सामान्य सन्तुलन सिद्धान्त | सामान्य सन्तुलन की व्यावहारिक प्रक्रिया | सामान्य सन्तुलन क्या है?

सामान्य सन्तुलन सिद्धान्त | सामान्य सन्तुलन की व्यावहारिक प्रक्रिया | सामान्य सन्तुलन क्या है?

सामान्य सन्तुलन सिद्धान्त

(General Equilibrium Theory)

सामान्य सन्तुलन सिद्धान्त उन अर्थशास्त्रियों के प्रयत्नों का परिणाम है जो मूल्य-निर्धारण के लिए न तो उत्पादन लागत सम्बन्धी विचार से ही सहमत थे और न ही सीमान्त उपयोगिता सम्बन्धी विचार से।

इन अर्थशास्त्रियों में कुछ प्रमुख गणितात्मक सम्प्रदाय के अर्थशास्त्री जैसे लियो वालरॉ, विल्फ्रेड परैटो, फिशर, एजबर्थ, स्ल्ट्स्की एवं विक्सेल आदि प्रमुख हैं। परन्तु इस सिद्धान्त के प्रतिपादन का प्रारम्भिक श्रेय मुख्यतया फ्रांस के वालरों की है जिन्होंने 1874 में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Elements of Economic Politique’ में सर्वप्रथम सामान्य सन्तुलन का एक गणितीय स्वरूप प्रस्तुत किया। उनका विचार था कि सभी बाजारों में सभी मूल्य एवं मात्रा का निर्धारण परस्पर अन्तर्प्रक्रियाओं के माध्यम से निर्धारित होता है इसके लिए उन्होंने सभी बाजारों में विक्रेताओं तथा क्रेताओं की व्यक्तिगत अन्तर्प्रक्रिया को समझाने के लिए युगपत समीकरणों की प्रणाली अपनायी है तथा उन्होंने ये प्रतिपादित किया कि वस्तु एवं साधन बाजार में मूल्यों एवं मात्राओं के अंश का निर्धारण इन समीकरणों के माध्यम से किया जा सकता है।

उनके इस मॉडल में प्रत्येक निर्णयकर्ता का अपना एक समीकरण समूह होता है। उदाहरण के लिए वस्तु बाजार के प्रत्येक उपभोक्ता की एक ही समय में दो भूमिकाएं होती हैं पहली भूमिका के अन्तर्गत वह वस्तुओं का क्रय करता है तथा दूसरी भूमिका में वह फर्मो को परोक्ष रूप में साधनों की सेवा का विक्रय करता है। अतः प्रत्येक उपभोक्ता के समीकरण समूह में दो उपसमूह होते हैं। प्रपत्र उपसमूह विभिन्न वस्तुओं की माँग को दर्शाता है तथा दूसरा उसके द्वारा की गई साधन आगत की आपूर्ति को दर्शाता है।

इसके प्रतिपक्ष में साधन बाजार के अन्तर्गत प्रत्येक कर्म के समीकरण समूह का प्रथम उप- समूह उत्पादित वस्तुओं की मात्राओं को दर्शाता है तथा दूसरा प्रत्येक उत्पादित वस्तु की साधन- आगत सम्बन्धी माँग को दर्शाता है। इन समीकरणों की प्रमुख विशेषता इनका युगपतीय एवं अन्योन्याश्रित स्वरूप है। इस प्रकार इन समीकरण समूहों के माध्यम से मॉडल के अज्ञात चरों को परिभाषित किया गया है जिनमें से प्रमुख चर हैं-वस्तुओं एवं साधन आगतों के मूल्य एवं मात्राएं।

मान्यताएँ- अत: वालरों के मॉडल की प्रमुख मान्यताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) इस मॉडल में वस्तुओं एवं साधनों के अनुपात में बाजारों का प्राविधान माना गया है।

(2) प्रत्येक बाजार हेतु माँग-फलन, पूर्ति-फलन एवं माँग-पूर्ति सन्तुलन सम्बन्धी बाजार समीकरण का प्राविधान है।

(3) वस्तु बाजार में माँग-फलनों की संख्या उपभोक्ताओं की संख्या के बराबर मानी गई है तथा पूर्ति फलनों की संख्या उत्पादनकर्ता फर्मों की संख्या के बराबर मानी गई है।

