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सूरदास की जीवनी

सूरदास की जीवनी

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जीवन परिचय

सूरदास के जन्म-स्थान एवं जन्म-तिथि के विषय में विद्वानों में बहुत मतभेद हैं। कुछ विद्वान् इनका जन्म वैशाख सुदी संवत् 1535 (सन् 1478 ई०) में स्वीकार करते हैं तथा कुछ विद्वान् इनका जन्म रुनकता नामक प्राम में संवत् 1540 में मानते हैं कुछ विद्वान् सीही नामक स्थान को सूरदास का जन्म-स्थल मानते हैं। इनके पिता का नाम पं० रामदास सारस्वत था। सूरदासजी जन्मान्ध थे या नहीं, इस सम्बन्ध में भी अनेक मत है। कुछ लोगों का मत है कि प्रकृति तथा बाल-मनोवृत्तियों एवं मानव-स्वभाव का जैसा सूक्ष्म और सुन्दर वर्णन सूरदास ने किया है, वैसा कोई जन्मान्ध व्यक्ति कदापि नहीं कर सकता।

सूरदासजी वल्लभाचार्य के शिष्य थे और उनके साथ ही मथुरा के गऊघाट पर श्रीनाथजी के मन्दिर में रहते थे। सूरदास का विवाह भी हुआ था तथा विरक्त होने से पहले ये अपने परिवार के साथ रहा करते थे। पहले वे विनय के पद गाया करते थे, किन्तु वल्लभाचार्य के सम्पर्क में आकर कृष्ण-लीला गान करने लगे। कहा जाता है कि सूरदासजी से एक बार मथुरा में तुलसीदास की भेंट हुई थी और दोनों में प्रेम-भाव भी बढ़ गया था। सूर से प्रभावित होकर ही तुलसीदास ने ‘श्रीकृष्ण-गीतावली’ की रचना की थी।

सूरदासजी की मृत्यु संवत् 1640 (सन् 1583 ई०) में गोवर्धन के पास पारसौली नामक ग्राम में हुई थी।

सूरदास का नाम कृष्ण भक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित करने वाले भक्त कवियों में सर्वोपरि है। हिंन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं। हिंदी कविता कामिनी के इस कमनीय कांत ने हिंदी भाषा को समृद्ध करने में जो योगदान दिया है, वह अद्वितीय है। सूरदास हिंन्दी साहित्य में भक्ति काल के सगुण भक्ति शाखा के कृष्ण-भक्ति उपशाखा के महान कवि हैं।

साहित्यिक व्यक्तित्व

हिन्दी काव्य-जगत् में सुरदास कृष्णभक्ति की अगाध एवं अनन्त भावधारा को प्रवाहित करनेवाले कवि माने जाते हैं। इनके काव्य का मुख्य विषय कृष्णभक्ति है। इन्होंने अपनी रचनाओं में राधा-कृष्ण की लीला के विभिन्न रूपों का चित्रण किया है। इनका काव्य ‘श्रीमदभागवत’ से अत्यधिक प्रभावित रहा है, किन्तु उसमें इनकी विलक्षण मौलिक प्रतिभा के दर्शन होते हैं। अपनी रचनाओं में सूरदास ने भावपक्ष को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। इनके काव्य में बाल-भाव एवं वात्सल्य – भाव की जिस अभिव्यक्ति के दर्शन होते हैं, उसका उदाहरण विश्व – साहित्य में अन्यत्र प्राप्त करना दुर्लभ है। ‘भ्रमरगीत’ में इनके विरह – वर्णन की विलक्षणता भी दर्शनीय है। सूरदास के ‘भ्रमरगीत’ में गोपियों एवं उद्धव के संवाद के माध्यम से प्रेम, विरह, ज्ञान एवं भक्ति का जो अद्भुत भाव व्यक्त हुआ है, वह इनकी महान् काव्यात्मक प्रतिभा का परिचय देता है।

कृतियाँ

भक्त-शिरोमणि सूरदास ने लगभग सवा-लाख पदों की रचना की थी। ‘नागरी प्रचारिणी सभा, काशी’ की खोज तथा पुस्तकालय में सुरक्षित नामावली के आधार पर सूरदास के ग्रन्थों की संख्या 25 मानी जाती है, किन्तु उनके तीन ग्रन्थ ही उपलब्ध हुए हैं

(1) सूरसागर- ‘सूरसागर’ एकमात्र ऐसी कृति है, जिसे सभी विद्वानों ने प्रामाणिक माना है। इसके सवा लाख पदो में से केवल 8-10 हजार पद ही उपलब्ध हो पाए हैं। ‘सूरसागर’ पर ‘श्रीमद् भागवत’ का प्रभाव है। सम्पूर्ण ‘सूरसागर’ एक गीतिकाव्य है। इसके पद तन्मयता के साथ गाए जाते हैं।

