विक्रय प्रशिक्षण से आशय

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विक्रय प्रशिक्षण से आशय

विक्रय प्रशिक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत विक्रय कर्मचारियों के विक्रय कार्य से सम्बंधित ज्ञान, चातुर्य एवं योग्यता का विकास किया जाता है ताकि वे अपने कार्यों को सर्वोत्तम विधि से करते हुए संस्था के कुशलता में योगदान दे सकें। फिलप्पो के अनुसार, “प्रशिक्षण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी विशिष्ट कार्य के लिए कर्मचारियों के ज्ञान एवं कौशल में अभिवृद्धि की जाती है।”

विक्रय प्रशिक्षण की आवश्यकता/उद्देश्य या महत्त्व

विक्रय प्रशिक्षण की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से है-

  1. कुशल विक्रय दल का निर्माण- विक्रय प्रशिक्षण के द्वारा संस्था में कुशल एवं प्रभावकारी विक्रय दल का निर्माण किया जा सकता है। सम्पूर्ण संस्था की सफलता इस दल पर बहुत कुछ निर्भर करती है।
  2. निरीक्षण व्यय में कमी- प्रशिक्षित विक्रयकर्ता अपने कार्य को करने की व्यवस्थित विधि जानते हैं। अतः विक्रय प्रबंधक को उनके निरीक्षण एवं नियंत्रण में अधिक समय नहीं देना पड़ता है। इससे समय, श्रम एवं धन की स्वतः बचत होती है।
  3. ज्ञान में अभिवृद्धि- प्रशिक्षण से विक्रयकर्त्ताओं के ज्ञान में अभिवृद्धि हो जाती है। वे विक्रय कार्य को अधिक कुशलता से करने की तकनीक को सीख लेते हैं। इन्हें विक्रय कार्य से सम्बन्धित नियमों की भी जानकारी प्राप्त हो जाती है।
  4. कार्य कुशलता में वृद्धि- प्रशिक्षित विक्रयकर्त्ता कम समय में अधिक विक्रय कार्य सम्पन्न कर सकता है। प्रशिक्षण से उनकी कार्यक्षमता एवं कार्य कुशलता दोनों में ही वृद्धि होती है।
  5. संतुष्टि— उचित परामर्श, समस्या के समुचित समाधान एवं धन के सही उपयोग के कारण ही ग्राहकों को असीमित संतुष्टि प्राप्त होती है।

