समाजशास्त्रीय सिद्धांत की प्रकृति

समाजशास्त्रीय सिद्धांत की प्रकृति | समाजशास्त्रीय सिद्धांत की प्राकृति के संबंध में समाजशास्त्रियों के विचार | समाजशास्त्रीय सिद्धांत की प्रकृति एवं उपयोगिता | समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की प्रकृति का विश्लेषण

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समाजशास्त्रीय सिद्धांत की प्रकृति

मुख्यतः समाजशास्त्रीय सिद्धांत की प्रकृति यद्यपि वैज्ञानिक प्रकृति होती है किंतु इतना वैज्ञानिक नहीं जितनी कि प्राकृतिक विज्ञानों की होती है। अनेक कठिनाइयों, आपत्तियों तथा समस्याओं के होते हुये भी विद्वानों ने समाजशास्त्रीय सिद्धांत की प्रकृति पर विचार किया है और उसकी वास्तविक प्रकृति की और हमारा ध्यान केंद्रित किया है।

समाजशास्त्रीय सिद्धांत की प्राकृति के संबंध में समाजशास्त्रियों के विचार

(Views of Sociologist about the Nature of Sociological Theory)

मार्टिन्डेल के विचार से जब भी कोई नया विज्ञान जन्म लेता है तो उसे विद्यमान विषय- सामग्री को भी पुनर्व्यवस्थित करना पड़ता है। मानवीय व्यवहार से संबंधित ज्ञान का संचय अनेक विद्वानों द्वारा हुआ है। मानव समाज में कुछ रहस्यात्मक और अज्ञात  शक्तियों की  कल्पनाओं की व्याख्या धर्म और जादू के माध्यम से की जाती है। दर्शन, अर्थशास्त्र, न्यायशास्त्र, मानवशास्त्र, इतिहास, धर्म, लोक मान्यतायें, प्राकृतिक और जैविकीय विज्ञान इत्यादि सभी ने समाजशास्त्रीय सिद्धांत को प्रभावित किया है।

(1) लगभग एक शताब्दी पुराना समाजशास्त्रीय सिद्धांत आज काफी विकसित होते हुये भी परिपक्व विज्ञान नहीं कहा जा सकता। समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है। समाज एक व्यापक अवधारणा है जिसके क्षेत्र का परिसीमन करना आज भी कठिन है। अतः समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र के संबंध में निरंतर बदलती हुई धारणा के फलस्वरूप समाजशास्त्रीय सिद्धांत की प्रकृति एक सामान्य विज्ञान के रूप में ही स्वीकार की गई थी, किंतु मार्टिन्डेल के विचार से वह धीरे-धीरे विशिष्ट विज्ञान का रूप लेता जा रहा है। कॉम्टे (Comte) के युग में समाजशास्त्रीय सिद्धांत संपूर्ण सामाजिक विज्ञानों के क्षेत्र पर अपना अधिकार मानता था। धीरे-धीरे समाजशाल ने अर्थशास्त्र, मानवशास्त्र, समाजदर्शन, इतिहास, मनोविज्ञान आदि से संबंध विच्छेद करके, इन विज्ञानों के द्वारा अध्ययन की जाने वाली सामग्री का उपयोग करते हुये अपने विशिष्ट स्वरूप को प्राप्त किया है। समाजशास्त्र की विशिष्टता के साथ-साथ समाजशास्त्रीय सिद्धांत की विशिष्ट प्रकृति भी स्पष्ट हुई है।

