भूगोल / Geography

मृदा प्रदूषण । मृदा प्रदूषण के कारण । मृदा प्रदूषण के दुष्प्रभाव

मृदा प्रदूषण । मृदा प्रदूषण के कारण । मृदा प्रदूषण के दुष्प्रभाव

मृदा प्रदूषण (Soil Pollution)

मृदा से पेड़-पौधों को आवश्यक खनिज लवण, जल आदि मिलते हैं जिससे वे भोज्य पदार्थों का निर्माण करते हैं। इन पदार्थों को प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से पौधें ग्रहण करते हैं। अतः यह अति आवश्यक है कि मृदा में प्राकृतिक संतुलन बना रहे अन्यथा इसके प्रदूषण से जीव, जन्तुओं तथा पेड़-पौधों को हानि की सम्भावना रहती है।

भारत जैसे देश में जहाँ जनसंख्या असंतुलित रूप से बढ़ रही है जिसके कारण यहाँ भूमि प्रदूषण का खतरा बढ़ गया है।

मृदा प्रदूषण के मुख्य कारण (Major Causes of Soil Pollution)

  1. कचरा (Domestic Waste) जैसे-सूखी साग-भाजी, सूखी घास, धूल, राख, कागज, मछली, सड़ा माँस, धातु, काँच, टीन के डिब्बे, प्लास्टिक, जल, अषजली लकड़ी, गोबर आदि हो सकता है। प्रत्येक जगह इस कचरे के निस्तारण की समुचित व्यवस्था न होने के कारण हमारे देश में इसको कहीं भी फेंका जा सकता है। नगरपालिका व महापालिका द्वारा जो प्रयत्न इस संबंध में किये गये हैं वे पर्याप्त नहीं हैं।
  2. औद्योगिक व्यर्थ पदार्थों का निस्तारण न करना तथा पृथ्वी पर फेंक देना।
  3. मनुष्य तथा जलीव जन्तुओं के मलमूत्र का उचित निस्तारण न होना।
  4. पेड़-पौधों पर पेस्टीसाइड, सीसीसाइड, इनसेक्टीसाइड आदि को छिड़कते समय इन रसायनों का पृथ्वी पर गिरना।
  5. नाभिकीय विस्फोट, अनुसंधान के फलस्वरूप रेडियोधर्मी पदार्थों का पृथ्वी पर गिरना।
  6. जमीन पर कचरा, अस्पतालों के व्यर्थ पदार्थों को एकत्रित करके आग लगाना।
  7. निचली जमीन गड्ढों को कूड़ा-करकट आदि से शरना।
  8. कम्पोस्ट खाद को बनाते समय कूड़ा-करकट आदि का एकत्रित किया जाता है। इससे भी भूमि प्रदूषण का खतरा है।

मृदा प्रदूषण के प्रकार (Types of Soil pollution)

  1. रेडियोधर्मी प्रदूषण (Radioactive Pollution)
  2. जैविक प्रदूषण (Biotic Pollution)
  3. रसायनिक प्रदूषण (Chemical Pollution)

( 1 ) जैविक प्रदूषण- जैविक मृदा प्रदूषण अत्यन्त हानिकारक है। इससे अनेकों बीमारियाँ होने का खेतरा हो सकता है।

( 2 ) रेडियोधर्मी प्रदूषण- नाभिकीय विस्फोटों, नाभिकीय रियेक्टरों, अनुसंधान शालाओं से निकलने वाले विकिरण जीवों को हानि पहुँचा सकते हैं। 90 तथा सी एस 137 स्ट्रान्शियम तथा सीजियम के समस्थानिक बहुत हानिकारक होते हैं जिनका अर्धजीवन 28 तथा 30 वर्ष है। ये बहुत अधिक समय तक मृदा में रहते हैं। कुछ पौधे इनको मृदा से अवशोषित कर लेते हैं जिससे हानि होती है।

