राजनीति विज्ञान / Political Science

प्राचीन राजनीतिक शास्त्र के अध्ययन के स्रोत | प्राचीन राजनीतिक शास्त्र के अध्ययन के स्रोत के प्रमुख साधन

प्राचीन राजनीतिक शास्त्र के अध्ययन के स्रोत के प्रमुख साधन
प्राचीन राजनीतिक शास्त्र के अध्ययन के स्रोत के प्रमुख साधन

प्राचीन राजनीतिक शास्त्र के अध्ययन के स्रोत | प्राचीन राजनीतिक शास्त्र के अध्ययन के स्रोत के प्रमुख साधन

प्राचीन राजनीतिक शास्त्र के अध्ययन के स्रोत के प्रमुख साधन

प्राचीन भारत के शासन पद्धति अथवा हिंदू राजशास्त्र का इतिहास वैदिक काल से आरंभ होकर मुख्यता मुगल शासन के स्थापना तक फैला है इस विस्तृत काल के भारतीय इतिहास के कुछ पृष्ठ एकदम साफ एवं उजले हैं कुछ धुंधले भी प्रतीत होते हैं जिनकी हमारे पास अभी तक कोई भी ठोस तथा वास्तविक जानकारी नहीं है | वैदिक काल और महाकाव्य काल का राजनीतिक इतिहास निश्चित और क्रमबद्ध रूप में उपलब्ध नहीं होता है | वास्तव में तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से पहले राजशास्त्र पर कोई विशेष ग्रंथ नहीं लिखा गया था | अतः प्राचीन भारत के शासन पद्धति के बारे में जो कुछ भी जानकारी प्राप्त होती है प्राचीन साहित्य जैसे कि वेदों, महाकाव्य, धर्मसूत्र, धर्मशास्त्रों, उपनिषदों, पुराणों, महाकाव्य, जैन ग्रंथों, बौद्ध जातको, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, कामदकीय, नीतिशास्त्र, शुक्र नीति आदि से मिलती है | इसके अतिरिक्त विदेशी यात्रियों के वर्णन तथा कुछ संस्कृत साहित्य के ग्रंथ जैसे परिणी, कालिदास के रघुवंश, विशाखदत्त मुद्राराक्षस आदि से भी हमारे अध्ययन विषय के बारे में कुछ ना कुछ सूचना प्राप्त हो ही जाती है | इस विषय में डॉ० जयसवाल का कथन है कि- “हमे इस विषय का ज्ञान कराने वाले साधन हिंदू साहित्य के विस्तृत क्षेत्र में मिलते हैं वैदिक संस्कृति तथा प्राकृति ग्रंथों और इस देश के शिलालेखों तथा सिक्कों में रचित लेखों से हमें इस विषय की बहुत सी बातों का ज्ञान हो जाता है” | सौभाग्य वश इस समय हमें हिंदू राजनीति शास्त्र के कुछ मूल ग्रंथ भी उपलब्ध हो पाए हैं | यह थोड़े से ग्रंथ इस विशाल ग्रंथ भंडार के अवशेष मात्र हैं जिन्हें समय-समय पर हिंदू भारत के अनेका अनेक राजनीतिज्ञों और शासकों ने प्रस्तुत किया था |

राजनीति शास्त्र के अध्ययन हेतु सबसे महत्वपूर्ण शोध प्राचीन साहित्य है जिसे कुछ भागों एवं श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है वे निम्नलिखित हैं जैसे कि –

  1. भारतीय साहित्यिक सामग्री एवं ऐतिहासिक ग्रंथ
  2. विदेशी स्रोत
  3. पुरातत्व

वेद –

भारतीय धार्मिक साहित्य के प्राचीनतम ग्रंथ चार वेद है ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अर्थवेद | इन वेदों से शासन अथवा राज्य की उत्पत्ति के सिद्धांतों, शासन के तत्कालीन राष्ट्रीय स्वरूप, राजाओं के अधिकार, राजा और मंत्री तथा प्रजा के पारस्परिक संबंध शासन की नीति आदि का पता चलता है | वेदों के कुछ श्लोकों से विशेष रूप से राजा से संबंधित हैं जिसमें राज्यअभिषेक, राज्यरोहण तथा उसके पश्चात किए जाने वाले यज्ञों का वर्णन मिलता है | ऋग्वेद से भारत के आर्यों का प्रसार उनके अंतर संघर्ष द्रविडों तथा दस्युयों के विरुद्ध उनका युद्ध , अर्थवेद के मंत्री से राजपथ के संबंध में तथा यजुर्वेद से राजा द्वारा किए जाने वाले यज्ञों का उल्लेख है |

