न्यूक्लीयर (रेडियोधर्मी) प्रदूषण

न्यूक्लीयर (रेडियोधर्मी) प्रदूषण । न्यूक्लीयर (रेडियाधर्मी) प्रदूषण के प्रभाव । नियन्त्रण के उपाय

न्यूक्लीयर (रेडियोधर्मी) प्रदूषण । न्यूक्लीयर (रेडियाधर्मी) प्रदूषण के प्रभाव । नियन्त्रण के उपाय

न्यूक्लीयर (रेडियोधर्मी) प्रदूषण

रडियोधर्मी किरणें परमाणु कीं अस्थिरता के कारण निकलती हैं। ऐसे परमाणुओं के नाभिकों से कई प्रकार के कण एवं ऊर्जा तब तक निकलती रहती है जब तक वह स्थाई स्थिति में न आ जाए। यह प्रक्रिया किसी भी प्रकार से रोकी नहीं जा सकती। रेडियोधर्मी पदार्थों के परमाणु नाभिकों से अल्फा (Emitted He nucleus), बीटा (Emitted electron) एव गामा (emitted photon) किरणें निकलती हैं। इनमें ऊर्जा की बहुत अधिक मात्रा रहती है। जब यह किसी जीव से टकराती है तो उसके शरीर के अन्दर घुसकर उसकी कोशिकाओं एवं ऊतकों के परमाणुओं में से इलेक्ट्रॉन अलग कर देती है। यह अधिक ऊर्जा वाले इलेक्ट्रॉन दूसरे परमाणुओं के इलेक्ट्रॉनों को अपने सही स्थान से अलग करते हैं। इस प्रकार प्राणी को इस ‘आयोनाइजेशन ट्रेल’ (lionization trail) से बहुत हानि होती है। इन रेडियोधर्मी किरणों से डी. एन. ए. (DNA), आर. एन. ए. (RNA) की संरचना बिगड़ं जाती है, म्यूटेशन तथा कैंसर हो जाता है। मनुष्य के लिए 500 rem रेडिएशन से चार-पाँच दिन में मृत्यु निश्चित है। कम रेडिएशन से पहले त्वचा पर छाले होते हैं, फिर खून की उल्टियाँ, फिर शरीर के दूसरे तन्तरों पर असर पड़ता है। कभी-कभी बहुत वर्षों बाद भी कैंसर उभर आता है। डी. एन. ए. (DNA) में परिवर्तन के कारण अगली पीढ़ी में कई जन्म-दोष देखने को मिलते हैं।

न्यूक्लीयर (रेडियाधर्मी) प्रदूषण के प्रभाव

न्यूक्लीयर प्रदूषण के प्रभाव निम्न प्रकार देखे गये हैं-

(1) सोमेटिक तथा आनुवंशिक कोशिकाओं पर प्रभाव (Effcct on somatic and genetic genes)- जैव अणु डी. एन. ए., आर. एन. ए. आदि की संरचना में परिवर्तन कर विभिन्न प्रकार के कैंसर की उत्पत्ति करते हैं। इनका प्रभाव सोमेटिक तथा आनुवंशिक दोनों प्रकार की कोशिकाओं पर होता है।

(2) हानिकारक विकिरण (Harmful Radiations)- ये विकिरण प्रमुखतः ल्यूकेमिया (रक्त कैंसर), लंग्स (Lungs), कैंसर, आमाशय और आँतों का कैंसर, पेल्विक कैंसर तथा गर्भ के अन्दर शिशु की मृत्यु का कारण माने गये हैं।

(3) प्रजनन क्षमता (Reproduction power)-रेडियोऐक्टिव विकिरण के फलस्वरूप जीव की प्रजनन क्षमता क्षीण हो जाती है। यह शीघ्र मृत्यु का कारण भी होती है।

(4) महामारियों में वृद्धि (Increase in diseases)- रेडियोधर्मी विकिरण के बाद मनुष्य में रोगजनक बैक्टीरिया व विषाणु के प्रति एण्टीटाक्सिंस उत्पन्न करने की क्षमता कम हो जाती हैं।

(5) जीन्स में परिवर्तन (Change in genes)-रेडियोधर्मी विकिरण के फलस्वरूप जीवों के जर्मिनल कोशिकाओं के जीन्स में उत्परिवर्तन उत्पन्न हो जाते हैं जिससे विकृत एवं विकलांग शिशुओं का जन्म हो सकता है।