( 3 ) रासायनिक प्रदूषण- अधिक जनसंख्या के कारण मनुष्य को उत्पादन बढ़ाने में अधिक कृषि संबंधी रसायनों का प्रयोग करना पड़ रहा है। डी. डी. टी., लेड तथा मरकरी इस प्रकार के रसायन हैं जो मनुष्य, जीव-जन्तुओं तथा पौधों को हानि पहुँचाते हैं। ऐल्ड्रीन, आसेंनिक यौगिकों का भी प्रयोग कृषि में किया जाता है। ये बहुत विषेले होते हैं इनका अत्यन्त सावधानी से प्रयोग करना चाहिए। कुछ रसायन जिनका जैविक निम्नीकरण ही हो सकता है वे खाद्य श्रृंखला के माध्यम से मनुष्य तथा पौधों में प्रवेश कर जाते हैं। कीटनाशकों, खरपतवार नाशको तथा पेस्टीसाइड्स का आजकल अधिकता से प्रयोग होता है फसलों पर छिड़काव के समय इसकी बहुत सी मात्रा भूमि पर भी गिरती है जिससे मृदा प्रदूषण होता है।

मृदा प्रदूषण के दुष्प्रभाव

भू-प्रदूषण से होने वाले अनेकानेक दुष्प्रभाव देखे जा सके हैं। कुछ निम्नलिखित हैं-

  1. कूड़ा-करकट से जहाँ एक ओर वृश्यभूमि अस्वच्छ होती है तथा दुर्गन्ध फैलती है: वहीं दूसरी ओर मच्छर, मक्खी, कीड़े-मकोड़े तथा चूहों का उत्पात भी बढ़ता है। यही नहीं गंदगी में विभिन्न प्रकार की बीमारियों के कीटाणु भी तेजी से पनपते हैं। पेचिश, प्रवाहिका, आंत्रशोध, हैजा, मोतीझरा, आँखों के रोग विशेषकर नेत्र श्लेष्मा शोध, तपेदिक इत्यादि रोगों के कीटाणुओं, के प्रसार को गंदगी से बढ़ावा मिलता है।
  2. मानव मल का निष्कासन तथा निक्षेपण यदि समुचित ढंग से न हो तो इससे जन स्वास्थ्य के लिए गंभीर, संकट पैदा हो जाता है। मानव मल से जहाँ एक ओर वातावरण दूषित होता है वहीं दूसरी ओर अनेक प्रकार के रोगों का प्रसार भी होता है। टाइफाइड, पैराटाइफाइड, आंत्र शोथ, पेचिश, हैजा, संक्रामक यकृत शोथ, पोलियो आदि बीमारियाँ अपर्याप्त मलव्यवस्था के फलस्वरूप फैलती है।
  3. घरों से निकलने वाले व्यर्थ जल की समुचित व्यवस्था न होने पर यह जल घरों के बाहर सड़कों तथा गलियों मे यों ही बहा दिया जाता है। जिससे कीचड़ तथा दलदल बन जाते हैं। जिनमें मक्खी, मच्छर व अन्य कीड़े-मकोड़े पनपते हैं।
  4. आजकल कहीं-कहीं खेती में मल-जल द्वारा सिंचाई की जाती है जल-मल के लागातार प्रयोग से मृदा के छिद्रों की संख्या लगातार घटती चली जाती है। एक अवस्था ऐसी आती है जब मल-जल के ठोस कणों के जम जाने के कारण मृदा पूर्ण रूप से रुद्ध हो जाती है। इस अवस्था तक पहुँचने के बाद वायु मृदा के छिद्रों से परिसंचारित नहीं हो पाती हैं अत: मुदा में उपस्थित सूक्ष्म जीवों की वायुश्वसन क्रियायें जारी नहीं रह पाती हैं। इन अवायु परिस्थितियों में अवायुश्वसक विघटन के फलस्वरूप हाइड्रोजन सल्फाइड गैस पैदा होती है। इससे आसपास के क्षेत्र में दुर्गन्ध फैलती है। इस अवस्था में भूमि की प्राकृतिक मल जल उपचार क्षमता पूर्णतः नष्ट हो जाती है। भूमि जल-मल की और अधिक मात्रा स्वीकार नहीं कर पाती है जब कोई भूमि इस अवस्था में पहुँच जाती है तो उसे रोगी भूमि की संज्ञा देते हैं।
  5. विभिन्न प्रकार के अपशिष्ट के निक्षेपण में विभिन्न सफाई व्यवस्थाओं के रख- रखाव पर बहुत खर्च आता है। इसके अतिरिक्त निकास नालो के अवरुद्ध होने या सफाई कर्मचारियों द्वारा हड़ताल किये जाने पर स्थिति बहुत गंभीर हो जाती है।
  6. दुर्घटना या असावधानीवश औद्योगिक अपशिष्टों द्वारा जल स्रोतों या भूमि के संदूषण से विभिन्न जानवरों तथा स्वयं मानव के स्वास्थ्य को हानि होने की संभावना रहतीं है।
  7. बहुधा ठोस अपशिष्ट को निक्षेपण हेतु भूमि में निर्माज्जित कर दिया जाता है। इससे एक तो अनवीकरणीय धातुओं विशेषकर ताँबा, जिंक, लेड इत्यादि की प्रभावकारी हानि होती है तथा दूसरे विजातीय तत्वों के समावेश से मृदा की प्रकृति में परिवर्तन आता है।