ब्राह्मण एवं उपनिषद् –

वैदिक मंत्रों तथा संहिताओं की गद्य टीकाओं को ब्राह्मण कहा जाता है जिसमें पंचविश, शतपथ आदि विशेष रूप से महत्वपूर्ण है | उपनिषदों के अध्ययन से पता चलता है कि उस समय के आर्य के सभ्यता धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में कितनी उन्नति कर ली थी | प्रमुख उपनिषद, बृहदारण्यक, केन, कट, मुंडक आदि हैं जिनसे राजा परीक्षित से लेकर विंब सार्थक के इतिहास पर उपयोगी प्रकाश पड़ता है |

धर्मशास्त्र –

इसके पश्चात तीसरी शताब्दी से भारत में व्याकरण शास्त्र, ज्योतिषशास्त्र का विकास आरंभ हुआ | इसी काल से धर्मशास्त्र के साथ-साथ राज्यशास्त्र का विकास भी प्रारंभ हुआ | इस समय देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हुआ पड़ा था | शासक, मंत्री तथा आचार्य शासक से संबंधित विभिन्न सिद्धांतों की परस्पर चर्चा किया करते थे | इस काल में राज्यशास्त्र से लेकर शायद अनेक ग्रंथों की रचना की गई जो कि अब उपलब्ध नहीं है |

महाकाव्य –

महाकाव्य का नाम लेते ही प्रायः रामायण तथा महाभारत का उल्लेख किया जाता है | भारतीय इतिहास पर अधिक से अधिक प्रकाश में लाने का श्रेय बहुत कुछ इन महाकाव्य को ही दिया जा सकता है | रामायण के रचयिता महाकवि वाल्मीकि ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जीवन चरित्र लिखकर तत्कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक स्थिति को बौद्धगमय बना दिया है | रामायण से ही हमें आर्य, यबनो, शकों के संदर्भ का वर्णन प्राप्त होता है | इसके अलावा इस महाकाव्य में राज्यों की सीमाओं तथा भारत के अन्य विभागों के राजाओं के बारे में न्यूनाधिक काल्पनिक अथवा यथार्थ वर्णों का उल्लेख प्राप्त होता है | राज्य से संबंधित सिद्धांतों का विवेचन हमें महाभारत से प्राप्त होता है | महाभारत के ‘शांति-पर्व’ में राजधर्म के संदर्भ में राज्य, राज्य तथा प्रशासन का उल्लेख किया गया है | इसमें राज्यशास्त्र की महत्ता, राज्य तंत्र की उत्पत्ति, राजा मंत्री तथा कर्मचारियों के कर्तव्य आदि का पर्याप्त वर्णन है | निसंदेह भारत में राजधर्म का विवेचन पूर्ण वर्णित ग्रंथ कारों से अधिक विस्तार और सांगोपात्र है |

महाकाव्य से यद्यपि तत्कालीन राजनीतिक एवं सामाजिक विचारों संस्थाओं आदि पर उपयोगी प्रकाश पड़ता है तथापि इन विवरणों में कपोल कल्पना की इतनी प्रचुरता है और कालक्रम की इतनी उपेक्षा है कि ऐतिहासिक उपयोग के लिए इनका प्रयोग अत्यंत सावधानी से करते हैं परंतु राज्यशास्त्र की दृष्टि से यह सामग्री अत्यंत महत्वपूर्ण है | काल्पनिक और निराधार कहना उचित नहीं होगा |

स्मृतियां –

स्मृतियों में मनु, विष्णु, याज्ञवल्क्य, नारद, वृहस्पति आदि की रचनाएं विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं | यह सभी धर्म शास्त्र के नाम से विख्यात है | मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति के में सृष्टि, स्थापना, धर्म, वर्णआश्रम, राज्य, राजा के कार्यक्षेत्र, राजा के गुण, राजा के कर्तव्य, शासन सिद्धांत, न्याय व्यवस्था, कानून के स्रोत, कर व्यवस्था, परराष्ट्र संबंध आदि विषयों का विस्तार और उपयोगी उल्लेख किया गया है | नारद स्मृति का संबंध मुख्य धार्मिक कानूनों से है, बृहस्पति धर्मशास्त्र में धार्मिक प्रक्रिया का विस्तृत वर्णन होता है यह ग्रंथ विशुद्ध राज्यशास्त्र के ग्रंथ के रूप में लोकप्रिय हुए इन ग्रंथों के द्वारा राज शास्त्र के विविध पक्षों पर प्रकाश पड़ा |

