राजनीति विज्ञान / Political Science

टामस हॉब्स के सामाजिक समझौता सिद्धान्त | Thomas Hobbes’ Social Compromise Theory in Hindi

टामस हॉब्स के सामाजिक समझौता सिद्धान्त | Thomas Hobbes’ Social Compromise Theory in Hindi

हॉब्स की राजनीतिक विचारधारा में सर्वप्रथम स्थान उसके सामाजिक समझौता सिद्धान्त का है, जिसका वर्णन उसने विभिन्न चरणों में किया है- (टामस हॉब्स के सामाजिक समझौता सिद्धान्त)

मानव स्वभाव का चित्रण-

हॉव्स का मूलमन्त्र ‘स्वयं को पढ़ो (Read Thyself) है और वह इस बात पर बल देता है के राजनीतिक समाज का प्रत्येक अध्ययन मानव स्वभाव के चिन्तन से प्रारम्भ होना चाहिए। मानव स्वभाव के सम्बन्ध में हॉब्स के विचार हमें सबसे पहले 1640 ई0 में प्रकाशित ‘डी कार पोरे पॉलिटिको’ में मिलते हैं और उसके बाद ‘लेवायथन’ के प्रथम भाग के अन्तिम चार अध्यायों के प्रारम्भ में हॉब्स मानव का चित्रण एक स्वार्थी और भयत्रस्त प्राणी के रूप में करता है, जो सदैव स्वयं अपने ही हित साधन की चेष्टा में लगा रहता है। अपने स्वार्थ के लिए वह निरन्तर लड़ाई-झगड़ा करता रहता है। उसका मुख्य उद्देश्य अपने यश को बढ़ाना होता है और उसमें शक्ति वृद्धि की लिप्सा बराबर बनी रहती है। यह लिप्सा उसे बराबर क्रियाशील रखती है और यह इतनी तीव्र होती है कि इसकी वजह से वह बराबर बेचैन रहता है। मनुष्य की यह लिप्सी तभी लुप्त होती है जबकि उसकी मृत्यु हो जती है।

हॉब्स के अनुसार मानव प्राणियों का परीक्षण यह सिद्ध करता.है कि उनमें कोई बहुत बड़ा अन्तर या विषमता नहीं है। वे सब लगभग बराबर हैं। “शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों के दृष्टिकोण से प्रकृति ने सब मनुष्यों को इतना बराबर बनाया है कि यद्यपि एक व्यक्ति दूसर की अपेक्षा शारीरिक रूप से अधिक बलिष्ठ और बौद्धिक रूप से अधिक तीक्ष्ण हो सकता है, किन्तु यदि सब बातों को ध्यान में रखा जाय तो मनुष्य-मनुष्य में अन्तर कुछ अधिक नहीं है।“ इस प्रकार अपने लक्ष्य प्राप्ति की योग्यता सभी व्यक्तियों में समान है।

होब्स मनुष्य को इतना अधिक आत्म-केन्द्रित, स्वार्थी और भयत्रस्त प्राणी मानता है कि उसके अनुसार मनुष्य में निःस्वार्थता का गुण है ही नहीं। दया की भावना देखने में निःस्वार्थ जान पड़ती है, पर हॉब्स उसका भी स्वार्थ रूप में ही विश्लेषण करता है। उसके अनुसार जब हम किसी दुखी व्यक्ति को देखते हैं तो हमें भय उत्पन्न होता है कि कहीं हमारी भी ऐसी दशा न हो जा। इस भय से हमें क्लेश का अनुभव होता है और यही दया का मूल है। इस प्रकार धर्म भी भय पर ही निर्भर है।

