टामस हॉब्स की व्यक्तिवाद विचारधारा

टामस हॉब्स की व्यक्तिवाद विचारधारा | Thomas Hobbes’s Individualism Ideology in Hindi

टामस हॉब्स की व्यक्तिवाद विचारधारा | Thomas Hobbes’s Individualism Ideology in Hindi

टामस हॉब्स की व्यक्तिवाद विचारधारा – हॉब्स ने जहाँ एक ओर निरंकुश तथा असीमित सम्प्रभुता का प्रतिपादन किया है वही दूसरी ओर उसकी विचारधारा में व्यक्तिवाद के भी स्पष्ट और प्रबल दर्शन होते हैं। यह बात असंगतिपूर्ण लगने पर भी वस्तुतः है पूर्णतया सत्य।

व्यक्तिवाद की मूल धारणा यह है कि जितने भी संघ, समुदाय, अन्य संस्थाएँ या राज्य हैं, वे व्यक्तियों द्वारा ही निर्मित हैं, व्यक्ति ही उनकी इकाई है और ये सब अपने में सम्मिलित व्यक्तियों से अधिक या भित्न कुछ भी नहीं हैं। इस दृष्टिकोण से व्यक्ति साध्य है और राज्य साधन मात्र। अतः व्यक्ति की बुराई-भलाई, सुख-दुख, आदि को राज्य और अन्य समुदाय की बुराई-भलाई या सुख-दुख समझा जाना चाहिए।

इस दृष्टि से हॉब्स पूर्ण व्यक्तिवादी है। डनिंग ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि “हॉब्स के सिद्धान्त में राज्य की शक्ति का उत्कर्ष होते हुए भी उसका मूल आधार पूर्ण रूप से व्यक्तिवादी है। वह सब व्यक्तियों की प्राकृतिक समानता पर उतना ही बल देता है जितना कि मिल्टन या अन्य किसी क्रान्तिकारी विचारक ने दिया है।”

हॉब्स की विचारधारा में व्यक्तिवाद निम्न रूपों में देखा जा सकता है-

  • मानव स्वभाव सम्बन्धी धारणा-

हॉब्स की मानव स्वभाव सम्बन्धी धारणा व्यक्तिवादी विचारधारा के अनुकूल है, समाजवाद या आदर्शवाद के अनुकूल नहीं। हॉब्स अरस्तू के समान व्यक्ति को एक सामाजिक प्राणी नहीं मानता वरन् असामाजिक प्राणी कहता है जो आत्मकेन्द्रित है और मनोवेगों, अहं और लोभ से प्रेरित होता है। हॉब्स की विचारधारा के अन्तर्गत यह व्यक्तिवाद का मनोवैज्ञानिक तत्व है और इसके आधार पर केवल व्यक्तिवादी धारणा की ही रचना हो सकती है।

  • राज्य एक कृत्रिम संस्था है-

हॉब्स एक समझौतावादी विचारक है और उसके अनुसार राज्य एक कृत्रिम संस्था है जिसका निर्माण सामाजिक समझौते के आधार पर हुआ है। हॉब्स का व्यक्ति प्राकृतिक अवस्था में पूर्ण स्वतन्त्र था और राज्य का निर्माण व्यक्तियों ने कुछ विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया है। इस प्रकार हॉब्स राज्य के प्रति समस्त भावनात्मकता का त्याग कर उसे बिशुद्ध उपयोगिता के स्तर पर ले जाता है। हॉब्स का यह विचार निरकुश राज्य के अनुरूप नहीं, वरन् व्यक्तिवाद के अनुरूप ही है। इसी कारण तो प्रो० सेबाइन ‘लेवायथन के सम्बन्ध में लिखते हैं कि “उसके सिद्धान्त स्टअर्ट राजाओं को जिनका कि वह समर्थन करना चाहता है दम्भपूर्ण उक्तियों के कम-से-कम उतने ही विरुद्ध थे. जितने कि उन क्रान्तिकारियों के, जिनका वह खण्डन करना चाहता था।”

  • राज्य साधन है व्यक्ति साध्य-

राज्य को एक कृत्रिम संस्था और समझौते का परिणाम मानने का तार्किक निष्कर्ष यह है कि राज्य साधन है और साध्य है व्यक्ति। राज्य व्यक्ति के लिए है व्यक्ति राज्य के लिए नहीं और राज्य का अस्तित्व व्यक्ति के जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए है। वेपर ने लिखा है कि, “राज्य मानव आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विद्यमान है और इसे नैतिक सत्ता शासितों की सहमति से प्राप्त होती है………. राज्य व्यक्तियों का लक्ष्य नहीं, वरन् व्यक्तिगत राज्य का लक्ष्य है।”

