इतिहास / History

उत्तर वैदिक काल की धार्मिक स्थिति | उत्तर वैदिक काल की धार्मिक दशा | उत्तर वैदिक काल की आर्थिक दशा | उत्तर वैदिक काल की आर्थिक स्थिति

उत्तर वैदिक काल की धार्मिक स्थिति | उत्तर वैदिक काल की धार्मिक दशा | उत्तर वैदिक काल की आर्थिक दशा | उत्तर वैदिक काल की आर्थिक स्थिति

उत्तर वैदिक काल की धार्मिक स्थिति

धार्मिक दशा (Religious Conditions)

वैदिक काल की धार्मिक स्थिति का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है। यथा

  1. बहुदेववाद-

पूर्व-वैदिक काल में प्रकृति की उपासनी होती थी। अनेक प्रकृति देवताओं की कल्पना कर यज्ञ, हवन आदि द्वारा उन्हें प्रसन्न किया जाता था। उत्तर-वैदिक काल में ऋग्वेद काल के कुछ देवताओं की प्रतिष्ठा बढ़ गयी थी और कुछ की घट गई थी। इस युग में इन्द्र, वरुण, सूर्य, अग्नि आदि की प्रधानता समाप्त हो गई और उनके स्थान पर प्रजापति, विष्णु तथा रुद्र (शिव) की प्रधानता स्थापित हुई। प्रजापति को यज्ञों का स्वामी मानकर आर्योक्षने उसकी पूजा करना प्रारम्भ कर दिया। रुद्र ‘शिव” के रूप में प्रतिष्ठित हो गया और सबसे महान् तथा शक्तिशाली देवता समझा जाने लगा। विष्णु को भी महत्वपूर्ण देवता माना जाने लगा। विष्णु प्रधान यज्ञ-पुरुष में प्रतिष्ठित हुए।

  1. यज्ञ और कर्म-काण्ड-

उत्तर वैदिक काल में यज्ञों और कर्मकाण्डों पर अधिक बल दिया गया। कुछ यज्ञ तो ऐसे थे जो महीनों, वर्षों तक चलते रहते थे। यज्ञों के लिए अब बहुत से पुरोहितों तथा अधिक सामग्री की आवएकता पड़ने लगी। यज्ञ कराने वाले पुरोहितों की संख्या बढ़ती हुई 17 तक पहुँच गई। यज्ञों में अनेक पशुओं की बलि दी जाने लगी। यज्ञों के कारण ब्राह्मणों के प्रभुत्व तथा प्रतिष्ठा में बहुत अधिक वृद्धि यज्ञों और कर्मकाण्डों के कारण उत्तर वैदिक कालीन आर्यों का धार्मिक जीवन काफी जटिल हो गया था। डॉ० राजबली पाण्डेय का कथन है कि “सारा कर्मकाण्ड एक बाहरी आडम्बर का रूप धारण कर रहा था और उसके विस्तार के नीचे धर्म की आत्मा-दब सी गई थी।”

  1. मन्त्रों के महत्व में वृद्धि-

उत्तर वैदिक काल में मन्त्रों का महत्व बढ़ गया। अब आर्य लोग मन्त्रों द्वारा देवताओं को अपने वशीभूत करने का प्रयास करने लगे। अतः इस युग की उपासना आत्मसमर्पण की न होकर मन्त्र-प्रधान हो गई। चूँकि इस युग में वैदिक मन्त्रों का महत्व बढ़ गया था, अतः इस युग को वेदवादकाल  युग कहा जा सकता है।

  1. पंच महायज्ञ तथा तीन ऋण –

उत्तर वैदिक काल में पांच महायज्ञों का महत्व भी बढ़  गया। ये पंच महायज्ञ थे (1) ब्रम्हायज्ञ (विद्वानों व धर्मात्मा व्यक्तियों की सेवा), (2) देवयज्ञ (देवताओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए), (3) पितृयज्ञ (पितरों का श्राद्ध या गुरुजनों की सेवा), (4) अतिथि या मनुष्य यज्ञ (अतिथियों की सेवा) तथा (5) भूतयज्ञ (पशु-पक्षियों को दिया जाने वाला भोजन)। इन यज्ञों के सिद्धान्त में यह बतलाया गया है कि समाज और संस्कृति के प्रति भी मनुष्य के फरव्य है जिनको पूरा करना उसका धर्म है।

उत्तर वैदिक काल में तीष प्राणों की कल्पना की गई। ये तीन ऋण थे – (1) पितृ ऋण (पूर्वजों के प्रति कर्तव्य), (2) ऋषि प्राण (विद्या, साहित्य के प्रति कर्तव्य) तथा (3) देव ऋण (देवताओं के प्रति दायित्व)।

  1. तप-

उत्तर वैदिक काल में तप का भी काफी महत्व था। ऐसा माना जाने लगा कि शरीर को कष्ट देकर ही मन पर नियन्त्रण स्थापित किया जा सकता है। अतः शरीर को विभिन्न प्रकार के कष्ट के लिये दिये जाने लगे। “तैत्तिरीय उपनिषद” में कहा गया है कि “तप से ब्रह्म को जानो क्योंकि तप ही ब्रम्हा है।”

  1. संस्कार-

उत्तर-चैदिक काल में संस्कारों का भी पर्याप्त महत्व था। संस्कारों से मनुष्य का शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक, चारित्रिक एवं व्यक्तित्व का विकास सम्भव था। मुख्य संस्कार निम्नलिखित थे-

