इतिहास / History

हेगल की आलोचना | राज्य के आदर्शवादी सिद्धान्त की आलोचना | हेगल का राज्य एक नए रूप में तिमिंगल है | Leviathan in Hindi

हेगल की आलोचना | राज्य के आदर्शवादी सिद्धान्त की आलोचना | हेगल का राज्य एक नए रूप में तिमिंगल है | Leviathan in Hindi

हेगल की आलोचना

महान् तार्किक हेगल की आलोचना अनेक आलोचकों तथा समीक्षकों ने निम्न आधारों पर की है-

(1) शोपनहॉवर ने कहा है कि हेगल का तर्क- रहस्यवादी तरीका-  जिसने ऊसर तथा विधिवत् तर्क का स्थान लिया, वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित नहीं था चाहे बड़े उच्च स्वर में उसे ऐसा घोषित किया गया था। हेगल के साथ ‘बेईमानी’ का युग आरम्भ हुआ। हेगल की प्रसिद्धि उन लोगों द्वारा स्थापित की गई थी जो कि वैज्ञानिक तरीके की कठिन तकनीक से कहीं अधिक वरीयता गम्भीर दार्शनिक रहस्यों में शीघ्रातिशीघ्र दीक्षा प्राप्त करने को देते थे। प्रो०ह्वेपर  ने भी कहा है कि द्वन्द्वात्मक पद्धति एक नया और अधिक सफल तर्क-विशेषकर अप्रत्यायक था। द्वन्द्वात्मक पद्धति की सुगम व्याख्या तथा अति-साधारणीकरण के दुरुपयोग किया जा सकता था। यह वैज्ञानिक रूप में परिशुद्ध नहीं हो सकता था। किसी भी ऐतिहासिक परिस्थिति की व्याख्या पक्ष, विपक्ष तथा समन्वय के प्रतिनिधि के रूप में की जा सकती थी, इसी विधि के द्वारा हेगल राज्य की पूजा करते थे जहाँ कि मार्क्स उसे शैतान कह कर दण्डित करते थे।

(2) जैसा कि केव्हीडन ने इशारा किया है हेगल के साथ ‘गैर-जिम्मेदारी’ का युग प्रारम्भ हुआ (मानसिक और नैतिक दोनों प्रकार की गैर-जिम्मेदारी)-आधुनिक सर्वाधिकार का युग प्रोफेसर जोड ने भी इशारा किया है कि हेगल का सिद्धान्त अयुक्ति-युक्त तथा तथ्यों के विपरीत है और अस्तित्व में आ हुए राज्यों को विदेश नीति के क्षेत्र में बहुत सारी घटिया क्रियाएँ करने की खतरनाक छूट को बढ़ावा देता है। राज्य का ‘पृथ्वी पर ईश्वर की गति’ के रूप में दिव्यीकरण आदर्शवाद के क्षेत्र में तो स्वीकृत हो सकता है, परन्तु पृथ्वी पर अस्तित्व में आए हुए राज्यों के वैज्ञानिक अध्ययन पर आधारित राजनैतिक सिद्धान्त का यह अंग नहीं हो सकता। हेगल की कल्पना के राज्य अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में गैर-जिम्मेदार होने पर बाध्य हैं।

(3) जैसा कि पोपर ने इशारा किया है, हेगल के साथ ऊँची आवाज वाले शब्दों के जादू से बँधा हुआ तथा विशिष्ट शब्दावली की शक्ति से लदे हुए युग का प्रारम्भ हुआ। उन दिनों परम्परा थी कि एक महान् दार्शनिक के रूप में मान्यता प्राप्त करने के लिये मनुष्य को एक अबोधगम्य भाषा का प्रयोग करना होता था। जैसा हम पहले कह आए हैं, हेगल ने ऐसी भाषा का प्रयोग किया है जिसे कुछ ही व्यक्ति समझ पाये हैं। प्रोफेसर पोपर के शब्दों में, “प्रश्न यह उठता है कि क्या वह साहस करके अपने आपको धोखा देने निकला था या अपनी ही अनुत्साहवर्धक विशिष्ट शब्दावली था या वह साहस करके दूसरों को धोखा देने और उन पर जादू करने के उद्देश्य से चला था। मुझे विश्वास है कि यह परवर्ती मामला था।” पोपर हेगल को प्रतिभाशाली नहीं मानता। वह उसे एक अबोधगम्य लेखक समझता है। उसके बड़े उत्साह पूर्ण समर्थक भी मानते हैं कि उसकी शैली ‘निर्विवाद रूप में आपत्तिजनक’ है।

