हस्तान्तरित की जाती है। मानव को अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ घोषित करने में उसकी भाषा का भी महत्वपूर्ण हाथ है। भाषा के कारण ही वह अपने ज्ञान को दूसरे लोगों तक पहुँचाता है। वह अपने द्वारा अर्जित ज्ञान को नयी पीढ़ी को भाषा, लेखन एंव संकेतों के माध्यम से ही हस्तान्तरित करता है। नयी पीढ़ी को भाषा, लेखन एवं सकेतों के माध्यम से ही हस्तान्तरित करता है। नयी पीढ़ी को अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान का भंडार प्राप्त होता है जिसमें वे स्वयं का अनुभव भी जोड़ते जाते हैं। इस प्रकार से मानव ज्ञान एवं संस्कृति का कोष दिनों-दिन बढ़ता जाता है।
  7. प्रत्येक समाज की एक विशिष्ट संस्कृति होती है- एक समाज की भौगोलिक एवं सामाजिक परिस्थितियाँ दूसरे समाज से भिन्न होती है। अतः प्रत्येक समाज में अपनी एक विशिष्ट संस्कृति पायी जाती है। समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अनेक अवष्किार करता है। अविष्कारों का योग संस्कृति को एक नया रूप प्रदान करता है। हर समाज की आवश्यकताएँ भी भिन्न होती हैं जो संस्कृति भिन्नताओं को जन्म देती हैं। एक समाज की संस्कृति में घटित होने वाले परिवर्तन दूसरी संस्कृति में घटित होने वाले परिवर्तनों से भिन्न होते हैं।

समाजीकरण का अर्थ

(Sociolization)

जन्म के समय मानव प्राणी न तो सामाजिक होता है और न ही समाज विरोधी। इस समय वह केवल रक्त, मांस और नैसर्गिक प्रवृत्तियों से बना हुआ एक जैविकीय प्राणी मात्र होता है जैसे जैसे वह बड़ा होता है उसे सामाजिक सीख के द्वारा छोटे से छोटा व्यवहार करना सिखाया जाता है इसके फलस्वरूप वह धीरे-धीरे एक जैविकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी के रूप में परिवर्तित होने लगता है। संक्षेप में जिस प्रक्रिया के द्वारा एक जैविकीय प्राणी सामाजिक प्राणी के रूप में परिवर्तित होता है, उसी प्रक्रिया का नाम समाजीकरण है।

गिलिन और गिलिन के अनुसार “समाजीकरण से हमारा तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा व्यक्ति समूह में एक क्रियाशील सदस्य बनता है, समूह की कार्यविधियों से समन्वय स्थापित करता है, परम्पराओं का ध्यान रखता है और सामाजिक परिस्थितियों से अनुकूलन करके अपने साथियों के प्रति सहन शक्ति की भावना को विकसित करता है।”

ग्रीन के शब्दों में, “समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बच्चा सांस्कृतिक विशेषताओं, आत्मपन (Selfhood) और व्यक्तित्व को प्राप्त करता है।” इस परिभाषा से स्पष्ट है कि समाजीकरण के द्वारा बच्चा संस्कृति की विशेषताओं को सीखता है, उसके अनुसार अपने आचरण को ढालता है और व्यक्ति का विकास करता है।

किम्बाल यंग के अनुसार, “समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रवेश करता तथा समाज के विभिन्न समूहों का सदस्य बनता है और जिसके द्वारा उसे समाज के मूल्यों और मानकों को स्वीकार करने की प्रेरणा मिलती है।”

जॉनसन के अनुसार “समाजीकरण सीखने की वह प्रक्रिया है जो सीखने वाले को सामाजिक भूमिकाओं का निर्वाह करने के योग्य बनाती है। इस प्रकार जॉनसन समाजीकरण को सीखने की प्रक्रिया मानते हैं। जिसके द्वारा व्यक्ति समाज में अपनी भूमिकाओं को निभाना सीखता है।

स्पष्ट है कि समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति समूह अथवा समाज की सामाजिक सांस्कृतिक विशेषताओं को ग्रहण करता है, अपने व्यक्तित्व का विकासक्षकरता है और समाज का क्रियाशील सदस्य बनता है। समाजीकरण द्वारा बच्चा सामाजिक प्रतिमानों को सीखकर उनके अनुरूप आचरण करता है, इससे समाज में नियन्त्रण बना रहता है।