  • व्यक्ति को राज्य के प्रतिरोध का अधिकार-

हॉब्स के अनुसार राज्य की स्थापना व्यक्तियों के द्वारा आत्मरक्षा के लिए की गयी है। अतः राज्य की आज्ञा का पालन करना व्यक्ति का कर्त्तव्य है, लेकिन व्यक्ति से राज्य की केवल उन्हीं आज्ञाओं के पालन की आज्ञा की जा सकती है, जिनके पालन से व्यक्ति के आत्मरक्षा के अधिकार पर आगात न पहुँचता हो। हॉब्स लिखता है कि यदि सम्प्रभु व्यक्ति को “अपने आपकी हत्या करने, आक्रमणकारी को जख्मी न करने अथवा भोजन, वायु या दवाइयों के सेवन् से मना करता है, जिन पर उसका जीवन निर्भर करता है” तो हॉब्स कहता है कि व्यक्ति ऐसे आदेशों की अवज्ञा कर सकता है। हॉब्स का व्यक्ति सेना में भर्ती होने से मना कर सकता हे और केवल इतना ही नहीं, हॉब्स तो व्यक्ति को जेल से भाग जाने का भी परामर्श देता है यदि उसे मालुम हो जाय कि उसके विरुद्ध फौजदारी कार्यवाही की जा रही है।

व्यक्ति राज्य की शेष आज्ञाओं का पालन तभी कर सकता है, जब तक राज्य में व्यक्ति की जीवन रक्षा करने की सामर्थ्य हो। यदि सम्प्रभु में इस प्रकार की क्षमता नहीं हो व्यक्ति उसके विरुद्ध विद्रोह कर सकते हैं या आवश्यक होने पर किसी अन्य सम्प्रभु के प्रति भक्ति रख सकते हैं। हॉब्स के द्वारा व्यक्ति को राज्य के विरोध का जो अधिकार दिया गया है, वह निश्चित रूप से उसे व्यक्तिवाद की दिशा में ही ले जाता है।

  • राज्यों के कार्यों की निषेधात्मक धारणा-

इन सबके अतिरिक्त हॉब्स के द्वारा राज्य के कार्यों के सम्बन्ध में निषेधात्मक धारणा को अपनाया गया है और यह पूर्णरूप से व्यक्तिवाद के ही अनुरूप है। हॉब्स के शासक को अनुचित हस्तक्षेप करने का कोई शौक नहीं है। उसके अनुसार कानून मनुष्यों को समस्त स्वेच्छापूर्ण कार्यों से नहीं रोकते, उनका उद्देश्यतो व्यक्तियों की अनियन्त्रित इच्छाओं, जल्दबाजी अथवा अविवेक के आधार पर किये जाने वाले कार्यों को रोकना होता है। कानून बाड़ के सदृश्य है जो कि यात्रियों को रोकने के लिए नहीं, वरन् उन्हें सन्मार्ग पर रखने के लिए खड़ी की जाती है।

हॉब्स के राज्य में व्यक्तियों को क्रय-विक्रय करने की, अपने रहने के लिए स्थान, अपना भोजन, अपना व्यापार चुनने की तथा अपनी इच्छानुसार अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने की पूरी स्वतन्त्रता है। हॉब्स की यह भी धारणा थी कि शासक को व्यक्तियों के निजी विश्वासों और विचारों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। वह उनसे केवल यह माँग कर सकता है कि उनका बाहरी व्यवहार तथा उपासना की पद्धति राज्य के कानूनों के अनुसार होनी चाहिए। “व्यक्ति की बुद्धि तथा अन्तःकरण राज्य की पहुँच से बाहर है।”

इस प्रकार हॉब्स को सामान्यतया निरकुश राज्य का उग्र समर्थक ही माना जाता रहा है, किन्त वास्तव में उसकी विचारधारा में व्यक्तवाद के तत्व भी प्रबल रूप में उपस्थित हैं। सेबाइन का तो कहना है कि, “हॉब्स के सम्प्रभु की संर्वाच्च शक्ति उसके व्यक्तिवाद की आवश्यक पुरक है।“

राजनीतिक शास्त्र – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *