अर्थशास्त्र / Economics

माल्थस का अल्प उपभोग | माल्थस का अत्युत्पाद्न सिद्धान्त | अत्युपादन सिद्धान्त की विशेषताएँ | माल्थस के अत्युत्पादन सिद्धान्त का मूल्यांकन

माल्थस का अल्प उपभोग | माल्थस का अत्युत्पाद्न सिद्धान्त | अत्युपादन सिद्धान्त की विशेषताएँ | माल्थस के अत्युत्पादन सिद्धान्त का मूल्यांकन

माल्थस का अल्प उपभोग या अत्युत्पाद्न सिद्धान्त

(केन्ज के विचारों के सन्दर्भ में)

(Malthusian Theory of Under-Consumption or Over- Production)

माल्थस ने ‘अत्युत्पादन’ अथवा ‘अल्प उपभोग’ के विषय में विचार प्रस्तुत किये हैं। रिकार्डो ने इन विचारों का खण्डन किया और इनके स्थान पर अपने विचार स्थापित किये। किन्तु केन्ज ने माल्थस के विचारों को विशेष महत्त्व दिया है। विद्वानों का यह कहना ठीक प्रतीत होता है कि केन्ज ने माल्थस के विचारों से प्रभावित होकर ही अपने ग्रन्थ Essays in Biography की रचना की।

अत्युपादन (या अल्प उपयोग ) सिद्धान्त की विशेषताएँ

(Salient Features of Over-Production or Under-Consumption Theory)

  1. अत्युपादन की स्थिति उत्पन्न होना सम्भव है- अपने जीवन-काल में माल्थस ने अति उत्पादन की स्थिति को देखा था। वस्तुओं की पूर्ति अधिक थी किन्तु माँग कम क्योंकि निर्धनों का बाहुल्य था, धनिक गिने-चुने थे तथा चारों ओर बेरोजगारी फैल रही थी। उन्होंने बताया कि कुल उत्पादन की तुलना में समर्थ माँग (effective demand) कम रह जाने के कारण समाज में अत्युत्पादन की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। इस प्रकार, माल्थस पहले अर्थशास्त्री हैं, जिन्होंने अत्युत्पादन की सम्भावना को स्वीकार किया।

जे०बी० से के विचारों से भिन्नता– स्पष्टत: माल्थस का यह विचार समकालीन फ्रांसीसी अर्थशास्त्री जे०बी० से (J.B. Say) के प्रसिद्ध बाजार नियम (Law of Markets) के विपरीत था। इस नियम के अनुसार, पूर्ति सदा स्वयं अपनी माँग पैदा करती है। से (Say) का कहना था कि प्रत्येक व्यक्ति एक ही समय क्रेता और विक्रेता दोनों ही होता है, वस्तुओं का विनिमय सदा वस्तुओं के द्वारा होता है तथा इसलिए ‘पूर्ति’ समर्थ माँग का एकमात्र स्रोत है। चूँकि पूर्ति और माँग एक- दूसरे के साथ बंधे हैं, इसलिए अति-उत्पादन होना सम्भव नहीं है। अल्पकाल में तो कुछ वस्तुओं में अत्युत्पादन और कुछ वस्तुओं में न्यूनोत्पादन होना तो सम्भव है, किन्तु दीर्घकाल में सामान्य अत्युत्पादन (general over-production) और सामान्य न्यूनोत्पादन (general under- production) नहीं हो सकता, क्योंकि उत्पत्ति-साधनों की पूर्ण गतिशीलता के कारण विभिन्न उत्पादक क्रियाओं में साधनों का पुनः वितरण होने से असाम्यता (disequilibrium) समाप्त हो जाती है।

स्पष्टतः प्रतिष्ठित लेखकों के अनुसार पूँजीवादी एक स्वयं-सन्तुलित व्यवस्था है और इसमें कोई असाम्यता (अत्युत्पादन या न्यूनोत्पादन के रूप में) अधिक समय तक नहीं रह सकती। रिकार्डो ने इस निष्कर्ष के आधार पर एक और परिणाम निकाला, जो यह कि समाज में पूँजी का संचय किसी भी समय इसकी माँग से अधिक नहीं हो सकता।

