उत्तर वैदिक काल की राजनीतिक स्थिति | उत्तर वैदिक काल की राजनीतिक दशा
उत्तर वैदिक काल की राजनीतिक स्थिति | उत्तर वैदिक काल की राजनीतिक दशा
राजनीतिक दशा (Political Conditions)
उत्तर वैदिक काल की राजनीतिक स्थिति का विवेचन निम्न प्रमुख बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है। यथा-
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शासन सत्ता का विस्तार-
ऋग्वैदिक काल में आर्यो की शासन सत्ता केवल सप्तसिन्धु प्रदेश तक ही सीमित थी। उत्तर वैदिक काल में आर्यो का फैलाव गंगा-यमुना क्षेत्रों एवं दक्षिण में भी हो गया था। कुरुक्षेत्र अब उनकी शासन सत्ता का केन्द्र था।
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राजा के अधिकारों में वृद्धि-
उत्तर वैदिक काल में राजा पहले की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली हो गये। राजा के अधिकार बहुत बढ़ गये थे। अब छोटे राजाओं का स्थान बड़े सम्राटों ने ले लिया था। इस समय राजा लोग “अधिराज,” “राजाधिराज,” “सम्राट” आदि उपाधियाँ धारण करते थे। बड़े-बड़े राजा “अश्वमेध यज्ञ” तथा ”राजसूय यज्ञ” भी करते थे। इस युग के राजा बड़ी धूम-धाम से अपना राज्याभिषेक करते थे। इस अवसर पर राजसूय यज्ञ का आयोजन किया जाता था।
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राजा निरंकुश नहीं होता था-
उतना होते हुए भी उत्तर-वैदिक कालीन राजा निरंकुश नहीं थे। राजा के ऊपर कई प्रतिबन्ध तथा नियन्त्रण थे। राजा को प्रजा की इच्छानुसार कार्य करना पड़ता था। क्रूर एवं अत्याचारी राजा को गद्दी से हटाया जा सकता है। अतः शक्तिशाली होते हुए भी उत्तर-वैदिक कालीन राजा निरकुंश नही थे। अभी राजा के निर्वाचन का सिद्धान्त नष्ट नहीं हुआ था। उसे राज्यभिषेक के समय प्रजा की भलाई करने की शपथ लेनी पड़ती थी।
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राज्य-
उत्तर वैदिक काल में राजतन्त्रीय शासन व्यवस्था काफी लोकप्रिय थी। कहीं- कहीं पर गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। इस युग में कई प्रकार के राज्यों-साम्राज्य, स्वराज्य, महाराज्य, वैराज्य, भोज्य आदि का उदय हुआ। “स्वराज्य’ तथा ‘भोज्य” छोटे राज्य थे तथा अधीन राज्यों के सूचक थे। “महाराज्य” और “साम्राज्य’ शक्तिशाली एवं स्वतन्त्र राज्य होते थे। ‘वैराज्य’ वह राज्य था जहाँ राजा नहीं होता था। इस युग में कुरु, पंचाल, कलिंग, विदेह, काशी, कौशल आदि बड़े-बड़े शक्तिशाली राज्यों की स्थापना हुई।
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राज्य के कार्य-
उत्तर वैदिककालीन राजाओं के प्रमुख कार्य निम्नलिखित थे-
(i) बाह्म आक्रमणों से राज्य और प्रजा की रक्षा करना,
(ii) युद्ध के समय सेना का संचालन करना,
(iii) न्याय करना तथा अपराधियों को दण्डित करना,
(iv) प्रजा की नैतिक तथा भौतिक उन्नति के लिए प्रयल करना,
(v) दुर्बल तथा असहायों की रक्षा करना, दुष्टों का दमन करना एवं धर्म की रक्षा करना।
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प्रमुख अधिकारी-
उत्तर वैदिक काल में बड़े-बड़े राज्यों के निर्माण से शासन सम्बन्धी कार्य भी बढ़ गये। इसलिये राज्य के प्रमुख अधिकारियों की संख्या में वृद्धि हुई। “शतपथ’ ब्राह्मण में 11 प्रमुख अधिकारियों का उल्लेख मिलता है जो इस प्रकार हैं – (1) सेनानी, (2) पुरोहित, (3) ग्रामणी,(4) युवराज, (5) महिषी, (6) सूत, (राजा का सारथी), (7) क्षता (प्रतिहारी), (8) संगृहीत (कोषाध्यक्ष) , (9) भागदुध (कर वसूल करने वाला अधिकारी), (10) अक्षवाप (जुआ विभाग का अधिकारी), (11) पालागत (राजा का मित्र)। राज्य के इन पदाधाकिरियों को “रलिन” कहा जाता है। ये सभी अधिकारी राजा के प्रति उत्तरदायी होते थे।
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सभा और समिति-
उत्तरकाल में भी सभा तथा समिति नामक दो संस्थायें विद्यमान थीं। अथर्ववेद में इन्हें प्रजापति की पुत्रियाँ कहा जाता है। अथर्ववेद से ज्ञात होता है कि सभा एक ग्राम संस्था थी और ग्राम के स्थानीय कार्यों की देखभाल करती थी। समिति राज्य की केन्द्रीय संस्था थी जिसमें सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक विषयों पर विचार-विमर्श किया जाता था। इस समय सभा तथा समिति के अधिकार तथा शक्तियाँ सीमित हो गयी थीं। इसका मुख्य कारण राजा के अधिकारों में वृद्धि होना था।
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युद्ध पद्धति-
इस युग में युद्ध विधि और अस्त्र-शस्त्र में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया, परन्तु अब आर्यों के पारस्परिक युद्ध बहुत अधिक बढ़ गये थे। ऋग्वैदिक काल में प्रायः नदी के तटों पर युद्ध लड़े जाते थे, परन्तु अब विभिन्न स्थानों पर प्रतिद्वन्द्वी सेनायें एक- दूसरे पर टूट पड़ती थी। इस युग में भी युद्ध विजय प्राप्त करने के लिए छल-कपट का सहारा नहीं लिया जाता था। इस युग में शरण में आये हुए शत्रु का वध नहीं किया जाता था और निहत्थे एवं असहाय लोगों पर हमला नहीं किया जाता था।
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न्याय व्यवस्था-
उत्तर वैदिक काल में राजा के न्याय सम्बन्धी अधिकार बढ़ गये थे। राजा का मुख्य कर्तव्य अपराधियों को दण्ड देना था। न्याय प्रदान करने के लिए राजा न्यायाधीशों की नियुक्ति करता था। अपराधियों को विभिन्न प्रकार के दण्ड दिये जाते थे जैसे-शारीरिक दण्ड देना, जुर्माना करना, देश से निर्वसित कर देना आदि। कानून सब लोगों के लिए समान धा। परन्तु दण्ड देते समय अपराधी की स्थिति को ध्यान में रखा जाता था। शायद ब्राह्मणों को कुछ सुविधायें दी गई थीं।
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राज्य की आय–
राजा को प्रजा से कर एवं बलि (ग्राम की आय का भाग) लेने का अधिकार था। कर वसूल करने के लिए भागदुध नामक अधिकारी नियुक्त किये जाते थे। राज कर अन्न और पशुओं के रूप में दिया जाता था। आय का 16 वाँ भाग राजा को मिलता था। भूमि कर तथा व्यापार कर आय के प्रमुख साधन थे।
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