(1) गर्भाधान संस्कार – सन्तानोत्पत्ति के लिए।

(2) पुंसवन संस्कार – पुत्र-प्राप्ति के लिए।

(3) सीमन्तोन्नयन संस्कार – गर्भ की रक्षा के लिए।

(4) जातकर्म संस्कार – सन्तान के उत्पन्न होने पर।

(5) नामकरण संस्कार – सन्तान का नाम रखने के लिए।

(6) निष्क्रमण संस्कार – शिशु को घर से बाहर निकालने के लिए।

(7) अन्नप्राशन संस्कार – सन्तान को अन्न देना प्रारम्भ करने के समय।

(8) चूडाकर्म संस्कार – सन्तान के बाल काटने के समय।

(9) कर्णवेध संस्कार – शिशु के कान बींधने के समय ।

(10) विद्यारंभ संस्कार – शिशु को अक्षर ज्ञान कराने के लिए।

(11) उपनयन संस्कार – यज्ञोपवीत धारण करने के लिए।

(12) वेदारंभ संस्कार – वेदों का अध्ययन आरम्भ करने के लिए।

(13) केशान्त संस्कार।

(14) समापवर्तन संस्कार – शिक्षा की समाप्ति पर।

(15) विवाह संस्कार — गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिए।

(16) अंत्येष्टि संस्कार!

  1. उच्च कोटि के दार्शनिक विचार-

उत्तर वैदिक काल में उपनिषदों की रचना हुई जिनमें उच्चकोटि के दार्शनिक विचार हैं उपनिषदों में ब्रम्हा, आत्मा, मोक्ष, सृष्टि की रचना, कर्म और पुनर्जन्म उत्पत्ति से सम्बन्धित दार्शनिक सिद्धान्तों का विवेचन मिलता है। उपनिषदों के अनुसार आत्मा जीवन का मूल तत्व है और यह अजर तथा अमर है, ब्रम्हा सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी है। ब्रम्हा ही सृष्टि का रचयिता है। आत्मा ब्रम्हा की ही ज्योति है और उससे भिन्न नहीं है। ब्रम्हा  को जानना ही जीवन का उद्देश्य है। उपनिषदों के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति ही मनुष्य के जीवन का मुख्य ध्येय है और आत्म तत्व को पहचानने से ही मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। उपनिषदों ने ज्ञान मार्ग और नैतिक आचरण पर बल दिया है। उपनिषदों में कर्मकाण्डों को अत्यन्त गौण स्थान दिया गया है। उपनिषदों में कहा गया है कि वे लोग वे लोग मूर्ख हैं जो यह सोचते हैं कि केवल यज्ञों के द्वारा संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। उपनिषदों में कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त का विवेचन भी किया गया है। इसके अनुसार मनुष्य जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि हिन्दू धर्म, दर्शन, और विचारों का निर्माण मुख्यतया उत्तर वैदिक काल में हुआ।

उत्तर वैदिक काल की आर्थिक दशा (Econimic Condition)

उत्तर वैदिक काल की आर्थिक स्थिति का विवेचन निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया है-

  1. कृषि–

उत्तर-वैदिक काल में भी आर्यों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। कृषि के लिए हल और बैल का प्रयोग किया जाता था। गेहूँ, जौ, चावल, उड़द, मूंग, तिल, मसूर, आदि की खेती की जाती थी। उपज बढ़ाने के लिए खाद का प्रयोग किया जाता था। सिंचाई के लिए वर्षा और कुओं के जल के अतिरिक्त नहरों के पानी का भी उपयोग किया जाता था। वर्ष में दो फसलें होती थीं।

  1. पशुपालन-

पशुपालन भी आर्यों का महत्वपूर्ण व्यवसाय था। गाय, बैल, भैंस, भेड़-बकरी, घोड़े, कुत्ते आदि पशु पाले जाते थे। पालतू पशुओं में गाय का महत्व सबसे अधिक था। कृषि कार्य के लिए बैलों का और सामरिक दृष्टि से घोड़ों का पालन किया जाता था। माल को ढोने के लिए गधों और ऊँटों का भी प्रयोग किया जाता था।

  1. उद्योग धन्धे-

उत्तर वैदिक काल में अनेक उद्योग-धन्धों का विकास हुआ। इस युग में सुनार, लुहार, रथकार, चर्मकार, कुम्हार, गड़रिये, सारथी, कसाई, नाई, रसोइये, महावत, खटीक, रंगरेज, जुलाहे, धोबी, ज्योतिष, चिकित्सक, गायक आदि व्यवसायियों का वर्णन आता है। ये व्यवसाय उस समय काफी उन्नत थे। उत्तर वैदिक काल के लोग सोना, चाँदी, लोहा, टिन, ताँबा, सीसा आदि धातुओं से परिचित थे और इससे अनेक प्रकार के औजार, हथियार और आभूषण बनाते थे। इस युग में वस्त्र व्यवसाय भी उन्नत था। सूती और ऊनी कपड़ों का निर्माण किया जाता था।

  1. व्यापार–

उत्तर वैदिक काल में व्यापार का काफी विकास हुआ। विदेशी व्यापार एवं आन्तरिक व्यापार दोनों ही उन्नत थे। आर्य समुद्री यात्रायें करते थे। साधारणतया व्यापार वस्तु विनिमय के द्वारा होता था। इसके अतिरिक्त सिक्के भी प्रचलित थे। निष्क, शतमान आदि सिक्कों का प्रचलन था। व्यापारियों ने अपने ‘संघ” बना लिये थे। इससे व्यापार को काफी प्रोत्साहन मिला। ये संघ व्यवसायियों के व्यासायिक कार्यों की देखभाल करते थे और उनके हितों की रक्षा करते थे।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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