गैर पारंपरिक ऊर्जा के स्रोत | non conventional energy resources in Hindi
गैर पारंपरिक ऊर्जा के स्रोत | Non conventional energy resources in Hindi
गैर पारंपरिक ऊर्जा (non conventional energy resources) के कुछ स्रोत निम्नलिखित है-
- सौर्य ऊर्जा
- पवन ऊर्जा
- महासागरीय ऊर्जा
- ऊर्जा के स्रोत के तौर पर ज्वार फ्रीक समस्याएं
- भूतापीय ऊर्जा
- बायोमास ऊर्जा
- जैव ईंधन
सौर ऊर्जा –
सौर ऊर्जा का सर्वाधिक व्यापक एवं अपरिमित स्रोत है जो वातावरण में फोटॉन (छोटी-छोटी प्रकाश तरंग पेटिकाएं) के रूप में विकिरण से उर्जा का संचार करता है। संभवत: पृथ्वी पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण रासायनिक अभिक्रिया प्रकाश संश्लेषण को माना जाता है। जो सूर्य के प्रकाश की हरे पौधे के साथ होती है। इसलिए सौर ऊर्जा को पृथ्वी पर जीवन का प्रमुख संवाहक जाता है।
भारत को प्रति वर्ष 5000 ट्रिलियन किलोवाट घंटा के बराबर ऊर्जा प्राप्त होती है। प्रतिदिन का औसत भौगोलिक स्थिति के अनुसार 4 से 7 किलोवाट घंटा प्रति वर्ग मीटर है। वैश्विक और रेडिएशन का वार्षिक प्रतिशत भारत में प्रतिदिन 5.5 किलोवाट घंटा प्रति वर्ग मीटर है।
चुंकि मानव सौर ऊर्जा का उपयोग अनेक कार्यों में करता है इसलिए इसका व्यावहारिक उपयोग करने के लिए सौर ऊर्जा को अधिकाधिक क्षेत्र में एकत्र करने या दोनों की प्राप्ति हेतु उचित साधन आवश्यक होते हैं। इसके दोहन हेतु कुछ युक्तियां उपयोग में लाई जाती हैं- प्रकाश वोल्टीय, सेल या सौर्य।
व्यापारिक उपयोग हेतु सौर शक्ति टावर का उपयोग विद्युत उत्पादन में किया जाता है। भारत सन् 1962 में विश्व का पहला देश बन गया जहां सौर्य कुकरों का व्यापारिक स्तर पर उत्पादन किया गया। सौर्य ऊर्जा को सीधे विद्युत में परिवर्तित करने की युक्तियां सौर सेल कहलाती हैं। सर्वप्रथम व्यापारिक सौर सेल 1954 में बनाया गया जो लगभग 1% सौर ऊर्जा को विद्युत में परिवर्तित कर सकता था। वही आधुनिक सौर सेल की दक्षता 25% है।
पवन ऊर्जा –
वायु की गति के कारण अर्जित गतिज ऊर्जा होती है । यह एक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है। कई शताब्दियों से पवन का ऊर्जा स्रोत के रूप में प्रयोग होता रहा है, जैसे अनाज फटकने में, पवन चालित नौकाओं आदि में। आधुनिक पवन चक्कियों का निर्माण इस प्रकार किया जाता है कि वे पवन ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा या वद्युत ऊर्जा में परिवर्तित कर सकें।
पवन ऊर्जा का इस्तेमाल विद्युत उत्पन्न करने श के अतिरिक्त सिंचाई के लिए जल की पंपिंग में किया जा सकता है। गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोत मंत्रालय (M.N.E.S.) की वार्षिक रिपोर्ट 2004-2005 के अनुसार, भारत में तटीय पवन ऊर्जा क्षमता 45,000 मेगावाट मूल्याकित की गई है जो कि पवन ऊर्जा सृजन के लिए उपलब्ध भूमि का 1% है हालांकि तकनीकी क्षमता को 13,000 मेगावाट के लगभग सीमित किया गया है। पवन ऊर्जा उत्पादन क्षमता में विश्व में भारत का पांचवा स्थान है।