प्राकृतिक अवस्था-

राज्य की उत्पति से पूर्व की स्थिति को हॉब्स प्राकृतिक अवस्था की संज्ञा देता है और मानवीय स्वभाव का चित्रण करने के बाद वह यह बताता है कि ऐसी प्रकृति वाले मनुष्यों की प्राकृतिक अवस्था में क्या दशा होती है। हॉब्स इस सम्बन्ध में तार्किक ढंग से आगे बढ़ा और उसकी प्राकृतिक अवस्था वैसी ही है, जैसी कि पूर्णतया स्वार्थी और समान शक्तियों वाले मनुष्यों की नियन्त्रण सत्ता के अभाव में हो सकती है। हॉब्स ने प्राकृतिक अवस्था की जो कल्पना की है, वह वस्तुतः अराजकता का ही दूसरा नाम है और इस अवस्था में सबका सभी से निरन्तर संघर्ष या युद्ध चलता रहता है। इस स्थिति के सम्बन्ध में हॉब्स ने लिखा है “हम मानव स्वभाव में संघर्ष के तीन मुख्य कारण देखते हैं-प्रतिस्पद्धा (Competition), भय (Fear), और यश (Glory)। प्रतिस्पर्धा के कारण वे लाभ के लिए, भय के कारण रक्षा के लिए और यश के कारण प्रसिद्धि के लिये निरन्तर संघर्ष करते रहते हैं।”

हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था ‘शक्ति ही सत्य है’ की धारणा पर आधारित थी और इसके अन्तर्गत “जो कोई भी जो कुछ भी ले सके और जितनी देर अपने पास रख सकने में समर्थ हो, वही उतने समय के लिए उसका हो जाता था।” इस अवस्था में मनुष्यों का जीवन दुखमय होना अवश्यम्भावी है और किसी प्रकार की प्रगति की कल्पना नहीं की जा सकती है। हॉब्स के ही अनुसार, “ऐसी दशा में उद्योग, संस्कृति, जल परिवहन, भवन निर्माण, यातायात के साधनों, ज्ञान व समाज, आदि के लिए कोई स्थान नहीं होता तथा मनुष्य का जीवन एकाकी, दीन, अपवित्र, पाशविक तथा क्षीण होता है।”

हॉब्स प्राकृतिक अवस्था की अपनी इस कल्पना को किसी ऐतिहासिक प्रमाण के आधार पर सिद्ध नहीं करता, वरन् अनुमान करता है कि प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य की दशा इसी से मिलती-जुलती रही होगी। वह अपने अनुमान के पक्ष में तर्क देते हुए कहता है कि इंगलैण्ड में गृह-युद्ध के दौरान, जब कोई सम्प्रभु शासक नहीं था, ऐसी दशा हुई थी और ऐसी दशा आजकल उन जातियों की पायी जाती है जो असभ्यता के कारण राजनीतिक व्यवस्था स्थापित नहीं कर सकती हैं। अन्तर्राष्ट्रीय जगत का उदाहरण देते हुए हॉब्स कहता है कि सभी राज्यों पर कोई उच्च सत्ता न होने के कारण ही वे प्राकृतिक अवस्था में रहते हैं और उनमें परस्पर युद्ध होता रहता है। अपने इन उदाहरणों के आधार पर हॉब्स कहता है कि मनुष्यों को एक-दूसरे के साथ रहने में सुख नहीं, वरन् बड़ा दुख और कष्ट मिलता है और इसलिए वे एक-दूसरे के साथ तभी रह सकते हैं, जबकि उन्हें शक्ति के आधार पर ऐसा करने के लिए बाध्य किया जाय।

प्राकृतिक अधिकार तथा प्राकृतिक कानून-

हॉब्स के अनुसार प्राकृतिक अधिकार और प्राकृतिक कानून में बड़ा अन्तर है। उसके मतानुसार प्राकृतिक अधिकार का अर्थ है कि “प्रत्येक मनुष्य को आत्म-रक्षा हेतु आवश्यक समस्त कार्यों को करने की स्वतन्वता है।” प्राकृतिक कानून की कल्पना इससे भिन्न हैं। उसके द्वारा मनुष्य को ऐसे कार्य करने से रोका जाता है जो उसकी सबसे प्रबल इच्छा अर्थात् प्राण-रक्षा के लिए घातक हों। प्राकृतिक अधिकार से स्वतन्त्रता का आभास होता है और प्राकृतिक कानून से दायित्व का।”

