प्लेटो का आदर्श राज्य

प्लेटो का आदर्श राज्य | प्लेटो के आदर्श राज्य के मौलिक सिद्धान्त

प्लेटो का आदर्श राज्य | प्लेटो के आदर्श राज्य के मौलिक सिद्धान्त

 प्लेटो का आदर्श राज्य (The Ideal State of Plato)

लेटो व्यक्ति और राज्य में पिण्ड और ब्रह्माण्ड का सम्बन्ध स्वीकार करता है। इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति में जो गुण और विशेषताएँ थोड़ी मात्रा में पायी जाती हैं, वही विशाल रूप में राज्य में पायी जाती हैं। राज्य व्यक्ति की विशेषताओं का विराट रूप है।

प्लेटो के अभिमत में, “राज्य किसी वृक्ष या चट्टान से नहीं, परन्तु उनमें निवास करने वाले व्यक्तियों के चरित्र से बनते हैं।” मनुष्य के गुणों का अध्ययन उनसे निर्मित राज्यों के अध्ययन से हो सकता है। परन्तु राज्य की संस्थाएँ मानसिक विचारों का परिणाम है और इनकी वास्तविक सत्ता मन में ही है। न्याय और कानन की सत्ताएँ कानूनों तथा न्यायाधीश आदि के रूप में भौतिक सत्ता रखती हैं। परन्तु विचारों तथा चिन्तन का परिणाम होने से अभौतिक हैं या आध्यात्मिक हैं, साबसिक विचार की कवि-हैं । न्याय को स्थूल रूप से राजदण्ड और ‘न्यायालयों के रूप में देखा जाता है, परन्तु वह आध्यात्मिक और मानसिक चिन्तन का परिणाम है।”

प्रोफेसर बार्कर के अनुसार राज्य विषयक चिन्तन में प्लेटो तथा अरस्तू की एक बड़ा देन इसे एक मौलिक सत्ता न समझकर, आन्तरिक एवं आध्यात्मिक सत्ता मानना है। यदि राज्य आध्यात्मिक सत्ता है तो उसका स्वरूप समझने के लिये मानवीय आत्मा का स्वरूप समझना अपेक्षित है। मानवीय आत्मा के स्वरूप के विषय में प्लेटो ने पाइथागोरस के सिद्धान्ता को मानकर इसे त्रिगुणात्मक अंगीकृत किया है।

आत्मा में तीन गुण है- (1) काम अथवा क्षुधा, (2) उत्साह, (3) विवेक। काम तत्व से हममें राग, द्वेष, भूख, प्यास, नाना प्रकार की इाएँ, वासनाएँ आदि उत्पन्न होती है। दूसरा तत्त्व विवेक का है, वह मनुष्यों को ज्ञान प्राप्त कराने में तथा प्रेम कराने में सहायक होता है। इन तीनों तत्वों का मध्यवर्त्ती उत्साह, साहस और स्पर्धा के भावों को उत्पन्न करता है। ये तीन तत्व प्लेटो के दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त हैं, इन्हीं के आधार पर उसने राज्य को उत्पन्न करने वाले तीन तत्त्वों का तथा राज्य का निर्माण करने वाले तीन वर्गों का प्रतिपादन किया है।

वस्तुतः जिस भाँति मानवीय आत्मा का निर्माण तीन तत्त्वों से हुआ है, उसी प्रकार राज्य को उत्पन्न करने में तीन तत्त्व सहायक होते हैं-आर्थिक, सैनिक और दार्शनिक।

  • आर्थिक तत्त्व – आर्थिक तत्त्व का तात्पर्य यह है कि मनुष्य काम तत्त्व से सम्बन्ध रखने वाली भोजन, वस्त्र, निवास आदि की आवश्यकताएँ अकेला पूरा नहीं कर सकता। ये अनेक व्यक्तियों के सहयोग से तभी पूरी हो सकती हैं, जब उन्हें पूरा करने के लिये समाज में अन्न उत्पन्न करने वाले कृषक, राजगीर, जुलाहों आदि की विशेष आर्थिक श्रेणियाँ बन जायें।समाज के लिये इस प्रकार का श्रम-विभाजन अत्यधिक महत्व रखता है । समाज के विभिन्न वर्गों में कार्यों का विभाजन हो जाने से प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष कार्य को करता है। यही विशेष कार्य का सिद्धान्त (Theory of specific function) कहा जाता है। समाज के विकास के संग-संग व्यवसाओं (पेशों) की संख्या में वृद्धि होती जाती है। इन सभी का आर्थिक सहयोग जीवन-यापन के लिये आवश्यक होने के कारण ये राज्य के रूप में संगठित होते हैं। इसमें प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति यदि अपना निश्चित कार्य करता रहे तो राज्य की आवश्यकताएँ अच्छी तरह से पूरी होती हैं, और प्लेटो के अभिमत में यही न्याय है।
  • सैनिक तत्त्व- आर्थिक तत्त्व के अतिरिक्त राज्य निर्माण के लिये सैनिक तत्त्व भी परन्तु अपेक्षित है। यह आत्मा के गुणों में उत्साह या शौर्य के साथ साम्य रखता है। भौतिक आवश्यकताओं की संतुष्टि से ही मानव तृप्त नहीं होता, उसमें अपने को सुसंस्कृत तथा परिष्कृत करने की आकांक्षा होती है। इसकी पूर्ति के निमित्त अधिक जनसंख्या और प्रदेश की आवश्यकता होती है। यह प्रदेश युद्ध द्वारा हस्तगत किया जा सकता है; अतः स्पष्ट है कि राज्य का एक कार्य अधिक से अधिक भू-भागों को प्राप्त करना तथा उसे अपने अधिकार में बनाये रखना होता है, अतः राज्य की रक्षा के लिए शूरवीर रक्षकों की आवश्यकता होती है । योद्धाओं (सैनिकों) का एक विशेष वर्ग भी होना चाहिये। इन योद्धाओं की सहायता से राज्य अपनी सुरक्षा और राज्य-क्षेत्र का विस्तार करता है।
  • दार्शनिक तत्त्व- राज्य के निर्माण का तीसरा आधार दार्शनिक तत्त्व है। इसका सम्बन्ध आत्मा के विवेक से है प्लेटो के मतानुसार सैनिक राज्य का संरक्षक होता है। रक्षक ज्ञान और विवेक द्वारा शत्रु और मित्र में भेद करके उनके साथ यथायोग्य व्यवहार करता है; अतः राज्य के संरक्षण के लिए विवेक का गुण होना आवश्यक है। सैनिक योद्धा में यह गुण सामान्य रूप से पाया जाता है, परन्तु इसका विशेष विकास पूर्ण संरक्षक अथवा शक्ति में पाया जाता है।