(2) मानव व्यवहार से संबंधित सिद्धांतों में प्रायः ऐसे कथनों का समावेश कर दिया जाता है जिनकी स्पष्ट परिभाषा नहीं होती। इनमें अस्पष्ट अवधारणाओं की भी बहुलता होती है। वास्तविकता यह है कि भौतिक विज्ञानों की परिपक्व औपचारिक शोध-प्रक्रियाओं और मूल्यांकन के मापदंडों का स्वरूप समाजशास्त्र में कठिन होता है। समाजशास्त्र में ऐसी सर्वसम्मत विधियां नहीं है, जो अवधारणाओं की परिभाषाओं और मान्यताओं से संबंधित विवादों का निपटारा करने में समर्थ हों। इसी कारण अनेक विद्वानों का कथन है कि भावात्मक और विस्तृत सिद्धांतों के निर्माण पर समाजशास्त्रियों को अपनी शक्ति का अपव्यय नहीं करना चाहिये। उनके विचार से समाजशास्त्रीय सिद्धांतों की प्रकृति ऐसी होनी चाहिये कि वे निष्कर्षो का प्रतिपादन और व्याख्या कर सकें। इन्हें क्लेरेंस श्रैग ने भ्रूण या अपरिपक्व सिद्धांत की संज्ञा दी है जिनका मुख्य उद्देश्य विशिष्ट शोध निष्कर्षों का संगठन करना और भावी अनुसंधान के क्षेत्रों पर प्रकाश डालना है।

(3) मार्टिन्डेल (Martindale) ने सिद्धांत की उपमा प्रकाश से दी है जिसका काम प्रकाशित करना है। सिद्धांत ऐसे तथ्यों को उद्घाटित कर सकता है जिसकी पहले कभी कल्पना नहीं की गई थी। सत्य का उद्घाटन ऐसी समस्याओं की खोज कर सकता है जिसका समाधान सिद्धांत की परिधि और सामर्थ्य में नहीं होता। समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की प्रकृति बहुमुखी रही है। जिन विज्ञानों के सम्पर्क और सहायता का लाभ उठाकर विभिन्न कालखंडों में समाजशास्त्रीय सिद्धांतों की रचना हुई है उन विज्ञानों की प्रकृति की छाया समाजशास्त्र पर भी पड़ी है और जैसे-जैसे समाजशास्त्र विज्ञान के रूप में अपना स्वतंत्र अस्तित्व प्राप्त करता गया वैसे-वैसे उसकी अपनी विशिष्ट प्रकृति भी स्पष्ट होती गई। समाजशास्त्रीय सिद्धांतों की रचना में प्रत्यक्षवादी दृष्टिकोण का भी योगदान रहा है और संगठनवादी तथा संघर्षवादी दृष्टिकोण का भी। व्यवहारवाद ने भी समाजशासीय सिद्धांतों की प्रकृति को प्रभावित किया है और विकासवाद, भूगोलवाद इत्यादि ने भी अपने विकास काल में इन सभी दृष्टिकोणों का प्रभाव स्वीकार करते हुये आधुनिक युग में समाजशास्त्रीय सिद्धांत की प्रकृति समन्वयात्मक दृष्टिकोण की दिशा में अग्रसर होती हुई प्रतीत होती है। समाजशास्त्रीय सिद्धांत अधिकाधिक वैज्ञानिकता प्राप्त कर रहा है।

(4) कोहेन (Cohen) ने अपनी कृति ‘आधुनिक समाजशास्त्रीय सिद्धांत’ में समाजशास्त्रीय सिद्धांत की प्रकृति पर समीक्षात्मक विचार प्रस्तुत किये हैं। उसने समाजशास्त्रीय सिद्धांत की कुछ ऐसी विशेषताओं की चर्चा की है जिनके कारण वे वैज्ञानिक आदर्श को प्राप्त करने में असमर्थ हैं, प्रथम विशेषता तो यह है कि समाजशास्त्रीय सिद्धांतों में से कुछ तो विश्लेषणात्मक हैं जिनकी तथ्यात्मक परीक्षा नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिये एक समाजशास्त्रीय सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि सामाजिक व्यवस्थाओं के विभिन्न अंग परस्पर निर्भर होते हैं। इस कथन को स्वतः सिद्ध समझा जाता है जिसका परीक्षण कठिन होता है। समाजशास्त्रीय सिद्धांत की परीक्षा में दूसरी कठिनाई यह है कि ये सिद्धांत न तो सार्वभौमिक निष्कर्ष हैं और न तथ्यात्मक कथन हैं। एक अन्य समाजशास्त्रीय सिद्धांत के अनुसार सामाजिक व्यवस्था सामान्य मूल्यों पर निर्भर करती है। यह कथन सार्वभौमिक सत्य प्रतीत होता है परंतु ऐसी सामाजिक व्यवस्था भी हो सकती है जो केवल शक्ति के आधार पर चल रही हो, चाहे वह कुछ समय के लिये ही चले। इस प्रकार सार्वभौमिकता और तथ्यात्मकता का अभाव समाजशास्त्रीय सिद्धांतों की दूसरी विशेषता है जिसके कारण इन सिद्धांतों को वैज्ञानिक आदर्श प्राप्त करना कठिन होता है। समाजशास्त्रीय सिद्धांत की तीसरी विशेषता यह है कि जिसके कारण उनकी परीक्षा संभव नहीं होती, अनिश्चित और अस्पष्ट पूर्वानुमान है। ये सिद्धांत निश्चित पूर्वानुमान नहीं कर पाते।