मनष्य के प्राकृतिक अधिकार को एक निरन्तर संघर्ष की स्थिति को जन्म देते हैं, किन्तु इसके विपरीत प्रकृति के कानून बुद्ध द्वारा निर्दिष्ट वे नियम हैं जिनके अनुसार आचरण करके यक्ति सगमतापर्वक अपने जावन की रक्षा कर सकते हैं और प्राकृतिक अवस्था की अराजकता से बच सकते हैं। हॉब्स इस प्रकार 19 प्राकृतिक नियमों की कल्पना करता है, जिनमें 3 अधिक महत्त्वपूर्ण हैं-प्रथम, प्रत्येक व्यक्ति को शान्ति स्थापित करने की भरसक चेष्टा करनी चाहिए। द्वितीय, प्रत्येक व्यक्ति को आत्म-रक्षा का अधिकार प्राप्त करने और शान्ति स्थापित रखने के लिए प्राकृतिक अधिकारों का त्याग करने को तत्पर रहना चाहिए और दूसरों के विरुद्ध उतनी स्वतन्त्रता पर ही सन्तोष कर लेना चाहिए, जितनी वह दूसरों को स्वयं के विरुद्ध देने के लिए तैयार हों। तृतीय, नियम यह है कि व्यक्ति द्वारा उन समझौतों का पालन किया जाना चाहिए, जो स्वयं उसने किये हैं। इस प्रकार प्रकृति के ये नियम उन शर्तों की व्याख्या करते हैं जिनके आधार पर समाज का ढाँचा खड़ा किया जा सकता है। सेबाइन के शब्दों में, “वे एक ही साथ पूर्ण दूरदर्शिता के सिद्धान्त भी हैं और सामाजिक आधार के नियम भी।” प्रकृति के इन नियमों के सम्बन्ध में विशेष बात यह है कि उन्हें कानून केवल अलंकारिक भाषा में ही कहा जा सकता है। कानून उच्च सत्ता द्वारा दिया गया आदेश होता है और इसके पीछे बाध्यकारी शक्ति का बल होता है, किन्तु ये नियम विवेकपूर्ण परामर्श मात्र हैं, जिनका सामना किसी के लिए अनिवार्य नहीं है। ये तो वे शर्तें है जो आत्मरक्षा में सहायक हो सकती हैं, किन्तु जिनका पालन व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करती है।

अनुबन्ध और राज्य की उत्पत्ति-

प्राकृतिक अवस्था में प्राकृतिक नियम विद्यमान थे, किन्तु बाध्यकारी शक्ति के अभाव में सभी व्यक्तियों द्वारा उनका पालन नहीं किया जाता था, और जब तक सभी उनका पालन न करते, कोई एक व्यक्ति उनका सफलतापूर्वक पालन न कर सकता था। अतः आवश्यकता एक ऐसी संस्था की थी, जो शक्ति के आधार पर सभी व्यक्तियों को शान्ति रखने के लिए बाध्य कर सके। व्यक्तियों में स्वार्थ और असामाजिकता होते हुए भी आत्म-रक्षा, शान्ति और सुरक्षा की इच्छा को विद्यमान थी ही, अतः वे उपर्युक्त प्रकार की संस्था की स्थापना के लिए प्रेरित हुए।

हाब्स के अनुसार राज्य की स्थापना का केंव्रल एक ढंग है और वह है समस्त व्यक्तियों का अपनी समस्त शक्ति को एक व्यक्ति या व्यक्ति समूह के प्रति समर्पित कर देना। केवल इसी पद्धति को अपनाकर संघर्ष के मूल कारण इच्छाओं की अनेकता के स्थान पर एकता को जन्म दिया जा सकता है और प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको शासन के कार्यों का कर्ता समझकर उनका पालन कर सकता है। केवल इसी प्रकार से प्रजाजन शासक की इच्छा को अपनी इच्छा और उसके निर्णय को अपना निर्णय मान सकते हैं। हॉब्स के अनुसार राज्य की स्थापना व्यक्तियों द्वारा पारस्परिक समझौते के आधार पर की गयी है। हॉब्स ने इसका सूत्र इस प्रकार दिया है कि मानो प्रत्येक व्यक्ति से कहता हो कि “मैं अपने ऊपर शासन करने के सब अधिकार इस व्यक्ति या सभी को इस शर्त पर देता हूँ और उनकी सत्ता इस शर्त पर स्वीकार करता हूँ कि तु भी इसी प्रकार अपने सब अधिकार इसे दे डाले और उसके सभी कार्यों को स्वीकार करे।“