(6) तंत्रिका तन्त्र (Nervous system)- रेडियोएक्टिव विकिरण के बाद केन्द्रीय तंत्रिका तन्त्र भी प्रभावित होता है जिससे संवेदी तंत्रिकाओं की कोशिकाएँ कभी भी उत्तेजित हो जाती हैं।

(7) जन्तुओं तथा पौधों के शरीर पर प्रभाव (Effect on Animals and plants)- कशेरुकियों तथा मनुष्यों में होने वाली उपरोक्त बीमारियों के अलावा जन्तुओं तथा पौधों के शरीर पर रेडियोएक्टिव विकिरण के दूसरे प्रभाव भी दिखाई देते हैं। इसके प्रभाव के कारण जन्तुओं तथा पादपों के बाह्य त्वचीय ऊतकों में घाव बन जाते हैं और अस्थिमज्जा, आँत आदि की कोशिकाएँ भी प्रभावित होती हैं। तात्कालिक प्रभाव के रूप में आँखों का जलना, उल्टी डायरिया आदि लक्षण दिखाई देते हैं। पौधों में भी इसके कारण उत्परिव्वतन पैदा होता है। कई पौधे इसके प्रति कुछ निश्चित सीमा तक प्रतिरोधकर्ता व्यक्त करते हैं।

न्यूक्लीयर (रेडियोधर्मी) प्रदूषण नियन्त्रण के उपाय

जैसा कि बताया जा चुका है, इन विकिरणों से जीवों को व्यापक हानि होती है। सारा विश्व यह जानकारी रखता है। फिर भी परमाणु परीक्षण होते रहते हैं। परमाणु अवशिष्ट की बहुत बड़ी मात्रा एकत्रित हो चुकी है, वर्ष 1995 तक 100000 मीट्रिक टन एकत्रित हो चुके प्रत्येक मीट्रिक टन से 180000000 क्यूरी रेडियोधर्मिता प्राप्त होती है। 10000 साल बाद भी इसमें से 470 क्यूरी निकलती रहेंगी। यूरेनियम की खदानों से सबसे अधिक रेडियोधर्मी किरणें निकलती हैं। अवशिष्ट यूरेनियम रेडियोधर्मिता बनी रहती है।

इन रेडियोधर्मी अवशिष्टों का निपटारा एक जटिल समस्या है। वर्तमान में इनके लिए सबसे उपयुक्त स्थान दूर दराज के वीरान इलाके में पृथ्वी का गर्भ ही है। फिर भी इससे भूमिगत जल स्रोतो के दूषित होने का डर है। फिर यदि देखा जाय तो आज जो स्थान बंजर है, वह अगले पाँच या दस हजार वर्षों बाद कैसा होने वाला है, कहा नहीं जा सकता। हम देख चुके हैं कि कई रेडियोधर्मी आइसोटोपों का जीवन तो लाखों वर्ष होता है। इस प्रकार सोचा जाए तो समस्या का कहीं अन्त नहीं है क्योंकि सबसे अधिक सक्षम ऊर्जा का साधन परमाणु ऊर्जा ही है। अतः संयम बरतते हुए परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाने की आवश्यकता है। साथ ही परमाणु ऊर्जा संयन्त्रों में सुरक्षा तथा आपात स्थिति से निपटने की कारगर तकनीकी की व्यवस्था की भी आवश्यकता है। युद्ध कार्यों में केन्द्रीय विखण्डनों से पैदा हुए प्रदूषण को रोकने का एकमात्र उपाय यह है कि परमाणु युद्ध होने ही न दिया जाय। अगर यह होगा तो उसके कम या अधिक दुष्परिणाम दिखाई देंगे ही। युद्ध मानव समाज के लिए ऐसा कार्य भी नहीं है कि इसके बिना काम न चल सके। रही बात शान्ति कार्यों के समय परमाणु ऊर्जा के उपयोग के दौरान बने अपशिष्ट पदार्थों से निकलने वाली विकिरणों के सम्बन्ध में तो इन्हें ऐसी जगहों पर छोड़ा जाये जिससे इनका प्रभाव जीवमण्डल पर न पड़े। शान्ति कार्यों में परमाणु ऊर्जा के लिए मुख्यतः यूरेनियम और प्लूटोनियम का प्रयोग ईंधन के रूप में किया जाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार इनके अपशिष्ट 2,00,000 वर्ष तक अपने प्रभाव जीवमण्डल पर दिखा सकते हैं। परमाणु ऊर्जा संयन्त्रों में बनने वाले पदार्थों को कभी भी वायुमण्डल में खुला नहीं छोड़ना चाहिए।

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