इसके अतिरिक्त दलदलीय स्थानों के इस प्रकार अपशिष्ट द्वारा भरण से दलदल पर निर्भर कई पक्षियों तथा जलीय जीवों पर प्रभाव पड़ता है तथा गंभीर पारिस्थितिक समस्या उत्पन्न होती है।

मृदा प्रदूषण नियन्त्रण के उपाय

मृदा प्रदूषण के प्रभावों को देखते हुए इस पर नियंत्रण नितान्त आवश्यक है। मिट्टी कृषकों का धन है। इसके गुणों के ह्रास से न केवल कृषक ही बल्कि देश की अर्थव्यवस्था, मानव स्वास्थ्य, जीव-जन्तु वनस्पतियाँ आदि भी प्रभावित होती है। जन्तु जगत एवं पादप जगत का अस्तित्व मिट्टी पर आधारित होता है। मृदा प्रदूषण पर नियंत्रण के निम्नांकित उपाय हैं-

जीवनाशी रसायनों के प्रयोग को परिसीमित कर समन्वित कीट प्रबन्ध (Integrated Pest Management) प्रणाली को अपनाया जाए।

रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर समन्वित पादप पोषण प्रबन्धन (Integrated Plant Nutrient Management) से मिट्टी के मौलिक गुण कालान्तर तक विद्यमान रहेंगे।

लवणता की अधिकता वाली मृदा के सुधार के लिए वेज्ञानिकों के सुझाव के अनुसार जिप्सम तथा पाइराइट्स जैसे रासायनिक मृदा सुधारकों का प्रयोग किया जाय ।

कृषि खेतों जल-जमाव को दूर करने के लिए जल-निकास की व्यवस्था , अति आवश्यक है।

वन कटाव पर प्रतिबन्ध लगा कर मृदा अपरदन तथा इसके पोषक तत्वों को सुरक्षित रखने के लिए मृदा संरक्षण प्रणालियों को अपनाया जाए।

झूर्मिंग कृषि पर प्रतिबन्ध के द्वारा भू-क्षरण की समस्या को कम किया जा सकता है।

बाढ़ द्वारा नष्ट होने वाली भूमि को बचाने के लिए योजनाओं का निर्माण एवं उनका क्रियान्वयन आवश्यक है।

भूमि उपयोग तथा फसल-प्रबन्धन पर ध्यान देना नितान्त आवश्यक है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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