रामधारी सिंह 'दिनकर'

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (Ramdhari Singh Dinkar)

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (Ramdhari Singh Dinkar)

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जीवन-परिचय

जन-चेतना के गायक और क्रान्तिकारी कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म बिहार प्रान्त के सिमरिया, जिला बेगूसराय (पुराना जिला मुंगेर) में, सन् 1908 ई० में हुआ था। उन्होंने बी०ए० तक शिक्षा ग्रहण की। इसके पश्चात् उन्होंने एक माध्यमिक विद्यालय में प्रधानाचार्य के रूप में कार्य किया। तत्पश्चात उन्होंने बिहार सरकार के सब-रजिस्ट्रार एवं प्रचार विभाग के उपनिदेशक, मुजफ्फरपुर के एक कॉलेज में हिन्दी-विभागाध्यक्ष, ‘भागलपुर विश्वविद्यालय’ के कुलपति तथा भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार के रूप में कार्य किया। वे राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे। सन् 1974 ई० में इस काव्य मनीषी का देहान्त हो गया।

 

साहित्यिक व्यक्तित्व

अपने राष्ट्रीय भाव से जनमानस की चेतना को नई स्फूर्ति प्रदान करनेवाले राष्ट्रीय कवि दिनकर छायावादोत्तर काल के सर्वश्रेष्ठ कवि थे। उन्हें प्रगतिवादी कवियों में भी सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है। दिनकरजी की काव्यात्मक प्रतिभा ने उन्हें अपार लोकप्रियता प्रदान की। उन्होंने सौन्दर्य, प्रेम, राष्ट्रप्रेम, लोक-कल्याण आदि अनेक विषयों पर काव्य-रचना की, किन्तु उनकी राष्ट्रीय भाव पर आधारित कविताओं ने जनमानस को सर्वाधिक प्रभावित किया।

दिनकर को क्रान्तिकारी कवि के रूप में भी प्रतिष्ठा मिली। उन्होंने ‘रश्मिरथी’ एवं ‘कुरुक्षेत्र’ जैसी रचनाओं में अपनी जिस प्रतिभा का परिचय दिया है, वह सदैव अविस्मरणीय रहेगा।

 

कृतियाँ

दिनरामधारी सिंह ‘दिनकर’ मूलत: सामाजिक चेतना के कवि थे। उनके व्यक्तित्व की छाप उनकी प्रत्येक रचना में दृष्टिगोचर होती है। उनकी प्रमुख काव्य-रचनाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार हैं-

(1) रेणुका- इस कृति में अतीत के गौरव के प्रति कवि का आदर-भाव तथा वर्तमान की नीरसता से दुःखी मन की वेदना का परिचय मिलता है।

(2) हुंकार- इस काव्य-रचना में वर्तमान दशा के प्रति आक्रोश व्यक्त हुआ है।

(3) रसवन्ती- इस रचना में सौन्दर्य का काव्यमय वर्णन हुआ है।

(4) सामधेनी- इसमें सामाजिक चेतना, स्वदेश-प्रेम तथा विश्व-वेदना सम्बन्धी कविताएँ संकलित हैं।

(5) कुरुक्षेत्र- इसमें ‘महाभारत के ‘शान्ति-पर्व के कथानक को आधार बनाकर वर्तमान परिस्थितियों का चित्रण ,किया गया है।

(6) उर्वशी, रश्मिरथी- इन दोनों काव्य-कृतियों में विचार-तत्त्व की प्रधानता है। ये दिनकर के प्रसिद्ध प्रबंध-काव्य हैं।

दिनकरजी की गद्य-रचनाओं में उनका विराट् ग्रन्थ ‘संस्कृति के चार अध्याय’ उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त उन्होंने कई समीक्षात्मक ग्रन्थ भी लिखे हैं।

 

काव्यगत विशेषताएँ

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(अ) भावपक्षीय विशेषताएँ

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने कविता को छायावाद के सम्मोहन से मुक्त किया तथा उसमें राष्ट्रवादी तथा प्रगतिशील विचारों को स्थान दिया। उनके काव्य की भावपक्षीय विशेषताओं का विवरण निम्नलिखित है-

(1) राष्ट्रीयता का स्वर- दिनकरजी राष्ट्रीय चेतना के कवि है। दिनकरजी का मत था कि राष्ट्रीयता हमारा सबसे बड़ा और महान धर्म है तथा पराधीनता हमारी सबसे बड़ी समस्या। इनकी कृतियाँ त्याग, बलिदान और राष्ट्रप्रेम की भावना से परिपूर्ण हैं। हिमालय का आह्वान करते हुए कवि का स्वर इस प्रकार गूँजता है-

ले अँगड़ाई हिल उठे धरा ,

कर निज विराट स्वर में निनाद।

हुंकार भरे। तू शैलराट !