(4) चाहे यह एक तथ्य है कि हेगल का प्रभाव नैतिक और सामाजिक दर्शन में तथा सामाजिक और राजनीतिक विज्ञानों में सबसे अधिक प्रबल शक्ति रहा है फिर भी यह असम्भव दीखता है कि ”हेगल प्रशियन राज्य की सत्ता की पुष्टि के बिना जर्मन दर्शन में इतना प्रभावशाली व्यक्ति न बन सकता था।” नैपोलियन के युद्धों से लेकर अपनी मृत्यु तक वह उस युग की प्रशियन सरकार का प्रथम सरकारी दार्शनिक और सलाहकार था। उसकी मृत्यु के बाद उसके शिष्यों को राजकीय संरक्षण दिया गया क्योंकि जर्मनी के विश्वविद्यालय 1919 तक राज्य के नियंत्रण में थे, जिस वर्ष में सबसे पहले वीमर के लोकतांत्रिक संविधान को लागू किया गया था। जर्मनी में परोपकारी तानाशाही थी। हेगल तथा उसके शिष्यों द्वारा जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया उन्हें दिव्य सत्य मान लिया गया।

(5) प्रोफेसर पोपर, आलोचना करता है कि जहाँ तक उसके लेखों के विषय का सम्बन्ध है उसकी बड़ाई विशेषकर मौलिकता की कमी में है। हेगल के लेखों में कुछ भी ऐसा नहीं है जो उससे पहले इससे भी अच्छे ढंग न कहा गया हो उसके पक्ष-समर्थक तरीकों में कोई ऐसी चीज नहीं है जो कि उसके पूर्ववर्ती पक्ष-समर्थकों से उधारी न ली गई हो। एक आलोचक के अनुसार, हेगल ने इन उधार लिये हुए विचारों और तरीकों को एकमात्र उद्देश्य के लिये प्रयोग किया , चाहे इसमें कोई प्रतिभा वाली बात न थी। उसका एकमात्र उद्देश्य खुले समाज के विरुद्ध संघर्ष करना और अपने स्वामी प्रशिया-नरेश फ्रेडरिक विलियम की सेवा करना था।

(6) जैसा कि पोपर ने शोपनहॉवर जैसे महान् दार्शनिक की गवाही पर कहा है हेगल का दर्शन परोक्ष उद्देश्य द्वारा अनुप्राणित था जैसे, फ्रैडरिक विलियम तृतीय की प्रशियन सरकार को पुनः स्थापित करने में उसकी रुचि । यद्यपि कान्ट ने स्वतंत्र विचारशीलता द्वारा दर्शन को फिर प्रतिष्ठा प्राप्त कराई थी। स्वार्थ सिद्धि का साधन मात्र बन गया, ऊपर से राज्य की स्वार्थ सिद्धि का और नीचे से निजी स्वार्थ सिद्धि का।” हेगल के युग में सरकारें दर्शन का प्रयोग अपने राजनीतिक स्वार्थों की सिद्धि के लिये करती थीं और विद्वानों ने इसे एक व्यापार बना रखा था। हेगल कमोबेश प्रशियन सरकार तनखाहदार दलाल था। समकालीन प्रशिया के राजा ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी थी कि सारी शिक्षा-दीक्षा राज्य के स्वार्थों के पूर्णतः अधीन हो चुकी थी। पोपर ने अपने पाठकों को यह विश्वास दिलाने का यल किया है कि हेगलवाद वास्तव में प्रशियनवाद का समर्थन था।

(7) हेगल का सिद्धान्त राष्ट्रों के बीच युद्ध को प्रोत्साहन देता है। अपने छिपे भाग्य को प्राप्त करने के लिये प्रत्येक राज्य को अपनी आत्मा या अपने व्यक्तित्व पर बल देना होता है। यह प्रतिद्वन्द्विता से या दूसरों पर छा जाने की भावना से ही हो सकता है। हेगल का विश्वास है कि युद्ध ही सब वस्तुओं का पिता है और यह न्यायपूर्ण है। उसके अनुसार विश्व-इतिहास ही विश्व की न्याय-कचहरी है। प्रो० सेबाईन का भी विचार है कि हेगल युद्ध तथा साम्राज्यवाद के गुण गाता है चाहे यह उसके सिद्धान्त को दूसरे अंग राष्ट्रवाद से मेल नहीं खाते।