(4) साधन बाजार में माँग फलन की संख्या आपूर्तिकर्ता फर्मों तथा उत्पादित वस्तुओं की संख्या के गुणनफल के बराबर मानी गई है तथा उसी प्रकार पूर्ति फलन उपभोक्ताओं की संख्या तथा उत्पादन के साधनों के गुणनफल के बराबर मानी गई।

(5) सामान्य सन्तुलन की दशा के अस्तित्व हेतु यह भी परिकल्पना की गई है कि स्वतन्त्र समीकरणों की संख्या अज्ञात चरों के बराबर होगी। उदाहरण के लिए यदि किसी बाजार-तन्त्र में दो उपभोक्ता A तथा B, दो उत्पादन के साधनों K तथा L1 स्वामी हों तथा इन साधनों को दो फर्मे, दो वस्तुओं x तथा y के उत्पादन में प्रयोग करती हों तो ऐसी दशा में निर्धारित सामान्य सन्तुलन दो वस्तु, दो व्यक्ति, दो साधन प्रधान सामान्य सन्तुलन कहलायेगी। गणितीय भाषा में वालरों ने इसे 2 x 2 x 2 की संज्ञा दी है।

वालरॉ के सिद्धान्त में यद्यपि समीकरणों तथा अज्ञात चरों की संख्या बराबर है परन्तु फिर भी सामान्य सन्तुलन के प्रतिनिदान का अस्तित्व संदिग्ध प्रतीत होता है क्योंकि वालरों ने इसकी व्यावहारिक पुष्टि एवं सत्यापन नहीं किया था। कालान्तर में 1954 में पैरो तथा डिब्रू (Arrrow and Debreu) ने सामान्य सन्तुलन के अस्तित्व का प्रमाण एवं सिद्धि को प्रस्तुत किया। यह अस्तित्व पूर्ण तथा प्रतिस्पर्धी बाजारों के अविभाज्यता तथा वृद्धिमान प्रतिफलता के अभाव में दर्शाया गया।

वालरॉ का सामान्य सन्तुलन मॉडल

अथवा

दो साधन, दो वस्तु, दो उपभोक्ता मॉडल

अथवा

2 x 2 x 2 मॉडल

सामान्य सन्तुलन की व्यावहारिक प्रक्रिया

सामान्य सन्तुलन के अस्तित्व को स्पष्ट करने के लिये लियो वालरॉ ने एक ऐसी सरल अर्थ- व्यवस्था की परिकल्पना की जिसमें पूर्णतया प्रतिस्पर्धी उत्पादन एवं साधन बाजार विद्यमान हों। ऐसी अर्थ-तन्त्र में सामान्य सन्तुलन की दशा, असन्तुलन के बाद स्वतः पुनर्स्थापित हो जाती है। इसकी अन्तरनिहित प्रक्रिया की दीर्घकालीन प्रवृत्ति की पुष्टि इस प्रकार की है-

यदि किसी बाजार तन्त्र में किसी बाह्यजनित कारणों के परिणामस्वरूप बाजार के उपभोक्ताओं की रुचियों में परिवर्तन आ जाय तो इसके परिणामस्वरूप प्राथमिकता वाले उद्योग x की माँग बढ़ जायेगी, तथा उदासीनता वाली फर्म y की माँग स्वतः घट जायेगी। परिणामस्वरूप अल्पकाल में x उद्योग में मूल्य बढ़ जायेंगे तथा y उद्योग में कम हो जायेंगे। इस कारण से x उद्योग की फर्मों की उत्पादक क्षमता बढ़ेगी तथा y की घटेगी।