यह वह सिद्धान्त है जिसके अनुसार राज्य का जन्म जनता के आपसी समझौते द्वारा हुआ। हॉब्स का सिद्धान्त संविदा सिद्धान्त की पूर्व व्याख्याओं से इस दृष्टि से भिन्न है कि इसके अनुसार राज्य का जन्म सामाजिक समझौते द्वारा हुआ है, शासकीय समझौते द्वारा नहीं। हॉब्स से पूर्व के संविदा लेखकों द्वारा जिस शासकीय समझौते का प्रतिपादन किया गया, उनका उद्देश्य इन सिद्धान्तों के आधार पर शासक की शक्ति को मर्यादित करना और जनता द्वारा भ्रष्ट शासको का पदच्युत करने के अधिकार का समर्थन करना था, किन्तु हॉब्स का समझौता सामाजिक हैं, वह जनता के द्वारा ही परस्पर किया गया है। शासक समझौता का एक पक्ष होने के स्थान पर वह उससे बाहर और ऊपर है और हॉब्स के द्वारा समझौते का यह रूप निरंकुश शासन का समरथन करने और जनता को प्रत्येक स्थिति में राज्याज्ञा के पालन का पाठ पढ़ाने क लिए किया गया है।

सम्प्रभुता का स्वरूप-

हॉब्स के इस सिद्धान्त का सर्वप्रथम और सर्वप्रमुख निष्कर्ष यह है कि हॉब्स राज्य को अपरिमित सम्प्रभुता प्रदान कर देता है और उसके अनुसार व्यक्तियों के लिए सभी परिस्थितियों में राज्य के आदेशों का पालन करना अनिवार्य है। सम्प्रभु शासक की शक्ति असीम है। वह किसी भी लौकिक उत्तरदायित्व से बाध्य नहीं है और उस पर संविधान, प्राकृतिक विधि या ईश्वरीय इच्छा का कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता है। सम्प्रभु को किसी भी प्रकार का कार्य करने से रोक सकने वाली एकमात्र शक्ति उसका अपना विवेक ही हैं। सम्प्रभु स्वयं अपने विवेक से ही पथ-प्रदर्शन करता है और किसी भी व्यक्ति को यह वताने का अधिकार नहीं हो सकता है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं?

सम्प्रभु शासक का कोई कार्य अवैधानिक नहीं हो सकता, क्योंकि वह स्वयं समस्त विधियों का स्रोत हैं। उसके द्वारा निर्मित विधियाँ प्रजा के आचरण को नियमित करने के लिए ही हैं। विधियों का तात्पर्य बताना या उनकी व्याख्या करना भी प्रजा का कार्य नहीं, वरन् सम्प्रभु का कार्य है और सम्प्रभु विधियों की जो भी व्याख्या करता है, वह आवश्यक रूप से उचित है। सम्प्रभु शासक के समक्ष व्यक्ति के कोई अधिकार नहीं हैं। वह जो चाहे अधिकार प्रजा को दे सकता है और उन्हें जब चाहे तब छीन सकता है, भाषण-स्वातन्त्र्य और सभी अधिकारों के सम्बन्ध में हाब्स का यही मत है।

हॉब्स के द्वारा सम्प्रभु को प्रजा पर अपनी इच्छानुसार कर लगाने का भी पूर्ण अधिकार दे दिया गया है। इस सम्बन्ध में हॉब्स का तर्क यह है कि सम्प्रभु के द्वारा ही मानव समाज में शान्ति स्थापित की जाती हैं, जिसके आधार पर मनुष्य उद्यम में लगकर धन संग्रह करते हैं। इस प्रकार सम्प्रभु, जो कि सम्पत्ति का विधाता और समस्त सम्पत्ति का स्वामी है, यदि कर लगाता है या प्रजा की सम्पत्ति को ले लेता है तो उसका यह कार्य अनुचित नहीं कहा जा सकता। सम्प्रभु न केवल आन्तरिक क्षेत्र में, वरनु, अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी पूर्ण स्वतन्त्र है। वह जब चाहे युद्ध की घोषणा कर सकता है या सन्धि करके शान्ति स्थापित कर सकता है और अपने इन कार्यों के लिए उसे किसी की पूर्व अनुमति प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं हैं।