गुजरात, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और उड़ीसा जैसे तटीय राज्यों का पवन ऊर्जा के संदर्भ में बेहतर स्थान है, क्योंकि इन राज्यों के तटीय क्षेत्रों में पवन की गति निरंतर 10 किलोमीटर प्रति घंटा से भी अधिक रहती है। घरेलू और साथ ही निर्यात बाजार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विंड टरबाइन और उनके साधक (कॉम्पोनेंट्स) के निर्माण में उल्लेखनीय संवृद्धि दर्ज की गई है।
वर्ष 2009 तथा 10 के अनुसार, देश में तमिलनाडु के कन्याकुमारी के पास मुपडल पेरूगुड़ी में सर्वाधिक विंड टरबाइन्स स्थापित किए गए हैं। पवन ऊर्जा प्रौद्योगिकी केंद्र चेन्नई में स्थापित किया गया है।
महासागरीय ऊर्जा –
महासागरीय तापांतर, तरंगो, ज्वार – भाटा और महासागरीय धाराओं के रूप में नवीकरणीय ऊर्जा का स्रोत है, जिससे पर्यावरण अनुकूलन तरीके से विद्युत उत्पन्न की जा सकती है। ज्वारीय ऊर्जा, तरंग ऊर्जा तथा समुद्र तापीय ऊर्जा रूपांतरण 3 बेहद अत्यंत प्रविधियां है। वर्तमान में व्यापक प्रौद्योगिकी अंतराल और सीमित संसाधनों के कारण समुद्र से ऊर्जा प्राप्त करने की सीमित मात्रा है।
समुद्री तापीय ऊर्जा रूपांतरण तकनीक (ओ० टी० सी० ई०) ने समुद्र की ऊपरी सतह के तापमान और 1,000 मीटर या अधिक का गहराई के तापमान के बीच तापांतर ऊर्जा प्राप्त करने के लिए बेहतर काम किया। भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देशों में यह रणनीति बेहतर तरीके से काम करती है क्योंकि यहां पर समुद्री तापमान 25 डिग्री सेल्सियस तक हो जाता है।
भारत के 6,000 किलोमीटर लंबे तट क्षेत्र में तरंग ऊर्जा क्षमता लगभग 40,000 मेगावाट अनुमानित की गई है। तरंग ऊर्जा के लिए आदर्श अवस्थितियां अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में व्यापारिक पवनों की पेटियों में चिन्हित किए गए हैं। चेन्नई के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के महासागर अभियांत्रिकी केंद्र के वैज्ञानिकों ने केरल में तिरुवंतपुरम के नजदीक विझिंजम फिशिग हर्बल में एक बड़ा सयंत्र लगाने में सफलता प्राप्त की है। जहां ज्वार तरंगों की ऊंचाई अधिक होती है वह महासागर के ज्वारों द्वारा विद्युत उत्पादित की जा सकती हैं। महासागरीय ऊर्जा के सभी रूपों में ज्वारीय ऊर्जा से सर्वाधिक ऊर्जा उत्पादन की क्षमता है। भारत में ज्वारीय ऊर्जा के क्षमतावान क्षेत्रों के रूप में पश्चिमी तट पर गुजरात में कच्छ एवं खंभात की खाड़ी तथा पूर्वी तट पर पश्चिमी बंगाल में सुंदरवन की पहचान की गई है। सुंदर वन क्षेत्र के दुर्गादुआनी क्रीक में फरवरी 2008 में पश्चिम बंगाल नवीकरणीय ऊर्जा विकास एजेंसी (WBRIDA) द्वारा 3.75 मेगावाट क्षमता का ज्वारीय शक्ति प्रोजेक्ट स्थापित किया गया है। इस प्रोजेक्ट का मुख्य उद्देश्य पश्चिम बंगाल के दक्षिण में 24 परगना जिले में स्थित गौसाबा और बाली विजयनगर द्वीपों के 11 गांवों में विद्युत आपूर्ति करना है।
ऊर्जा स्रोत के तौर पर ज्वरीय क्रिफ समस्याएं –
इसे बेहद उच्च ज्वार श्रेणी की आवश्यकता होती है ।(5 मीटर से अधिक ऊंची वाली)
उच्च क्षमता के क्षेत्र सुदूरवर्ती क्षेत्रों में है तथा ऊर्जा का पारेषण बेहद खर्चीला है।