लाभार्जन के दृष्टिकोण से x उद्योग में नई फर्मो की प्रविष्टि होगी तथा y उद्योग में फर्मे उत्पादन विमुख होने लगेंगी। इसका परिणाम यह होगा कि x उद्योग में श्रम तथा पूँजी की माँग बढ़ेगी परिणामस्वरूप इस फर्म की मजदूरी एवं पूँजी लागत बढ़ेगी जबकि इसके प्रतिपक्ष में y उद्योग में मूल्य तथा ब्याज दर गिरेगी। चूंकि इस बाजार में साधनों को दीर्घकाल में बाजारों के मध्य पूर्णतया गतिशील माना गया है इसलिए सस्ती मजदूरी एवं ब्याज दर पर उपलब्ध साधनों के कारण X उद्योग में अल्पकालीन मूल्य ह्रास हो रहा था परन्तु यह मूल्य मौलिक सन्तुलन मूल्य से अधिक होगा। इसके परिणामस्वरूप उद्योग पूँजी प्रधान होने के कारण दीर्घकाल वृद्धिमान लागत उद्योग हो जायेगा तथा y उद्योग ह्रासमान लागत उद्योग हो जायेगा।

इस प्रकार दीर्घकालीन स्वचालन प्रक्रिया के परिणामस्वरूप बाजार में उत्पन्न उद्योग एवं फर्म प्रधान असन्तुलन क्रमशः पुनर्सन्तुलन में परिणत हो जायेगा। इस पुनर्सन्तुलन की स्थापना वालरॉ के सामान्य सन्तुलन का पर्याय है। इस सामान्य सन्तुलन का पूर्ण श्रेय बाजार की पुनर्सधारात्मक शक्ति को है जो कि दो बाजारों में दो उद्योगों तथा फर्मों एवं दो साधनों के मध्य दो वस्तुओं कि निमित्त स्वचालित होती है। इसके साथ ही साथ यह भी कहना अनुचित न होगा कि वालरॉ का सामान्य सन्तुलन तभी क्रियाशील होगा जबकि अर्थप्रणाली पूर्णतया प्रतिस्पर्धी हो।

मॉडल की मान्यताएँ

सिद्धान्त की मान्यताओं के अतिरिक्त मॉडल उत्पादन एवं माँग-फलन सम्बन्धी अतिरिक्त मान्यताएं निम्न हैं-

(1) उत्पादन के दो साधन श्रम (L) पूँजी (K) की मान्यताएं ज्ञात हैं तथा ये साधन समरूप तथा पूर्णतया विभाज्य है।

(2) केवल दो वस्तुओं x तथा y उत्पादन निर्धारित तकनीक पर किया जा रहा है। इनसे सम्बन्धित उत्पादन फलनों को समउत्पाद चित्रों द्वारा दर्शाया गया है।

(3) केवल दो उपभोक्ता A, B विद्यमान हैं जिनकी वरीयताएं एवं प्राथमिकताएं क्रम वाचक उदासीनता वक्रों द्वारा दर्शायी गई हैं।

(4) आय परिधि के अन्तर्गत प्रत्येक उपभोक्ता अपनी सन्तुष्टि को अधिकतम करने के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है।

(5) तकनीकी परिधि के अन्तर्गत प्रत्येक फर्म अपने उत्पादन फलन द्वारा लाभ को अधिकतम करना चाहती है।

(6) उत्पादन के साधनों का स्वामित्व उपभोक्ता के पास है।

(7) साधनों में पूर्ण रोजगार की दशा विद्यमान है तथा उनके स्वामी अर्जित आय को व्यय कर देते हैं।

(8) वस्तु एवं साधन बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता विद्यमान है तथा उपभोक्ता एवं फर्मे अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अनेक मूल्यों का प्रयोग करती हैं जैसे-(Px,Py, w, r)।

(A) उत्पादन सन्तुलन (Production Equilibrium)

वालरॉ के अनुसार स्थैतिक सन्तुलन की दशा में उत्पादन की प्रक्रिया के अन्तर्गत विद्यमान फर्मों के मध्य उपलब्ध उत्पादन के साधनों के दक्षतापूर्ण वितरण का निर्धारण किया जाता है। इस दशा को दर्शाने के लिए यह आवश्यक है कि फर्मों के समुत्पाद वक्रों की ढाल समलागत वक्रों की ढाल के बराबर होगी अन्य शब्दों में, श्रम तथा पूँजी के मध्य तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दर (MRTS) उनके प्रतिफल अनुपात के बराबर होना चाहिए-

