अर्थशास्त्र / Economics

पूँजी की सीमान्त क्षमता की अवधारणा | पूँजी की सीमान्त क्षमता की परिभाषा | पूँजी की सीमान्त क्षमता का अर्थ | पूँजी की सीमान्त क्षमता का स्वभाव | पूँजी की सीमान्त क्षमता को प्रभावित करने वाले तत्व

पूँजी की सीमान्त क्षमता की अवधारणा | पूँजी की सीमान्त क्षमता की परिभाषा | पूँजी की सीमान्त क्षमता का अर्थ | पूँजी की सीमान्त क्षमता का स्वभाव | पूँजी की सीमान्त क्षमता को प्रभावित करने वाले तत्व

पूँजी की सीमान्त क्षमता की अवधारणा

प्राक्कथन- विनियोग से कीन्स का अभिप्राय वास्तविक विनियोग से है न कि वित्तीय विनियोग से। वास्तविक विनियोग के अन्तर्गत नई पूँजीगत वस्तुओं का निर्माण आता है, जैसे- मशीनों व कारखानों का निर्माण। इसके विपरीत वित्तीय विनियोग से तात्पर्य प्रतिभूतियों, बाण्ड तथा ऋण-पत्रों आदि के क्रय करने से है। वास्तविक विनियोग रोजगार के नये अवसर उत्पन्न करता है और उत्पादन को बढ़ाता है, जबकि वित्तीय विनियोग उत्पादन और रोजगार में वृद्धि नहीं करता। कीन्स के अनुसार विनियोग की मात्रा दो बातों पर निर्भर करती है-(1) पूँजी की सीमान्त क्षमता; (2) ब्याज की दर। पूँजी का सीमान्त क्षमता ब्याज की दर से जितनी अधिक होगी, विनियोग करने के लिए उतनी ही अधिक प्रेरणा मिलेगी। अतः समाज में विनियोग में वृद्धि तभी हो सकती है जब पूँजी की सीमान्त क्षमता अधिक हो अथवा ब्याज की दर कम हो। यहाँ हम केवल पूँजी की सीमान्त क्षमता का ही अध्ययन करेंगे।

पूँजी की सीमान्त क्षमता की परिभाषा

प्रो० कीन्स के अनुसार, “किसी पूँजीगत सम्पत्ति से प्राप्त कुल आय को उस पूंजीगत परिसम्पत्ति के कुल प्रतिस्थापन कीमत के स्तर तक लाने के लिए जिस दर से कटौती करनी होगी उसे पूँजी की सीमान्त क्षमता कहा जा सकता है।”

पूँजी की सीमान्त क्षमता का अर्थ-

पूँजी की सीमान्त क्षमता से अभिप्राय नये पूँजी निवेश पर प्रत्याशित लाभ की दर से होता है। पूँजीगत परिसम्पत्ति की लागत से उसकी प्रत्याशित आगम सदर जितनी अधिक होती है, पूँजी की सीमान्त क्षमता उतनी ही अधिक होती है। पूँजी की सीमान्त क्षमता दो बातों से निर्धारित होती है-(1) पूँजी निवेश से उसके जीवन काल में प्राप्त होने पाली प्रत्याशित आगम की दर, (2) पूंजी निवेश की प्रतिस्थापन लागत (पूर्ति मूल्य)। पूंजी निवेश करने से पूर्व प्रत्येक व्यवसायी उससे प्राप्त होने वाले प्रत्याशित आगम और उसके पूर्ति मूल्य की तुलना करता है। यदि प्रत्याशित आगम की दर पूँजी परिसम्पत्ति की लागत से अधिक होती है तो वह विनियोग करता है अन्यथा नहीं। अत: पूँजी की सीमान्त क्षमता – प्रत्याशित आगम – पूँजी निवेश की लागत।

पूँजी की सीमान्त क्षमता निकालने का सूत्र-

SP = Q1/(1 + r) + Q2/

(1 + r)2   + Q3/(1 + r)3 …Qn/(1 + r)n

SP = पूर्ति मूल्य (Supply Price)

Q1, Q2, Q3 = प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय वर्ष में आय (Annual yields in various years)

r= पूँजी की सीमान्त क्षमता (M.E.C)

पूँजी की सीमान्त क्षमता का स्वभाव-

जब किसी औद्योगिक क्षेत्र में पूँजी निवेश की मात्रा में वृद्धि होती जाती है तो पूँजी की सीमान्त क्षमता गिरती जाती है। इसके सम्बन्ध में निम्नलिखित निष्कर्ष दे सकते हैं-