प्रजा का अल्पमत समुदाय सम्प्रभु के आदेशों की अवहेलना नहीं कर सकता और यदि कोई समुदाय ऐसा करता है तो सम्प्रभु को इस बात का पूरा अधिकार है कि वह अपने विरोधी समुदाय का उन्मूलन कर डाल। वह इन व्यक्तियों पर राजद्रोह का आरोप लगाकर इन्हें जो चाहे दण्ड दे सकता है, किन्तु सम्प्रभु शासक को प्रजा अपनी तरफ से कोई दण्ड नहीं दे सकती, यदि वह ऐसा करती है, तो उसका कार्य अन्यायपूर्ण होगा।

सम्प्रभू की शक्तियों का प्रतिपादन करने के साथ-साथ उसने सम्प्रभु शासक के कर्त्तव्य या उत्तरदायित्व का भी उल्लेख किया है। उसके अनुसार सम्प्रभु का कर्तव्य है बाहरी और आन्तरिक आक्रमणों से प्रजा की रक्षा करना और राज्य में शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखना। यदि शासक प्रजा के प्रति इस कर्त्तव्य का पालन नहीं करता, तो प्रजा राजा की अवहेलना कर सकती है। प्रजा के सम्मुख समर्पण अपने जीवन की रक्षा के अधिकार के लिए किया गया है और द्वारा शास वे अपने इस अधिकार को शासन के विरुद्ध भी सुरक्षित रखते हैं। इसलिए वह प्रत्येक मनुष्य को राजा की अवज्ञा करने का अधिकार देता है, यदि राजा उसे, “अपने आपको मारने, घायल करने, अपने ऊपर आक्रमण करने वाले का विरोध ने करने अथवा वायु, औषधि या ऐसी किसी वस्त का सेवन न करने, जिसके बिना यह जीवित ही न रह सके” की आज्ञा दे। केवल इतना ही जहीं वरन यदि किसी व्यक्ति को राजा शत्रु से लड़ने और उसे अपना जीवन खतरे में डालने की आज्ञा दे तो वह व्यक्ति उसका अवहलना भी कर सकता है क्योंकि राजा की आज्ञा पालन का एकमात्र उद्देश्य आत्म-रक्षा ही है।

इस प्रकार हॉब्स की विचारघारा के अनुसार राज्य की स्थापना का एकमात्र कारण व्यक्ति की सरक्षा के लिए राज्य का आनवार्य होना है। राज्य मनष्य के आन्तरिक सामाजिक स्वभाव की अभिव्यक्ति नहीं है, यह स्वाभाविक विकास का परिणाम भी नहीं है। यह तो एक विशेष आवश्यकता की पूर्ति के लिए स्वयं व्यक्तियों द्वारा स्थापित एक साधने है। इस प्रकार हॉब्स का भावहीन बुद्धिवाद राज्य को केवल एक उपयोगिता के स्तर पर ले आता है और उसके सिद्धान्त में राजशक्ति के प्रति इस सम्मान और शक्ति का कोई स्थान नहीं है, जिस पर राजतन्त्र के भक्त इतना बल देते थे। इसी कारण क्लेरेण्डन (Clarendon) ने कहा था कि “इस प्रकार की युक्तियों से राजतन्त्र का समर्थन करने वाला हॉब्स यदि उत्पन्न ही न होता तो अच्छा था।”

हॉब्स के समझौते के सम्बन्ध में एक विशेष बात यह है कि हॉब्स का सिद्धान्त निरंकुश राजा का नहीं, बरन् निरंकुश राज्य का है। होॉब्स की विचारधारा के अनुसार राजतन्त्र, कुलीनतेन्त्र या गणतन्त्र किसी भी प्रकार की शासन व्यवस्था उचित है क्योंकि जहाँ तक मनुष्य के हित का सम्बन्ध है, प्राकृतिक अवस्था की अराजकता की अपेक्षा किसी प्रकार की वह सरकार अच्छी हैं, जिसमें शान्ति तथा व्यवस्ता कायम करने की सामर्थ्य हो।

इस प्रकार हॉब्स अपने सामाजिक अनुबन्ध के आधार पर निरंकुश राजतन्त्र का समर्थन तो करता है, किन्तु उसके इस सिद्धान्त में अनेक असंगतियाँ हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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