प्लेटो के मतानुसार संरक्षक भी दो प्रकार के होते हैं- (1) सहायक अथवा सैनिक संरक्षक, जिनका प्रमुख गुण शौर्य होता है। इनका प्रमुख कार्य देश की बाह्य आक्रमणों सेसुरक्षा करना तथा उसके प्रदेश का विस्तार करना है। (2) दार्शनिक संरक्षक-इनका मुख्य गुण विवेक या बुद्धि होता है, जो राज्य के वास्तविक संरक्षक होते हैं। वस्तुतः: शासक का विवेक विशेष रूप से इस बात में निहित है कि वह बुद्धिमान हो, शासित होने वाले प्रजाजनों से प्रेम करे, उनका कल्याण अपना कल्याण समझे, ‘उनके अहित में अपना अहित माने । वह अपने विवेक और प्रजा प्रम का भावना से गज्य की एकता को अपनाये ‘रखता है ।

“राज्य के निर्माण में आर्थिक आवश्यकतायें अथवा काम तत्त्व मनुष्यों को राज्य के रूप में संगठित होने की प्रेरणा देता है, उत्साह उनको सैनिक संगठन द्वारा सुदृढ़ बनाता है तथा विवेक एक दसरे के प्रति प्रेभ उत्पन्न करके इस संगठन की एकता और स्थायित्व को सुदृढ़ बनाता है।

आदर्श राज्य के मौलिक सिद्धान्त

प्लेटो के मतानुसार आदर्श राज्य के मौलिक सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

उसके दो पुत्रों कुमारगुप्त तथा गोविन्दगुप्त एक पुत्री -प्रभावती गुप्ता के नामों का

(1) न्याययह राज्य का संचालन करने वाला प्राण है।

(2) व्यक्ति का वृहद् रूपराज्य व्यक्ति का वृहत रूप है, व्यक्ति की सब विशेषताएँ रा में गयी जाती हैं।

(3) शिक्षा का सिद्धान्त- विभिन्न व्यक्तियों को अपने कार्यों का ज्ञान देने के लिये प्लेटो ने विशेष शिक्षा-पद्धति की व्यवस्था की है।

(4) श्रम-विभाजन- अपना कर्त्तव्य-पालन करने के लिये यह आवश्यक है कि समाज में श्रम-विभाजन हो, प्रत्येक व्यक्ति अपने विशेष कार्यों को दक्षता और योग्यता से करे।

(5) आत्मा के तीन तत्त्व- प्लेटो ने काम या क्षुधा उत्साह विवेक के आधार पर नागरिकों को उत्पादक वर्ग, सैनिक अथवा सहायक संरक्षक नामक तीन वर्गों में विभाजित किया।

(6) दार्शनिक, राजाओं का शासन- प्लेटो का यह विश्वास है कि शासक जब तक दार्शनिक नहीं होंगे, तब तक राज्यों में शान्ति और सुशासन स्थापित नहीं हो सकता। न्याय की स्थापना के लिए दार्शनिक राजाओं का शासन अनिवार्य है ।

(7) साम्यवाद- दार्शनिक को सुशासक बनाये रखने के लिये यह आवश्यक है कि व वैयक्तिक समाप्ति और परिवार न रखें, कामिनी और कंचन के मोह से मुक्त होकर अपने कर्तव्य का पालन करें। इसलिए प्लेटो के शासक का न तो अपना कोई परिवार होता है और न सम्पत्ति । प्लेटो इन्हें भ्रष्टाचार के साधक मानता है।

(8) नर-नारियों के समानाधिकार- अपने राज्य में वह नारियों को घर की चहारदीवारी बाहर निकाल कर शिक्षा, शासन आदि सभी क्षेत्रों में पुरुषों के बराबर अधिकार प्रदान करता है|

(9) प्लेटो का राज्य विशुद्ध आध्यात्मिक और नैतिक लक्ष्य वाला है।

(10) राज्य का हित सर्वोपरि तथा प्रधान है, व्यक्ति राज्य का अंश मात्र है.

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