विक्रय प्रशिक्षण के ढंग अथवा विधियाँ

  1. कार्य पर प्रशिक्षण- कर्मचारियों को कार्य पर प्रशिक्षण देने का उद्देश्य उन्हें कार्य की वास्तविक परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं से कम-से-कम समय में परिचित कराना है। जब कर्मचारी कार्य पर प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं तो वे स्वयं समस्त क्रियाओं को देखते हैं और उन्हें क्रिया द्वारा सीखते हैं। इससे प्रशिक्षण के समय में पर्याप्त कमी हो जाती है। प्रशिक्षण व्यय भी काफी कम हो जाता है। यह प्रशिक्षण व्यावहारिक होता है, जिससे प्रशिक्षार्थी भी रुचि के साथ कार्य सीखता है। कार्य का वास्तविक वातावरण मिलने के कारण उसका कार्य अभ्यास भी काफी अच्छा हो जाता है। कर्मचारी को अपने कार्यों की प्रगति देखने का अवसर प्राप्त होता है, जिससे वह अधिक अच्छा कार्य करने की ओर प्रयास करता है। इस विधि में एक कर्मचारी को उनका वरिष्ठ कर्मचारी प्रशिक्षण देता है और यह प्रशिक्षार्थी कर्मचारी अपने से नीचे वाले कर्मचारी को प्रशिक्षण देता है।
  2. प्रशिक्षण केन्द्रों पर प्रशिक्षण- इसके अन्तर्गत सबसे पहले विशिष्ट प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना की जाती है। अलग-अलग प्रशिक्षण केन्द्र अलग-अलग व्यवसायों के लिए प्रशिक्षण प्रदान करते हैं। यही कारण है कि उन्हें तकनीकी प्रशिक्षण केन्द्र भी कहते हैं। नये अथवा पुराने कर्मचारी विशिष्ट व्यवसाय अथवा कार्य के सम्बन्ध में यहाँ पर प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। इस प्रकार के प्रशिक्षण केन्द्र सरकार द्वारा तथा निजी उद्योगों द्वारा अपने-अपने यहाँ के कर्मचारियों के प्रशिक्षण हेतु चलाये जाते हैं।
  3. अनुभवी कारीगरों द्वारा प्रशिक्षण- अनुभवी कारीगरों द्वारा दिया जाने वाला प्रशिक्षण उस स्थिति में विशेष उपयुक्त रहता है जिसमें अनुभवी कारीगरों को सहायकों की आवश्यकता रहती है। प्रशिक्षण देने की यह पद्धति उन विभागों के लिए भी उपयुक्त है जिनमें कारीगर उत्तरोत्तर कृत्यों द्वारा क्रियाओं की एक श्रृंखला निष्पादित करने के लिए आगे बढ़ता है।
  4. निरीक्षकों या पर्यवेक्षकों द्वारा प्रशिक्षण- पर्यवेक्षकों के द्वारा प्रशिक्षण का आयोजन करने से प्रशिक्षणार्थियों को अपने अधिकारियों से परिचित होने का सुअवसर मिलता है। इसके अतिरिक्त पर्यवेक्षकों को भी कार्य-उत्पादन के दृष्टिकोण, प्रशिक्षणार्थियों की योग्यताओं एवं सम्भावनाओं को परखने का सुअवसर मिल जाता है।
  5. शिक्षार्थी प्रशिक्षण – शिक्षार्थी प्रशिक्षण का मुख्य उद्देश्य सर्वकुशल कारीगरों एवं कर्मचारियों का विकास करना होता है। इस प्रकार का प्रशिक्षण उन व्यवसायों या कार्यों हेतु प्रदान किया जाता है। जहाँ कार्य में पूर्ण कुशलता हासिल करने के लिए एक दीर्घ अवधि तक काम का अभ्यास करना आवश्यक होता है। प्रत्येक शिक्षार्थी को एक पूर्व निश्चित योजना के अनुसार कार्य सौंप दिया जाता है। नियोजित कार्यक्रम कुशल प्रशिक्षण की व्यवस्था करता है। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रशिक्षण प्राप्त करने में लगभग 5 या 6 वर्ष तक का समय लग जाता है। प्रशिक्षण की यह विधि बहुत ही खचली होती है। प्रशिक्षण समाप्ति के उपरांत भी शिक्षार्थी को यह विश्वास नहीं दिया जा सकता है कि उसे कार्य मिल ही जायेगा। इस प्रशिक्षण विधि के अन्तर्गत कुछ पारिश्रमिक भी दिया जाता है।
  6. द्वार-कोष्ठ प्रशिक्षण- द्वार-प्रकोष्ठ प्रशिक्षण काम से पृथक एक अलग विशेष प्रशिक्षणशाला में दिया जाता है। इसे द्वार प्रकोष्ठ प्रशिक्षण इसलिए कहते हैं कि इस प्रशिक्षण को कारखाने में हो रहे कार्य से दूर रह कर दिये जाने पर भी उस विशिष्ट प्रकोष्ठ में अर्थात् प्रशिक्षण कक्ष में जहाँ यह दिया जाता है, कारखाने जैसा वातावरण तथा कार्य स्थिति उपलब्ध करने का प्रयत्न किया जाता है। प्रशिक्षण प्राप्त कर लेने के उपरांत प्रशिक्षणार्थी को कारखाने में कार्य पर नियुक्त कर लिया जाता है। ऐसे प्रशिक्षणार्थी को कार्य प्रारम्भ करने पर किसी प्रकार की घबराहट अनुभव नहीं होती है। अतएव द्वार-प्रकोष्ठ प्रशिक्षण कारखाने के कार्य स्थल से हटकर एक विशेष प्रशिक्षण कक्ष में दिया जाता है, किन्तु मशीनें एवं औजार आदि कारखाने की मशीनों एवं औजारों के समान होते हैं। ऐसा प्रशिक्षण कर्मचारियों को अधिक कार्यकुशल बना देता है।
  7. संयुक्त प्रशिक्षण- इस प्रशिक्षण का मुख्य उद्देश्य प्रशिक्षणार्थियों को सैद्धांतिक एवं व्यावसायिक प्रशिक्षण उपलब्ध कराना होता है, ऐसा प्रशिक्षण तकनीकी संस्थान एवं व्यावहारिक संस्थान मिलकर अपने सदस्य प्रशिक्षणार्थियों को संयुक्त एवं संतुलित प्रशिक्षण प्रदान करते हैं। ऐसे प्रशिक्षण में सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक प्रशिक्षण में संतुलन स्थापित किया जाता है। यह प्रशिक्षण बहुत समय लेता है, किन्तु कार्य का व्यावहारिक ज्ञान कर्मचारियों को बड़ा अच्छा हो जाता है।
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