MRTSLK = W/r

इस विशिष्ट सन्तुलन का संयुक्त स्वरूप स्पष्ट करने के लिए एजवर्थ द्वारा प्रस्तुत बॉक्स चित्र का आश्रय लिया गया है जो कि निम्नवत् हैं-

रेखाचित्र के अनुसार Z बिंदु पर-

(1) x वस्तु की X3 मात्रा उत्पादित होगी।

(2) y वस्तु की Y2 मात्रा उत्पादित होगी।

(3) x3 मात्रा के उत्पादन में Kxपूँजी मात्रा आबंटित होगी।

(4) y2 मात्रा के उत्पादन में Ky पूँजी मात्रा आबंटित होगी।

(5) x3 मात्रा के उत्पादन में Lx श्रम मात्रा आबंटित होगी।

(6) y2 मात्रा के उत्पादन में Ly श्रम मात्रा आबंटित होगी।

उक्त चरों के साम्य को दर्शाने वाले सन्तुलन बिन्दु Z पर-

X सम-उत्पाद वक्र की ढाल = Y सम-उत्पाद वक्र की ढाल

अथवा, MRTSxL, k = MRTSyL,K

इस सन्तुलन की दशा में उत्पाद करने वाली फर्मे अपने लाभ को निम्नवत् अधिकतम कर सकेंगी- MRTSy L,K = MRTSY L,k = w/r

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि उत्पादन का सामान्य सन्तुलन एक ऐसे बिन्दु पर होता है जहाँ पर सभी फर्मों का MRTSL,K एक समान हो अर्थात् यह बिन्दु परैटो के अनुकूलतम मानदण्ड को भी पुष्टि करता है। इस संतुलन की पुष्टि उत्पादन संभावना वक्र (Production Possibility Curve) द्वारा भी की जा सकती है। इसके अंतर्गत यह परिकल्पित किया गया है कि उक्त वक्र की ढाल x तथा y के मूल्यों के अनुपात के बराबर होना चाहिए क्योंकि पूर्ण प्रतिस्पर्धी उद्योग में पूर्ण प्रतियोगिता के अंतर्गत मूल्य एवं लागत का साम्य स्वतः परिकल्पनीय है। इसे निम्नवत् प्रदर्शित किया गया है-MCx = Px तथा MCy = Py

MRPTx,y = MCx/MCy = Px/Py

MRPTx,y का अभिप्राय उत्पादन अन्तरण की सीमान्त दर (Marginal Rate of Production Transformation) से है, जो कि X तथा Y वस्तु के मध्य विद्यमान है। उत्पादन संभावना वक्र तथा उत्पादन अन्तरण वक्र दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं। अतः इस वक्र की सहायता से सामान्य संतुलन को निम्नवत् दर्शाया जा सकता है।

(B) उपभोग सन्तुलन

(Consumption Equilibrium)

सन्तुलन के इस अनुभाग में प्रत्येक उपभोक्ता Px तथा Py बाजार मूल्यों के मध्य सन्तुलन प्राप्त करते हैं तथा अपनी सन्तुष्टि को अधिकतम करते हैं। इसे इस प्रकार भी दर्शाया जा सकता है-

MRSx,y = Px/Py

तथा संयुक्त सामान्य सन्तुलन की दशा में पूर्णप्रतिस्पर्धी बाजारों में उपभोक्ता निम्नवत् सन्तुलन प्राप्त करेंगे-

MRSA x,y = MRSB x,y = Px/Py

अर्थात् x तथा y.वस्तु के मध्य सीमान्त प्रतिस्थापन दर (MRS) तथा उनके मूल्यों के अनुपात में समानता के साथ जब दो उपभोक्ताओं A तथा B की सन्तुष्टि स्तर में समानता स्थापित हो जायेगी तो इसे सामान्य सन्तुलन का उपभोक्ता सन्तुलन कहेंगे जो कि निम्नांकित रेखाचित्र से बिन्दु T पर दर्शाया गया है जिस पर X की कुल OXc एवं Y की OYc  इकाइयों का A तथा B उपभोक्ताओं के मध्य अनुकूलतम वितरण होगा।