रिकार्डो एवं मिल के विचारों से भिन्नता- रिकार्डो और जेम्स मिल के अनुसार पूँजी की निरन्तर वृद्धि लाभकारी है। पूँजी का संचय कभी भी और किसी भी दशा में समाज के लिए हानिप्रद नहीं हो सकता। रिकार्डों के अनुसार प्रगति की सीमा अनन्त है जिस पर कोई भी समाज कभी नहीं पहुंच सकता है और इसलिए पूँजीवादी अर्थव्यवस्था निरन्तर प्रगति करती रहेगी तथा पूँजी का बढ़ता हुआ संचय सबका सब काम आता रहेगा, जिस कारण पूँजी के अतिविसंचय की समस्या कभी प्रस्तुत नहीं हो सकेगी। यह संक्षेप में रिकार्डो का “पूँजी के संचय का सिद्धान्त’, (Theory of Capital Accumulation) है।

माल्थस ने जे०बी० से, रिकार्डो आदि से भिन्न विचार व्यक्त किये। उनके विचार आधुनिक अर्थशास्त्रियों के विचारों के अधिक निकट हैं। उन्होंने कहा कि जटिल द्रव्य अर्थव्यवस्था में वस्तुओं का वस्तुओं से विनिमय नहीं होता और कि माँग और पूर्ति सदा परस्पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर नहीं है। उन्होंने कहा कि से का नियम उसी दशा में लागू होता है, जबकि वर्तमान उत्पादन और वर्तमान उपभोग में समानता हो। परन्तु पूँजी का संचय (बचत) होने के कारण पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन और उपयोग में समानता नहीं रह पाती तथा इसलिए से का नियम लागू नहीं होता। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में पूँजो का संचय (अथवा बचत) बहुत तेजी से होता है। परिणामस्वरूप अनुत्पादक उपभोग का अभाव होने के कारण कुल समर्थ माँग कुल उत्पादन की तुलना में कम रह जाती है जिससे फिर अर्थव्यवस्था में अत्युत्पादन की समस्या उत्पन्न हो जाती है। माल्थस के शब्दों में, “मेरा यह स्पष्ट मत है कि बहुत तेजी से संचय करने का प्रयास, जिसका अनिवार्य परिणाम अनुत्पादक उपभोग में कमी होना है, उत्पादन के लिये सामान्य प्रेरणाओं को बहुत क्षति पहुँचा कर धन की वृद्धि को असमय ही रोक देता है।”

इस प्रकार, उन्होंने अत्युत्पादन की समस्या के विश्लेषण के लिये अल्प-उपभोग का विचार प्रस्तुत किया और अल्प उपभोग सिद्धान्त के पूर्व विचारक (forerunner) बन गये। माल्थस ने बताया है कि पूँजीपति श्रम को उत्पत्ति साधन के रूप में उससे कहीं कम मजदूरी देता है, जितना कि वह उसकी उपज से प्राप्त होने की आशा करता है। ऐसा करके वह स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारता है, क्योंकि दीर्घकाल में समर्थ माँग कम हो जाती है। स्पष्ट है कि यदि पूँजीपति के द्वारा उत्पादित वस्तुएँ केवल पूँजीपतियों के लिये हों (और ये संख्या में थोड़े हुआ करते हैं), तो पूँजीवाद अधिक समय जीवित नहीं रहता। अत: यह आवश्यक है कि श्रमिकों को यथेष्ठ मजदूरी दी जाय ताकि वे उत्पादित वस्तुओं को खरीद सकें, किन्तु अपने लाभ को बढ़ाने के लोभ में पूँजीपति मजदूरी कम देते हैं और इस प्रकार अत्युत्पादन की दशा उत्पन्न कर देते हैं।

जैसा कि पी०सी० न्यूमैन ने बताया है, उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर माल्थस ने ठीक ही यह निष्कर्ष निकाला कि “पूँजीवादी व्यवस्था स्वयं सन्तुलित (self-adjustig) नहीं होती और समर्थ माँग को दिया हुआ मानकर नहीं चला जा सकता। यदि अर्थव्यवस्था की प्रगति को निरन्तर कायम रखना है तो अनुत्पादक उपभोग को बढ़ाने का कोई मार्ग खोजना होगा।”