(5) विश्लेषणात्मक प्रकृति, सार्वभौमिकता और तथ्यात्मकता का अभाव तथा अनिश्चित पूर्वानुमान के कारण समाजशास्त्रीय सिद्धांतों की प्रकृति पूर्णरूप से वैज्ञानिक नहीं रह पाती किंतु सभी समाजशास्त्रीय सिद्धांत, कोहेन के विचार से उपर्युक्त दोषयुक्त नहीं हैं। कुछ सिद्धांत उचित और परीक्षा के योग्य हैं। उदाहरण के लिये इस सिद्धांत की परीक्षा की जा सकती है कि औद्योगिक समाजों में सामाजिक गतिशीलता की मात्रा औद्योगीकरण के विकास की मात्रा के साथ बढ़ती है। कोहेन के विचार से भावात्मक समाजशास्त्रीय सिद्धांत अधिक सही होते हैं। वे समस्याओं तथा उनके समाधान की ओर संकेत करके विज्ञान के विकास को प्रभावित करते हैं। प्राकृतिक विज्ञानों के भावात्मक सिद्धान्त  उतने सत्य नहीं होते क्योंकि सामाजिक जीवन में अधिक भाग लेने के कारण मनुष्य सामाजिक वास्तविकताओं के विषयों में अधिक सही अनुमान कर लेता है। इसके अतिरिक्त सामाजिक जीवन की सहभागिता मनुष्य को सामाजिक वास्तविकता के विषय में कुछ विचार बनाने के लिये प्रेरित करती है। समाजशास्त्रीय भावात्मक सिद्धांतों की उपयुक्तता इस कारण भी अधिक होती है क्योंकि सामाजिक वास्तविकता स्वयं मनुष्य के विचारों से प्रभावित होती है।

(6) रेक्स (Rex) ने समाजशास्त्रीय सिद्धांतों की वैज्ञानिक प्रकृति पर तर्कपूर्ण विचार प्रकट किये हैं, उनके विचार से वैज्ञानिक अनुसंधान की दृष्टि से समाजशास्त्र में तीन प्रकार के ‘मॉडल’ प्रचलित हैं। इनमें से एक तो तथ्यात्मकता को वैज्ञानिकता का आधार मानता है, दूसरा नियमों को विज्ञान मानता है तथा तीसरे के अनुसार विज्ञान का संबंध कार्य-कारण संबंधों की स्थापना से है।

(7) तथ्यात्मकता तथा अनुभव सिद्धांत को विज्ञान का आधार मानने वाले विद्वान आगमन विधि के द्वारा समाजशास्त्रीय सिद्धांतों की खोजें करते हैं अथवा जीवशास्त्रियों का अनुसरण करते हुये प्रत्यक्ष अवलोकन के आधार पर प्राप्त सामाजिक तथ्यों का वर्गीकरण करते हैं। वैज्ञानिकता के इस आदर्श को समाजशास्त्र में अपनाने वाला प्रमुख विद्वान इमाइल दुर्खीम है जिसने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘समाजशास्त्रीय पद्धति के नियम’ में वैज्ञानिक प्रक्रिया के पाँच चरण बताये हैं जिन्हें उसने समाजशास्त्रीय सिद्धांतों की वैज्ञानिकता का आधार बताया है। इसमें प्रत्यक्ष अवलोकन के प्रति विशेषताओं के वर्गीकरण और तुलना के आधार पर वैज्ञानिक निष्कर्ष निकाले जाते हैं। दुखम के अनुसार विज्ञान का मौलिक लक्षण यह है कि पहले तथ्यों का संकलन किया जाये और उसके आधार पर सिद्धांतों का निर्माण किया जाये। रेक्स के विचार में दुर्खीम की पद्धति कृत्रिमतापूर्ण है।