चौड़े मुख वाली खाड़ी एश्चुअरी बांध निर्माण कार्य को बेहद खर्चीला बना देती है।
मुख्य ज्वार ऊर्जा क्षेत्र मुश्किल ही उच्च ऊर्जा मांग को पूरा कर पाते हैं क्योंकि ज्वार प्रत्येक दिन चक्रीय तरीके से स्थान परिवर्तन करता है।
भूतापीय ऊर्जा –
भूतापीय ऊर्जा प्रणाली के अंतर्गत भूगर्भीय तापमान एवं जल की अभिक्रिया से गर्म वाष्प उत्पन्न कर ऊर्जा का उत्पादन किया जाता है। इस प्रकार की प्रक्रिया के लिए अनेक प्रविधियां अपनाई जाती है।
भारत में भूतापीय ऊर्जा स्रोत के उपयोग के लिए सीमित कार्यक्षेत्र है। हालांकि नेशनल एरोनॉटिकल लाइब्रेरी के तत्वावधान में हिमाचल प्रदेश में मणिकरण में एक पायलट पावर परियोजना और लद्दाख की पूर्ण घाटी में (जम्मू-कश्मीर) अन्वेषणआत्मक अध्ययन किया जा रहे हैं। राष्ट्रीय भूभौतिकी अनुसंधान संस्थान (एन० जी० आर० आई०) हैदराबाद द्वारा पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र पर किया गया अध्ययन झारखंड में सूरज खंड और उत्तराखंड में तपोवन में शक्तिशाली भूतापीय स्थलों के अस्तित्व को दर्शाता है।
बायोमास ऊर्जा –
यह जैव ऊर्जा का एक रूप है जैविक पदार्थ का उपयोग ऊर्जा उत्पादन के लिए किया जाता है। पादप एंजाइम, जीवाणु आदि ऊर्जा के महत्वपूर्ण स्रोत है। जैव पदार्थों से ऊर्जा प्राप्त करने की अनेक विधियां हैं। एक तो पादप को सीधे जलाकर ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है जिससे प्राप्त ऊर्जा की मात्रा भी कम होती है और उससे प्रदूषण भी फैलता है, परंतु यदि वैज्ञानिक तकनीक से जैविक संवर्धन द्वारा मीथेन का निर्माण कर अथवा यीस्ट फॉरमेशन से इथेनॉल का निर्माण कर उर्जा प्राप्त की जाती है तो इससे अधिक ऊर्जा भी प्राप्त होती है और प्रदूषण भी कम फैलता है। बायोमास या जैव ऊर्जा मुख्यतः पौधे और कुडो कचरों से प्राप्त की जा रही है। पौधों से बायोमास प्राप्त करने के लिए तीव्र विकास वाले पौधों की बेकार पड़ी जमीन पर उत्पादित किया जा रहा है। इससे प्राप्त लकड़ियों के गैसीकरण से ऊर्जा प्राप्त की जाती है।
बायोमास ऊर्जा पर राष्ट्रीय कार्यक्रम का उद्देश्य विविध प्रकार की बायोमा सामग्री का अधिकतम उपयोग करना है। इसमें वन और कृषि उद्योग आधारित अवशिष्ट ऊर्जा समर्पित वृक्षारोपण के अतिरिक्त दक्ष और आधुनिक तकनीक परिवर्तन के माध्यम से वन और कृषि आवशेषों से ऊर्जा उत्पादन शामिल है। इसके लिए संयंत्रों में गैस / भाप टरबाइन,दोहरा ईधन इंजन या इनका मिश्रण जिनका उपयोग केवल बिजली उत्पादन या ऊर्जा के एक से अधिक प्रकारों के सह – उत्पादन के लिए कैप्टिव उपयोग या ग्रिड बेचने के लिए किया जाता है। यह अक्ष्य हैं, व्यापक रूप से उपलब्ध हैं तथा कार्बन तटस्थ हैं और साथ इसमें ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचुर उत्पादनकारी रोजगार देने की क्षमता भी है।
एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक विश्व की प्राथमिक उपयोग का 15-50% बायोमास से प्राप्त हो सकता है। गैरतलब है कि इस समय विश्व की प्राथमिक ऊर्जा का लगभग 11% बायोमास द्वारा ही पूरा होता है परंतु यह ईधन अधिक ऊष्मा उत्पादन नहीं करते एवं इन्हें जलाने पर अत्यधिक धुआं निकलता है इसलिए इसे प्रोत्साहित करने हेतु प्रौद्योगिकी की जरूरत है। भारत में नवीकरण एवं नवीन ऊर्जा मंत्रालय द्वारा बायोमास के उत्पादनकारी उपयोग के लिए तीन प्रमुख प्रौद्योगिकयों को बढ़ावा दिया जा रहा है। वह हैं-चीनी मिलों में खोई आधारित सह उत्पादन, बायोमास विद्युत उत्पादन तथा वर्षीय एवं विद्युतीय अनुप्रयोगों के लिए बायोमास गैसीकरण। पूरे विश्व में चीनी उद्योग में पारंपरिक रूप से खोई आधारित सह उत्पादन का उपयोग भाप में आत्म संपन्नता प्राप्त करने के लिए किया जाता है एवं बिजली के उत्पादन तथा परिचालन को किफायती बनाने के लिए किया जाता है। भारत आज विश्व में चीनी मिलों में आधुनिक सह उत्पादन परियोजना को लागू करने वाला सबसे अग्रणी देश है। भारत अपने कृषि, कृषि आधारित उद्योग एवं वानिकी प्रचालन के द्वारा प्रचुर मात्रा में बायोमास सामग्री का उत्पादन करता है।
जैव ईंधन –
ईंधन मुख्यतः सम्मिलित बायोमास से उत्पन्न होता है अथवा कृषि या खाद्य उत्पादन या खाना बनाने और वनस्पति तेलों में उत्पादन की प्रक्रिया से उत्पन्न अवशेष और औद्योगिक संसाधन के उप उत्पाद से उत्पन्न होता है। जैव ईधन किसी प्रकार का पेट्रोलियम पदार्थ नहीं होता है किंतु इसे किसी भी स्तर पर पेट्रोलियम ईंधन के साथ जैव ईंधन का रूप भी दिया जा सकता है। इसका उपयोग परंपरागत निवारक उपकरण या डीजल इंजन में बिना प्रमुख संशोधनों के साथ उपयोग किया जा सकता है। जैव ईधन का प्रयोग सरल है, यह प्रकृतिक तौर से नष्ट होने वाला सल्फर या गंध से पूर्णतया मुक्त है। इथेनाल का प्रयोग मुख्य रूप से रसायन उद्योग, दवा क्षेत्रों में कच्चा माल के तौर पर होता है। जटरोफा कुरकास, कंरज, होग आदि अन्य खाद्य एवं गैर खाद्य पदार्थ शक्तिशाली जैव ईंधन है। 11वीं योजना के दौरान भारत सरकार ने प्रथम चरण में 2.5 मिलियन हेक्टेयर पर इसकी खेती करने की रणनीति बनाई जिससे वाहन ईंधन की बढ़ती आवश्यकता को पूरा किया जा सके।
जैव ईंधन ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण स्रोत है जिसका देश में कुल इधन उपयोग में एक तिहाई योगदान है और ग्रामीण परिवारों में इसकी खपत लगभग 90% है। जैव ईधन का व्यापक उपयोग खाना बनाने और उष्णता प्राप्त करने में किया जाता है। उपयोग किए जाने वाले जैव ईंधन में शामिल हैं- कृषि अवशेष, लकड़ी, कोयला और सूखे गोबर इत्यादि। यह स्थानीय रूप से उपलब्ध होता है, जीवाश्म ईंधन की तुलना में यह एक स्वच्छ ईधन है। एक प्रकार से जैव ईंधन, कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण कर हमारे परिवेश को भी स्वच्छ रखता है। इसके अतिरिक्त इसमें कुछ समस्याएं भी आती हैं जैसे कि ईंधन को एकत्रित करने में कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। खाना बनाते समय और घर में रोशनदान नहीं होने के कारण गोबर से बनी ईधन वातावरण को प्रदूषित करती है जिससे स्वास्थ्य गंभीर रूप से प्रभावित होता है। जैव ईंधन के लगातार और पर्याप्त रूप से उपयोग ना करने के कारण वनस्पति का नुकसान नुकसान होता है जिसके चलते पर्यावरण के स्तर में गिरावट आ जाती है।
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