  1. पूर्ति लगभग स्थिर होती है, जबकि मांग परिवर्तनशील- माल्थस ने बताया है कि किसी वस्तु की मात्रा, जो एक बार उत्पन्न कर दी जाती है, घटाई या बढ़ाई नहीं जा सकती, अर्थात्, पूँजी लगभग स्थिर (fixed) होती है। इसके विपरीत, समर्थ माँग परिवर्तनशील है। माल्थस के अनुसार समर्थ माँग (effective demand) उस कीमत पर वस्तु की माँग है जो उत्पादकों और निर्माताओं की लागत और लाभ दोनों को पूरा कर सके । अर्थव्यवस्था तब ही चालू रह सकेगी और उसमें असन्तुलन की समस्या तब तक उदय न होगी जब तक कि समर्थ माँग इतनी ऊँची रहे कि निरन्तर चढ़ती हुई पूर्ति को खपा सके।
  2. आय के साथ उपभोग और संचय बढ़ते हैं, उपभोग कम और संचय अधिक- माल्थस ने कहा है कि लोग या तो आय का उपभोग करते हैं (अर्थात् आवश्यकतायें पूरी करने के लिए उपभोग वस्तुयें व सेवायें खरीदने में व्यय करते हैं) अथवा उसका संचय कर लेते हैं। [इस बात का समर्थन केन्ज के निम्न सूत्र द्वारा होता है-C (उपभोग) + S (संचय) = Y (आय)], समृद्धि के समय प्रायः सभी व्यक्तियों की आय बढ़ती है और आय बढ़ने पर उपभोग और संचय भी बढ़ते हैं। [माल्थस के इस विचार का समर्थन केन्ज ने अपनी पुस्तक Essays in Biography

में किया है। वह लिखते हैं कि माल्थस जानते थे कि संचय की सीमान्त क्षमता (Marginal Propensity to Save) इकाई से कम होती है। तब ही तो वह कह सके कि आय के साथ बचत एवं उपभोग दोनों बढ़ते हैं।]

परन्तु पूँजीवादी समाज के आय का वितरण असमान होता है। निर्धनों की संख्या बहुत अधिक होती है, जबकि धनिक गिने-चुने। नई बढ़ी हुई आय का भी एक बड़ा हिस्सा धनिकों के पास पहुंचता है। इस प्रकार धनिकों को यह सुविधा मिल जाती है कि आय के एक बड़े भाग का संचय कर लें, किन्तु निर्धन व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में पिछड़ जाता है। माल्थस के शब्दों में, “तोस अथवा चालीस पूँजीपति, जिनको वार्षिक आय एक हजार से लेकर पाँच हजार हो, आवश्यकताओं, सुविधाओं और विलासिताओं के लिये उस एक अकेले पूँजीपति को अपेक्षा, जिसकी आय एक लाख की हो, कहीं अधिक समर्थ मांग उत्पन्न करेंगे।”

केन्ज ने माल्थस के इस विचार से पूर्णरूपेण सहमति प्रकट की है और स्वीकार किया है कि धन का वितरण उपभोग और संचय दोनों को प्रभावित करता है।

जब धनिकों का संचय बढ़ता है, तब वे अधिक विनियोग करने लगते हैं। इससे एक ओर उत्पादन बढ़ने लगता है, किन्तु दूसरी ओर, अधिकांश जनता को आय बिल्कुल हो न बढ़ने या मामूली बढ़ने से उत्पादित वस्तुओं के लिये मांग आनुपातिक रूप से नहीं बढ़ती है। फलत: माँग कम रहने से अत्युत्पादन की समस्या पैदा हो जाती है।

  1. समर्थ माँग को बढ़ाने के दो उपाय अनुत्पादक उपभोग में वृद्धि और उत्पादक उपभोग में वृद्धि- अत्युत्पादन के संकट को दूर करने का उपाय यह है कि समर्थ माँग को बढ़ाया जाय। समर्थ माँग को बढ़ाने के लिये माल्थस दो उपाय प्रस्तुत करते हैं-(अ) उत्पादकों के उपभोग में वृद्धि करना और (ब) अनुत्पादकों के उपभोग में वृद्धि करना। जहाँ तक पहले सुझाव का प्रश्न है, पूंजीपतियों या उत्पादकों के उपभोग में वृद्धि करना सुगम नहीं है, क्योंकि ऐसा करना पूँजीपतियों की वास्तविक आदत के विरुद्ध है। ये तो हर समय अधिकाधिक धन संचय में लगे रहते हैं।