(8) कॉम्टे ने वैज्ञानिक समाजशास्त्र का मुख्य उद्देश्य नियमों की खोज करना बताया है। समाजशास्त्रीय नियमों की खोज का आधार प्रत्यक्ष अवलोकन है। उसने भी नियमों की खोज के लिये आगमन पद्धति के प्रयोग को विज्ञान का लक्षण बताया है। रैक्स के विचार में समाजशास्त्रीय सिद्धांतों को अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता है। उनका परीक्षण आवश्यक है क्योंकि वैज्ञानिक नियम सदैव परीक्षण योग्य होते हैं। इनका अर्थ है कि जिस नियम में संशोधन करने की संभावना नहीं रहती वह नियम वैज्ञानिक नहीं होता। सामाजिक तथ्य अधिक परिवर्तनशील होते हैं अतः समाजशास्त्रीय सिद्धांत किसी विशेष संस्कृति के साथ सापेक्ष होते हैं। इस आधार पर अनेक लोग समाजशास्त्रीय सिद्धांतों की वैज्ञानिकता पर संदेह करते हैं और उन्हें सार्वभौमिक उपयोग के योग्य नहीं मानते। रैक्स के विचार में वास्तविक कठिनाई समाजशास्त्रीय सिद्धांतों का परीक्षण करने के लिये प्रयोगात्मक परिस्थितियों के निर्माण की है।

(9) कुछ विद्वान समाजशास्त्रीय सिद्धांतों की वैज्ञानिकता का आधार ‘कारणत्व की खोज को मानते हैं। दुखभ और वेबर दोनों का मत है कि समाजशास्त्र का कार्य सामाजिक घटनाओं के कारणों की व्याख्या करना है। सामाजिक घटनायें निश्चित कारणों का परिणाम होती हैं। इस प्रकार समाजशास्त्रीय सिद्धांतों की प्रकृति वैज्ञानिक है क्योंकि उनके द्वारा विशिष्ट कारकों की उपस्थित से विशिष्ट घटनाओं का पूर्वानुमान किया जा सकता है। इस प्रकार रेक्स के विचार में वर्गीकरण व्याख्या, आगमन, तथ्यात्मक विश्लेषण तथा कार्य के कारण, खोज के आधार पर समाजशास्त्रीय सिद्धांतों का निर्माण होने के कारण उनकी प्रकृति वैज्ञानिक है। रेक्स का मत है कि समाजशास्त्रीय सिद्धांतों की वैज्ञानिकता के लिये यह आवश्यक है कि आगमन पद्धति, सिद्धांतों के आधार पर तथ्यों की व्याख्या और सामाजिक जीवन के संपूर्णता का विचार, इन तीनों का समन्वय किया जाये।

(10) अंत में यह कहना पर्याप्त होगा कि समाजशास्त्रीय सिद्धांतों का निर्माण वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करने के उपरांत किया जाता है। समाजशास्त्रीय सिद्धांतों की निर्मित उन सामान्य नियमों और पद्धतिशास्त्रीय व्यवस्थाओं के आधार पर होती है जो प्रत्येक वैज्ञानिक अध्ययन के मूल में स्थित है। समाजशास्त्रीय सिद्धांतों में सामाजिक घटनाओं का तथ्यात्मक विश्लेषण और कारणत्व का विचार निहित है। समाजशास्त्रीय सिद्धांतों की स्थापना वैषाषिक खोज के आधार पर होती है। इन विशेषताओं के कारण समाजशास्त्रीय सिद्धांत की प्रकृति भावात्मक और विश्लेषणात्मक होते हुये भी वैज्ञानिक है।

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