(8) हेगल स्वतंत्रता और कानून में सन्तुलन स्थापित करता है। कानून स्वतंत्रता की रक्षा करता है और उसकी गारन्टी देता है, पर यह कभी-कभी स्वतंत्रता के विरुद्ध भी जाता है। कानून और स्वतंत्रता के अपने समीकरण को ठीक सिद्ध करने कि विचार से हेगल कहता है कि केवल उस ही सत्ता को कानून बनाने का अधिकार है या इस प्रकार स्वतंत्रता को प्रत्याभूति करने का हक है जो कि राष्ट्र की भावना का प्रतिनिधित्व कर सके। राष्ट्र की भावना का प्रतिनिधित्व लोगों के बहुमत या जनसमुदाय द्वारा नहीं हो सकता। इसका प्रतिनिधित्व एक आदेश देने वाला व्यक्तित्व अथवा राजा ही कर सकता है। दूसरे शब्दों में हेगल राजा की मर्जी और राष्ट्र की भावना में एकरूपता स्थापित करता है। हेगल के अनुसार समाज का प्रत्येक अंग अपने स्वतंत्र अस्तित्व को केवल प्रशिया जैसे सर्वाधिकार वाले राजतंत्र में ही प्राप्त कर सकता है। हेगल का दावा है कि उसने अपने द्वन्द्वात्मक तर्क द्वारा सिद्ध कर दिया है कि प्रशिया स्वतंत्रता का सर्वोच्च शिखर और वास्तविक गढ़ है और इसका सर्वाधिकारी संविधान एक ऐसा टीला है जिसकी ओर मानवता को बढ़ना होगा और उसकी सरकार स्वतंत्रता की पवित्रतम भावना की रक्षा करती और उसे बनाये रखती है। जैसे प्रो० हेपर कहते हैं हेगल स्वतंत्रता के सिद्धान्त को उस समय कुण्ठित कर देता है जब वह स्वतंत्रता और आज्ञापालन में समानता और अनुशासन में, व्यक्तित्व और राष्ट्र के उप-उत्पादन में एकरूपता स्थापित करता है।

(9) जब हम ध्यान से हेगल का अध्ययन करते हैं तो हमें पता चलता है कि उसका दर्शन केवल प्रशिया के राजतंत्र का समर्थन है। उसका दिव्य सूझबूझ का दार्शनिक पक्षपात, उसका इतिहास एक खुली पुस्तक समझना, पृथ्वी पर ईश्वर गति का विचार, उसका आत्मा की द्वन्द्वात्मक तार्किक गति का विचार तथा राष्ट्र-भावना पर बल सारे सोचे-समझे विचार हैं जो एक ही परिणाम को सिद्ध करते हैं सर्वाधिकारवादी राजतंत्र जो उस युग के प्रशिया में विद्यमान था आदर्श राज्य था। जैसा हम ऊपर देख आए हैं, हेगल ने अपने तर्क के तरीके का उदाहरण देते हुए कहा है कि पक्ष का निर्माण पूर्वीय एकतंत्र से होता है, विपक्ष का यूनानी लोकतंत्र से और सर्वोत्तम रूप अर्थात् समन्वय का रूप सर्वाधिकारवादी जर्मन राजतंत्र है। हेगल कभी भी जनता की प्रभुसत्ता की बात नहीं करता। वह सदा राजा की प्रभुसत्ता पर बल देता है। हेगल के अनुसार राजा के बिना जनता एक रूपहीन समुदाय है।

(10) नया जनजातीयवाद या फैसिज्म भी हेगल के राजनीतिक दर्शन से उत्पन्न हुआ है। फैसिज्म ने प्रत्येक युग में हेगल के दर्शन का अनुसरण किया है, सिवाये इसके कि उन्होंने हेगल के जातीयवाद के स्थान पर अर्ध-जीव-विज्ञानीय रक्त या जाति की भावना को रखा है। फैसिस्टो के विचार में भावना के स्थान पर रक्त या जाति स्वतः उन्नति करने वाला महत्वपूर्ण तत्व है।

(11) हम जानते हैं कि हेगल के दर्शन ने, जिसे उसने स्वयं बहुत गम्भीर बताया है, ‘न केवल दर्शन पर बल्कि जर्मन साहित्य के सब रूपों पर इतना विनाशकारी या अधिक कड़ाई के साथ सम्मोहित करने वाला या रोगजनक प्रभाव वाला’ (शोपन हावर) कि लोगों के लिए स्वतंत्र रूप से सोच-विचार करना कठिन हो गया।

(12) प्रोफेसर ढेपर ने इशारा किया है कि हेगल जो सिद्धान्त यह बताता है कि “सब कुछ ऐसा ही है जैसा कि चाहिए” जो कि तथ्यों को आदर्श रूप देता है अपने अन्दर पुरातनवादी प्रवृत्तियों को संजोये हुए हैं। हेगलवाद सीधा पुरातनवाद की ओर ले चलता है। वास्तव में हेगल का दर्शन प्रशिया के राजतंत्र की पुरातनवादी संस्था को ठीक तथा तर्कसंगत सिद्ध करने के लिये उत्पन्न हुआ था।

(13) उन लोगों से जो कि राज्य को एक यन्त्र समझते हैं, स्वतंत्रता की अधिक बढ़िया परिभाषा देने के हेतु, हेगल अन्त में व्यक्ति की बलि एक बड़े तिमिंगल के सामने दे देता है। उसने तिमिंगल को पहले से अच्छा वेश दे दिया है और उसे व्यक्तियों का दमन उनकी अपनी भलाई के लिये करने का अधिकार दे दिया है। प्रो०ढेपर के अनुकरणीय शब्दों में उस प्रयल में, “उसने जो गलती की है वह उसके बाद भी जीवित रही है और अब भी विश्व पर शोख रंग में चित्रित है।”

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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