(a) यदि विनियोग से प्राप्य प्रत्याशित आय के अनुमान में वृद्धि आ जाय और सम्पत्ति की पूर्ति कीमत में कोई परिवर्तन न हो, तो पूँजी की सीमान्त बढ़ जायेगी

(b) यदि प्रत्याशित आय प्रवाह स्थिर रहे तो पूर्ति कीमत में कमी पूँजी की सीमान्त दक्षता बढ़ा देगा।

(c) बाजार ब्याज दर (1) में कमी पूँजी की सीमान्त क्षमता को प्रभावित नहीं करेगी पर यदि ब्याज दर में कमी के बाद पूँजी की सीमान्त क्षमता बाजार दर से अधिक हो जाती है तो सम्पत्ति का क्रय या विनियोजन ब्याज दर की गिरावट के बाद लाभ देय हो जायेगा।

(d) यदि आय प्रवाह में गिरावट हो, पूर्ति कीमत में वृद्धि तथा ब्याज दर में भी वृद्धि हो तो विनियोग को लाभ देयता में कमी होगी।

चत्र द्वारा स्पष्टीकरण- चित्र में MEC वक्र नीचे की ओर झुका हुआ है जो यह स्पष्ट करता है कि विनियोग में M1 M2 वृद्धि होने से पूँजी की सीमान्त क्षमता में R1 R2 गिरावट आती है।

विनियोग का साम्य बिन्दु- जिस बिन्दु पर ब्याज की दर तथा पूँजी की क्षमता दोनों बराबर हो जाते हैं उस बिन्दु पर साम्य की स्थिति होती है और पूँजी निवेश की मात्रा में वृद्धि करना समाप्त हो जाता है।

पूँजी की सीमान्त क्षमता को प्रभावित करने वाले तत्व-

पूंजी की सीमान्त क्षमता को प्रभावित  करने वाले तत्त्व निम्न प्रकार हैं-

(1) प्राविधिक उन्नति- यदि प्राविधिक कला में उन्नति हो जाये तो उत्पादन की दर तीव्र गति से बढ़ती है। अत: सीमान्त क्षमता बढ़ जाती है।

(2) रोजगार के नये अवसर- किसी क्षेत्र में बाढ़, भूकम्प अथवा अन्य कोई दैवी उत्पत्ति आ जाती है और उससे विनियोग के नये अवसर उत्पन्न हो जाते हैं तो पूँजी की सीमान्त क्षमता बढ़ जाती है।

(3) दीर्घकालीन सम्भावनाएँ- यदि साहसियों को दीर्घकाल में अधिक मात्रा में लाभ प्राप्त करने की आशा होती है तो वर्तमान में भी पूँजी की सीमान्त क्षमता बढ़ जाती है।

(4) माँग में परिवर्तन- माँग बढ़ सकती है अथवा घट सकती है। यदि माँग में वृद्धि हो जाती है तो वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं जिससे पूँजी की सीमान्त क्षमता भी बढ़ जाती है।

(5) कुल पूँजी निवेश की मात्रा- विभिन्न क्षेत्रों में प्रारम्भ में जो पूँजी लगायी जाती है उसकी मात्रा नई पूंजी की क्षमताओं को प्रभावित करती है।

(6) उपभोग प्रवृत्ति- उपभोग प्रवृत्ति के अधिक होने पर पूँजी की सीमान्त क्षमता भी बढ़ जाती है।

(7) जनसंख्या में वृद्धि- जनसंख्या में वृद्धि से उपभोग एवं निवेश वस्तुओं की माँग में वृद्धि होती है जिससे पूँजी की सीमान्त क्षमता बढ़ जाती है।

(8) आशावाद व निराशावाद- आशावादी दृष्टिकोण पूंजी की सीमान्त क्षमता को बढ़ाता है जबकि निराशावादी दृष्टिकोण पूँजी की सीमान्त क्षमता को घटाता है।

आलोचना

(i) हैजलिट्ट के अनुसार यह एक भ्रामक धारणा है।

(ii) कीन्स का यह विचार कि पूंजी की सीमान्त क्षमता पर भावी आशंकाओं का तो प्रभाव पड़ता है किन्तु ब्याज की दर पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता, गलत है।

(9) आय में परिवर्तन- पूँजी की सीमान्त क्षमता आय में अल्पकाल में होने वाले परिवर्तनों से प्रभावित होती है। आय में वृद्धि से पूँजी की सीमान्त क्षमता बढ़ेगी और घटने से पूँजी की सीमान्त क्षमता घटेगी।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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