समाजीकरण की विशेषतायें

समाजीकरण की निम्नलिखित विशेषतायें हैं-

  1. संस्कृति को आत्मसात् करने की प्रक्रिया- इस प्रक्रिया के द्वारा एक व्यक्ति सांस्कृतिक मूल्यों मानकों एवं समाज स्वीकृत व्यवहारों को सीखता है तथा संस्कृति के भौतिक तथा अभौतिक तत्वों को आत्मसात् करता है। धीरे-धीरे संस्कृति व्यक्ति के व्यक्तित्व अंग बना जाता है।
  2. समाज का प्रकार्यात्मक सदस्य बनने की प्रक्रिया- समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति सामाजिक कार्यों में भाग लेने योग्य बनता है। इसी के द्वारा वह प्राणीशास्त्रीय से सामाजिक प्राणी में बदल जाता है। किस पद पर रहकर किस परिस्थिति में कैसा व्यवहार करना चाहिये, यह सब सामाजिक सम्पर्क से ही सीखा जाता है। सम्पर्क से ही व्यक्ति लोगों की अपेक्षा के अनुरूप व्यवहार करना सीखता है। हारालाम्बोस कहते हैं। कि समाजीकरण के अभाव में कोई मनुष्य समाज का सामान्य सदस्य नहीं बन सकता है।
  3. आत्म का विकास समाजीकरण के द्वारा व्यक्ति के आत्म का विकास होता है, व्यक्ति अपने प्रति जागरूकता आती है और वह यह जानने लगता है, कि दूसरे व्यक्ति उसके बारे में क्या सोचते हैं।
  4. सांस्कृतिक हस्तान्तरण- समाजीकरण के द्वारा समूह अथवा समाज अपनी संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाता है। नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से संस्कृति ग्रहण करती है। डेविस कहते हैं कि हस्तान्तरण की इस प्रक्रिया के बिना समाज निरन्तरता बनायें नहीं रख सकता और न ही संस्कृति जीवित रह सकती है।
  5. सीखने की प्रक्रिया समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है किन्तु सभी प्रकार की बातें सीखना समाजीकरण नहीं है वरन् उन व्यवहारों को जो सामाजिक प्रतिमानों, मूल्यों एवं समाज द्वारा स्वीकृत है, को सीखना ही समाजीकरण है। उदाहरण के लिये एक व्यक्ति चोरी करना कक्षा से भाग जाना व गाली देना, आदि सीखता है तो उसे हम समाजीकरण नहीं कहेंगे क्योंकि ये क्रियाएँ समाज द्वारा स्वीकृत नहीं है और न ही इन्हें सीखकर व्यक्ति समाधान का क्रियाशील सदस्य बनता है।
  6. आजन्म प्रक्रिया- समाजीकरण की प्रक्रिया बच्चे के जन्म से लेकर मृत्यु तक चलने वाली प्रक्रिया है। बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक वह अनेक प्रस्थितियाँ धारण करते है और उनके अनुसार अपनी भूमिकाओं का निर्वाह करना सीखता है। बचपन में वह पुत्र भाई मित्र आदि के रूप में अन्य लोगों से व्यवहार करना सीखता है। युवावस्था में वह पति पिता व्यवसायी किसी संगठन में पदाधिकारी एवं अन्य अनेक पदों को ग्रहण करता है वृद्धावस्था में दादा नाना श्वसुर आदि पद धारण करता है और इन सभी पदों के अनुरूप भूमिका निर्वाह करना सीखता है। इस प्रकार व्यक्ति के सामने नयी नयी प्रस्थितियाँ एवं पद आते हैं और वह उनके अनुसार समाज द्वारा मान्य व्यवहारों को सीखता जाता है। इस प्रकार समाजीकरण की प्रक्रिया आजीवन चलती रहती हैं।

समाज, संस्कृति और समाजीकरण में सम्बन्ध

(Relation in society, Culture and Socialization)

समाज, संस्कृति और समाजीकरण के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। व्यक्ति के समाजीकरण, उसके व्यक्तित्व के निर्माण और विकास में शरीरिक, सांस्कृतिक एवं मनोवैज्ञानिक तीनों ही कारकों का योग होता है। वंशानुक्रम व्यक्ति के लिये शरीर रूपी कच्चा माल उपलब्ध कराता है इसे समाज व संस्कृति परिपक्वता प्रदान करते हैं समाजीकरण के माध्यम से निर्मित व्यक्तितत्व, समाज और संस्कृति में इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि इनको लेकर भ्रम पैदा होना स्वाभाविक है। सामाजिक सम्बन्धों के लिये संस्कृति का होना आवश्यक है। संस्कृति के द्वारा ही हम इनको अभिव्यक्त करते हैं। साथ ही समाजीकरण के माध्यम से निर्मित व्यक्तित्व ही संस्कृति का संचालन करते है और सामाजिक सम्बन्धों में अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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