फट जाय कुहा, भागे प्रमाद।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने भारत के कण-कण को जगाने का प्रयास किया है। हिमालय को जगाने के माध्यम से भारतीयों का जगाने का यह प्रयास कितना प्रभावपूर्ण बन पड़ो है-

ओ मौन तपस्यालीन यती,

पल भर कर तू दृगोन्मेष।

रे ज्वालाओं से दग्ध विकल,

है तड़प रहा पद-पद स्वदेश।

(2) प्रगातवाद- छायावाद के बाद का सबसे सबल साहित्यिक आन्दोलन ‘प्रगतिवाद’ है। दिनकरजी के काव्य में इसी प्रगतिवादी विचारधारा के दर्शन होते हैं। उन्होंने उजड़ते खलिहानों, जर्जरकाय कृषका और शोषित मजदूरी के मामिक चित्र अंकित किए हैं। वर्तमान यग की दयनीय दशा पर कवि ने तीव्र आक्रोश प्रकट करते हुए क्रान्ति का शंखनाद किया है-

सूखी रोटी खाएगा जब कृषक खेत में धर कर हल।

तब दूँगी मैं तृप्ति उसे बनकर लोटे का गंगा जल।

दिनकरजी की ‘हिमालय’, ‘ताण्डव’, ‘बोधिसत्व’, ‘कस्मै दैवाय’, ‘पाटलिपुत्र की गंगा आदि सभी रचनाएँ प्रगतिवादी विचारधारा पर ही आधारित हैं।

(3) प्रेम और सौन्दर्य- कवि ने स्वीकार किया है कि राष्ट्रीय चेतना उनके भीतर से नहीं जन्मी, वरन् परिस्थितियों के फलस्वरूप उत्पन्न हुई है। सच तो यह है कि दिनकरजी सुकुमार कल्पनाओं के कवि हैं। कोमलता और सुकुमारता से उनकी कोई काव्य-भूमि अछती नहीं है। उनके द्वारा रचित काव्य-ग्रन्थ ‘रसवन्ती’ की कविताएँ प्रेम और सौन्दर्य से परिपूर्ण हैं। उनका ‘उर्वशी’ काव्य तो प्रेम और शृंगार का खजाना है।

(4) रस-निरूपण- दिनकरजी को प्रायः वीर रस का कवि माना जाता रहा है। वास्तव में ओज के क्षेत्र में दिनकर जी ने महानतम कार्य किया है, किन्तु उनके काव्य में शृंगार और करुण रस को भी उतना ही महत्त्व प्राप्त है।

(ब) कलापक्षीय विशेषताएँ

भावपक्षीय विशेषताओं के साथ ही दिनकरजी का कलापक्ष भी बड़ा सबल और प्रौढ़ है। उनके काव्य में कलापक्ष की निम्नलिखित विशेषताएँ दर्शनीय हैं-

(1) परिष्कृत खड़ीबोली- दिनकरजी भाषा के मर्मज्ञ हैं। उनकी भाषा उनके व्यक्तित्व से प्रभावित है । उनकी भाषा परिष्कृत खड़ीबोली है। वह बोलचाल की भाषा से थोड़ी अलग है। छायावादी कवियों के समान उनकी भाषा कोहरे में डूबी हुई नहीं है; वरन् पूरी तरह स्पष्ट है और उसमें भावों को ब्यक्त करने की अद्भुत क्षमता है। उसमें चित्रात्मकता, ध्वन्यात्मकता और मनोहारिता है।

(2) अलंकार-योजना- दिनकरजी के काव्य में अलंकार बाहर से थोपे हुए नहीं हैं। अनुभूति को साकार रूप देने के लिए वे बिना किसी प्रयास के प्रयुक्त हुए हैं। उन्होंने मुख्य रूप से उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त आदि अलंकारों के प्रयोग किए हैं। उपमा अलंकार का एक नया रूप इन पंक्तियों में प्रस्तुत है-

लदी हुई कलियों से मादक टहनी एक नरम-सी।

यौवन की वनिता-सी भोली गुमसुम खड़ी शरम-सी।

(3) छन्द-योजना– दिनकरजी के काव्य में विविध प्रकार के छन्दों का सुन्दर प्रयोग हआ है। प्रारम्भ में उन्होंने मुक्त-छन्द को स्वीकार नहीं किया, किन्तु समय के साथ-साथ उनकी विचारधारा में परिवर्तन आया और वे छन्द-बन्धन से मुक्त कविता में ही वास्तविक काव्य-वन्दना करने लगे।

 

हिन्दी-साहित्य में स्थान

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की गणना आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ कवियों में की जाती है, हिन्दी काव्य-जगत् में क्रान्ति, ओज और प्रेम के स्जक के रूप में उनका योगदान अविस्मरणीय है। विशेष रूप से राष्ट्रीय चेतना एवं जागृति उत्पन्न करनेवाले कवियों में उनका विशिष्ट स्थान है। उनकी भाषा में ओज और भावों में क्रान्ति की ज्वाला है। अतीत के चित्रों को अपनी मावना के अनुरूप अलंकृत करने की दृष्टि से, कोई भी उनकी समता नहीं कर पाया है। वे भारतीय संस्कृति के रक्षक, क्रान्तिकारी चिन्तक, अपने युग का प्रतिनिधित्व करने वाले अमर कवि और भारतीय जन-जीवन के निर्भीक शंखनाद थे।

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