(2) सूरसारावली- यह ग्रन्थ अभी तक विवादास्पद स्थिति में है, किन्तु कथावस्तु, भाव, भाषा, शैली और रचना की दृष्टि से निस्सन्देह यह सुरदास की प्रामाणिक रचना है। इसमें 1,107 छन्द हैं।

(3) साहित्यलहरी- ‘साहित्यलहरी’ में सूरदास के 118 दृष्टकूट-पदों का संग्रह है। ‘साहित्यलहरी’ में किसी एक विषय की विवेचना नहीं हुई है। इसमें मुख्य रूप से नायिकाओं एवं अलंकारों की विवेचना की गई है। कहीं-कहीं पर श्रीकृष्ण की बाल-लीला का वर्णन हुआ है तथा एक-दो स्थलों पर ‘महाभारत’ की कथा के अंशों की झलक भी मिलती है।

इसके अतिरिक्त ‘गोवर्धन-लीला’, ‘नाग-लीला’, ‘पद संग्रह’ एंवं ‘सूर-पचीसी’ ग्रन्थ भी प्रकाश में आए हैं।

हिन्दी-साहित्य में स्थान –

महाकवि सूरदास हिन्दी के भक्त कवियों में शिरोमणि माने जाते हैं। जयदेव, चण्डीदास, विद्यापति और नामदेव की सरस वाम्धारा के रूप में भक्ति-शृंगार की जो मन्दाकिनी कुछ विशिष्ट सीमाओं में बँधकर प्रवाहित होती आ राही थी उसे सूर ने जन-भाषा के व्यापक घरातल पर अवतरित करके संगीत और माधुर्य से मण्डित किया। भाषा की दृष्टि से तो संस्कृत साहित्य में जो स्थान वाल्मीकि का है, वही ब्रजभाषा के साहित्य में सर का है।

काव्यगत विशेषताएँ

काव्य-कला के अनुसार सूर-काव्य में निम्नांकित विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं-

(अ) भावपक्षीय विशेषताएँ

(1) वात्सल्य-वर्णन –

हिन्दी-साहित्य में सूर का वात्सल्य-वर्णन अद्वितीय है। उन्होंने अपने काव्य में श्रीकृष्ण की विविध बाल-लीलाओं की सुन्दर झाँकी प्रस्तुत की है। माता यशोदा का उन्हें पालने में झुलाना. श्रीकृष्ण का घुटनों के बल चलना, किलकारी मारना, बड़े होने पर माखन की हठ करना, सखाओं के साथ खेलने जाना, उनकी शिकायत करना, बलराम का चिढ़ाना, माखन की चोरी करना आदि विविध प्रसंगों को सूर ने अत्यन्त तन्मयता तथा रोचकता के साथ प्रस्तुत किया है। माखन चुराने पर जब श्रीकृष्ण पकड़े जाते हैं तो वे तुरन्त कह उठते हैं-

मैया मैं नहिं माखन खायो।

ख्याल परै ये सखा सबै मिलि, मेरे मुख लपतयौ॥

श्रीकृष्ण दूध नहीं पीते। इस पर माता यशोदा कहती हैं कि दूध पीने से तेरी चोटी लम्बी और मोटी हो जाएगी। इसलिए जब माता दूध पीने के लिए कहती हैं तो वे तुरन्त ही दूध पी लेते हैं। दूध पीने के बाद वे चोटी को टटोलकर देखते हैं कि कितनी लम्बी हो गई, परन्तु वह तो छोटी-की-छोटी ही है। इस पर वे माता से कह उठते हैं-

मैया कबहूँ बढ़ैगी चोटी।

किती बार मोहि दूध पियत भइ़, यह अजहूँ है छोटी॥

बाल-हृदय की ऐसी कितनी ही सुन्दर एवं मनोरम झाँकियाँ सूर के काव्य में भरी पड़ी हैं। इस सन्दर्भ में आचार्य रामचन्द्र शक्ल ने लिखा है-“वात्सल्य और श्रृगार के क्षेत्रों का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बन्द आँखों से किया, उतना संसार के किसी और कवि ने नहीं। इन क्षेत्रों का वे कोना-कोना झाँक आए।”

( 2 ) श्रृंगार-वर्णन –

श्रृंगार-वर्णन में सूर को अद्भुत सफलता मिली है। इन्होंने राधा-कृष्ण और गोपियों की संयोगावस्था के अनेक आकर्षक चित्र प्रस्तुत किए हैं। राधा और श्रीकृष्ण के परिचय का यह चित्र देखिए-