उपर्युक्त चित्र के अनुसार T1 बिन्दु पर सन्तुलन की दशा में A उपरोक्त A2 उदासीनता वक्र पर होगा तथा X वस्तु की OM मात्रा एवं Y वस्तु की ON मात्रा का क्रय करेगा। इसी प्रकार B उपभोक्ता B4 उदासीनता वक्र पर पहुँचकर शेष X की मात्रा MXc तथा Y वस्तु की शेष मात्रा NYc का क्रय करेगा।

(C) युगपत् सन्तुलन (Simultoneous Equilibriun)

इस उभयनिष्ठ सन्तुलन के अन्तर्गत उपभोग तथा उत्पादन दोनों में प्रभावी सामान्य सन्तुलन की व्याख्या की गई है जिसे कि निम्नवत् दर्शाया गया है-

MRPT x,y =  MRSA x,y = MRSB x,y                             ……….(1)

MRPT x,y = Px/Py     …………(2)

MRSA x,y = MRSB x,y = Px/Py                                               ………….(3)

MRPT x,y = MRSA x,y = MRSB x,y

…………..(4)

उपर्युक्त दशा का निरूपण निम्नांकित रेखाचित्र में किया गया है-

उपर्युक्त रेखाचित्र से स्पष्ट है कि x वस्तु की एक इकाई का परित्याग करके y वस्तु की दो इकाई का उत्पादन किया जा सकता है। जबकि उपभोक्ता x वस्तु की एक इकाई के बदले y वस्तु की एक इकाई का ही हस्तांतरण करने को तत्पर है। इन दोनों अनुपातों में विद्यमान असमानता रेखाचित्र के c तथा d बिन्दुओं पर दर्शायी गई है। इसके परिणामस्वरूप फर्म उपभोक्ताओं की अभिरुचि के अनुसार y वस्तु की कम इकाई तथा x वस्तु की अधिक इकाई उत्पादित करेंगे जबकि उपभोक्ता सम्प्रभुता सम्बन्धी मान्यता के अनुसार सामान्य सन्तुलन को प्राप्त करने के लिए फर्म को x का उत्पादन घटाना तथा y का उत्पादन बढ़ना चाहिए। इस मानदण्ड के अनुसार उत्पादनों के समायोजन भी उपभोक्ता तथा उत्पादकों के  दृष्टिकोण से पूर्णतया अनुकूलतम होनी चाहिए। इस दशा में समता प्रतिफल के अन्तर्गत पूर्ण प्रतिस्पर्धी बाजार में 2 x 2 x 2 प्रणाली का सामान्य सन्तुलन निदान प्रदर्शित किया गया है। जिससे कि परैटो के तीन मानदण्डों की भी पुष्टि हो जाती है जो कि निम्नवत् है-

(1) दोनों उपभोक्ताओं के मध्य दोनों वस्तुओं की सीमान्त प्रतिस्थापन दर (MRS) बराबर हैं अतः यह उपभोक्ताओं के मध्य वस्तुओं के आबंटन सम्बन्धी वितरण दक्षता का प्रतीक है।

(2) दोनों फर्मों के मध्य दोनों साधनों की तकनीकी प्रतिस्थापन सम्बन्धी सीमान्त दर (MRTS) बराबर है अत: यह फर्मों के मध्य साधनों के आबंटन सम्बन्धी साधन प्रतिस्थापन दक्षता का प्रतीक है।

(3) दोनों वस्तुओं की MRS तथा MRPT बराबर है अत: यह अर्थव्यवस्था में अनुकूलतम उत्पादन सम्बन्धी संसाधनों के अनुकूलतम आबंटन प्रधान दक्षता का प्रतीक है। इसे वालरॉ ने Product Mix officiency की संज्ञा दी है।

चित्र में T” बिन्दु पर समान्य सन्तुलन की दशा विद्यमान होने के कारण Xc उत्पादन की मात्रा हेतु Lx श्रम तथा Kx पूँजी का विनियोजन होगा तथा Yc मात्रा के लिए शेष साधनों की मात्रा Ly श्रम एवं Ky पूँजी का प्रयोग किया जायेगा। इस प्रकार सामान्य सन्तुलन के प्रतिनिदान में चार अज्ञात चरों को इस रेखाचित्र द्वारा प्रदर्शित किया गया है-

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