अत: दूसरा सुझाव ही सरल प्रतीत होता है। माल्थस के अनुसार, “बड़ी उत्पादन शक्ति वाले देश के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वहाँ अनुत्पादक उपभोक्ता हों।” उनका कहना है कि अत्युत्पादन की दशा में सरकार को अनुत्पादक उपभोक्ताओं पर अर्थात् उन व्यक्तियों पर व्यय करना चाहिए, जो कि उत्पादन में प्रत्यक्ष योग नहीं देते हैं। ऐसे व्यक्तियों के उपभोग द्वारा समर्थ माँग बढ़ जायेगी। इसी विचार से प्रेरणा लेकर लार्ड केन्ज ने मुद्रा विस्फीत (deflation) की अवधि में (जबकि मंदी और अत्युत्पादन की दशायें विद्यमान होती हैं) सरकारों को सार्वजनिक निर्माण कार्यों पर व्यय बढ़ाने का सुझाव दिया।

एक स्थान पर माल्थस ने सुझाव दिया है कि श्रमिकों के पुरस्कार में कटौती करके और बचाये हुए धन से बेकार श्रमिकों को काम प्रदान कर समस्या सुलझ सकती है। केन्ज माल्थस के इस विचार से असहमत हैं । यथार्थ में, हम यहाँ माल्थस को स्वयं अपनी ही बात का खण्डन करते हुए पाते हैं। उन्होंने हो यह बताया था कि श्रमिकों की आय कम होने से उनको उपभोग-शक्ति कम हो जाती है। किन्तु कटौती करने पर जब आय कम हो जायेगी, तब पहले की अपेक्षा और भी ज्यादा अधिक श्रमिक उपभोग की सामर्थ्य से वंचित हो जायेंगे और इस प्रकार समर्थ माँग घट जायेगी।

माल्थस के अत्युत्पादन सिद्धान्त का मूल्यांकन

(Evaluation of Malthusian Theory of Over-Production)

माल्थस पहले अर्थशास्त्री थे, जिन्होंने आर्थिक विकास के लिए अनुत्पादक उपभोग के महत्त्व को समझा। से के बाजार नियम को गलत सिद्ध करके उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में स्वयं चालकता का अभाव है और वह माँग और पूर्ति की स्वतन्त्र आर्थिक शक्तियों द्वारा पूर्ण रोजगार के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकती है। अन्य शब्दों में, उन्होंने उस समय प्रचलित निर्बाधावादी नीति के प्रति संदेह प्रकट किया तथा उपभोग की मात्रा (समर्थ माँग) को बढ़ाने के उद्देश्य से सरकार द्वारा सार्वजनिक कार्यों पर व्यय का सुझाव दिया। किन्तु वे पूँजीवादी के विरोधी कदापि न थे। तब ही तो पूँजीवाद के हित में उन्होंने स्पष्ट किया कि अनुत्पादक वर्ग (भू-स्वामी और राज्य कर्मचारी वर्ग) चाहे सामाजिक दृष्टि से हानिप्रद हो किन्तु आर्थिक दृष्टि से समाज के लिए उपयोगी है क्योंकि अपने अनुत्पादक उपयोग द्वारा वह कुल समर्थ माँग को ऊंचा बनाये रखता है।

माल्थसं का अत्युपादन सिद्धान्त केन्ज के रोजगार सिद्धान्त (Keyne’s Theory of Employment) का आधार है। केन्ज का उपभोग का मनोवैज्ञानिक नियम’ (Psychological Law of Consumption) इसी पर निर्भर है। धन के असमान वितरण का सुप्रभाव और सरकार द्वारा अनुत्पादक उपयोग बढ़ाने का सुझाव माल्थस के अन्य विचार हैं जिनके साथ केन्ज सहमत (agree) हुए। उनका Pump Priming’ का सिद्धान्त माल्थस के अनुत्पादक उपयोग को बढ़ाने के विचार का ही रूपान्तर है। किन्तु केन्ज माल्थस के इस विचार से सहमत नहीं थे कि कृषि के उत्पादन में पूर्ति स्वयं माँग पैदा कर लेती है और कि मजदूरी घटाने से रोजगार बढ़ेगा।

सन् 1939 में केन्ज का ग्रन्थ ‘जनरल थ्योरी’ प्रकाशित हुआ। तब से माल्थस का महत्व बहुत बढ़ गया है। केन्ज ने इस सिद्धान्त के सम्बन्ध में लिखा है-“यदि 19वीं शताब्दी के अर्थशास्त्र का विकास रिकार्डों के बजाय माल्थस के आधार पर होता, तो आज का संसार कहीं अधिक बुद्धिमान और सम्पन्न हुआ होता।”

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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