बूझत स्याम कौन तू गोरी।

कहाँ रहत काकी तू बेटी? देखी नहीं कहूँ ब्रज खोरी॥

संयोग के साथ सूर ने वियोग के भी अनेक चित्र प्रस्तुत किए हैं। श्रीकृष्ण मथुरा चले जाते हैं। गोपियाँ, राधा, यशोदा, गोप, पशु-पक्षी एवं ब्रज के सभी जड़-चेतन उनके विरह में व्याकुल हो उठते हैं। यहां तक कि सयाग की स्थितियों में सुख प्रदान करनेवाली कुंज जैसी सभी वस्तुएँ वियोग के क्षणों में दुःखदायक बन गई है-

बिनु गुपाल बैरिन भई कुंजैं।

इस प्रकार सूर ने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का सशकत चित्रण किया है।

(3) भक्ति-भावना –

सूर की भक्ति सखा-भाव की है। इन्होंने श्रीकृष्ण को अपना मित्र माना है। सच्चा मित्र अपने मित्र से कोई परदा नहीं रखता और न ही किसी प्रकार की शिकायत करता है। सूर ने बड़ चतुराई से काम लिया है। अपने उद्धार के लिए उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा है कि मैं तो पतित हूँ ही, लेकिन आप तो पतित-पावन हैं। आपने मेरा उद्धार नहीं किया तो आपका यश समाप्त हो जाएगा; अत: आप पने यश की रक्षा कीजिए-

कीजै प्रभु अपने बिरद की लाज।

महापतित कबहूँ नहिं आयौ, नैकु तिहारे काज॥

इस प्रकार सूर की भक्ति-भावना में अनन्यता, निश्छलता एवं पावनता विद्यमान है।

(4) विषयवस्तु में मौलिकता –

सूर ने यद्यपि ‘श्रीमद्भागवत’ के दशम स्कन्ध्र को अपने काव्य का आधार बनाया है, परन्तु उनकी विषयवस्तु में सर्वत्र मौलिकता विद्यमान है। इन्होंने बहुत कम स्थलों पर श्रीकृष्ण के अलौकिक रूप को चित्रित किया है। ये सर्वत्र मानवीय रूप में ही चित्रित किए गए हैं। राधा की कल्पना और गोपियों के प्रेम की अनन्यता में उनकी मौलिकता की अखण्ड छाप दिखाई देती है।

(5) प्रकृति-चित्रण –

सूरदास के काव्य में प्रकृति का प्रयोग कहीं पृष्ठभूमि रूप में, कहीं उद्दीपन रूप में और कहीं अलंकारों के रूप में किया गया है। गोपियों के विरह-वर्णन में प्रकृति का प्रयोग सर्वाधिक मात्रा में किया गया है।

(6) प्रेम की अलौकिकता –

राधा-कृष्ण व गोपी-कृष्ण-प्रेम में सूर ने प्रेम की अलौकिकता प्रदर्शित की है। उद्धव गोपियों को निराकार ब्रह्म का सन्देश देते हैं; परन्तु वे किसी भी प्रकार उद्धव के दृष्टिकोण को स्वीकार न करके श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम का परिचय देती हैं।

(ब) कलापक्षीय विशेषताएँ

(1) भाषा –

सूर ने ब्रजराज श्रीकृष्ण की जन्मभूमि ब्रज की लोक-प्रचलित भाषा को अपने काव्य का आधार बनाया है। इन्होंने बोलचाल की ब्रजभाषा को साहित्यिक स्वरूप प्रदान किया। लोकोक्तियों के प्रयोग से भाषा में चमत्कार उत्पन्न हुआ है। कहीं-कहीं अंवधी, संस्कृत, फारसी आदि भाषाओं के शब्दों का प्रयोग भी मिलता है, परन्तु भाषा सर्वत्र सरस, सरल एवं प्रवाहपूर्ण है।

(2) शैली –

सूर ने मुक्तक काव्य-शैली को अपनाया है। कथा-वर्णन में वर्णनात्मक शैली का प्रयोग हुआ है। दृष्टकूट पदों में क्लिष्टता का समावेंश हो गया है। समग्रत: उनकी शैली सरल एवं प्रभावशाली है।

(3) अलंकार –

सूर ने अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग किया है। उनमें कृत्रिमता कहीं नहीं है। उनके काव्य में उपमा, उठ्पेक्षा, प्रतीप, व्यतिरेक, रूपक, दृष्टान्त तथा अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों के प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुए हैं।

(4) छन्द –

सूर ने अपने काव्य में चौपाई, दोहा, रोला, छप्पय, सर्वैया तथा घनाक्षरी आदि विविध प्रकार के परम्परागत छन्दों का प्रयोग किया है।

(5) गेयात्मकता (संगीतात्मकता) –

सूर का सम्पूर्ण काव्य गेय है। उनके सभी पद किसी न- किसी राग रागिनी पर आधारित हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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