पुराण –

पुराण का शाब्दिक अर्थ ‘प्राचीन’ है | अतः पुराण साहित्य में वह समस्त प्राचीन साहित्य सम्मिलित है जिसमें भारत के धर्म, इतिहास, आख्यान, विज्ञान आदि का वर्णन है | पुराणों की रचना काल स्मृतियों से भी अधिक विस्तृत रहा | पुराणों को साधारण तथा दो समूहों महापुराण और उपपुराण में विभाजित किया गया है | डॉ० घोषाल के अनुसार महा पुराणों की संख्या 18 है पुराणों से हमें भारतीय इतिहास के आदि काल से लेकर गुप्त काल तक की सामग्री उपलब्ध होती है | ‘विष्णु पुराण’ मौर्य वंश के बारे में ‘मत्स्य पुराण’ आंध्र वंश के बारे में ‘वायु पुराण’ गुप्तों की शासन पद्धति के बारे में ज्ञान उपयोगी वस्तुएं प्रदान करता है | पुराणों के अंतिम भागो से शिशुनाग वंश, नंद वंश, मौर्य वंश, कृष्ण वंश, आंध्र प्रदेश तथा गुप्त वंश का उपयोगी परिचय प्राप्त होता है | डॉ० एन० घोष के अनुसार “पुराणों का प्राचीन भारत के धार्मिक साहित्य की अन्य प्रत्येक शाखा के मुकाबले वास्तविक इतिहास से कहीं अधिक संबंध है” |

कौटिल्य का अर्थशास्त्र –

यह राज्यशास्त्र शास्त्र का अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है | यह धर्म शास्त्रों की विचारधारा से प्रभावित नहीं हुआ है| श्री वाचस्पति गैरोल के शब्दों में, “समस्त पूर्ववर्ती आचार्य के सिद्धांतों और उनकी वे कृतियां जो उपलब्ध हैं, उन सबका एक साथ निष्कर्ष हम कौटिल्य के अर्थशास्त्र में पाते हैं | कौटिल्य ने अपने पूर्ववर्ती लगभग 18 19 अर्थशास्त्रवित्त आचार्यों का उल्लेख किया जिनसे विचार ग्रहण कर उन्होंने अद्भुत ग्रंथों का निर्माण किया | इस प्राचीन आचार्य परंपरा के परिचित परिचय से ऐसा प्रतीत होता है कि अर्थशास्त्र का निर्माण बहुत पहले से होने लगा था और विभिन्न ग्रंथों में आदर के साथ उनका उल्लेख किया जाने लगा था जिसका व्यापक व्याकरण हम कौटिल्य के अर्थशास्त्र में पाते हैं” |

कौटिल्य का अर्थशास्त्र केवल भारत में ही नहीं वरन संपूर्ण प्राचीन विश्व में एक महत्वपूर्ण रचना है जिसमें चंद्रगुप्त मौर्य के समय के भारत का स्पष्ट वर्णन है | यह पुस्तक भारतीय राजनीतिशास्त्र की आधारशिला है | इसके प्रथम विभाग में नृपतंत्र से संबंधित विषयों का विचार है दूसरे विभाग में अनेक अधिकारियों के कर्तव्यों का वर्णन किया गया है | अगले 2 विभागों में दीवानी, फौजदारी, कानून, दया आदि विभाग का विवेचन है

पांचवे विभाग में राजअनुचर के कर्तव्य, छठे विभाग में राजसत्ता प्रवृत्तियों के स्वरूप और कर्तव्यों का विधान है | शेष दो में पर परराष्ट्र नीति, पराभूत करने के उपाय संधि विग्रह के उपयुक्त अवसर, शत्रुओं में फूट डालने के उपाय आदि का विशद विवरण है | कौटिल्य का अर्थशास्त्र राज्यशास्त्र में व्यवहारिक पक्ष से अधिक संबंधित है | राज्यशास्त्र के सैद्धांतिक पक्षों का इनमें बहुत कम विवेचन हुआ है | श्री अलतेकर ने इसका उल्लेख निम्न प्रकार से किया है, “एक प्रबंधक के लिए अर्थशास्त्र सिद्धांत होने के अतिरिक्त अधिक मानवीय है | यह संस्कार के प्रयोगात्मक गुणों से अधिक संबंधित है | यह शांतिकालीन और युद्ध काल में सरकारी कामों में अधिक उपयोगी है | ऐसे एकाग्रता किसी अन्य रचना में, शुक्र नीति को छोड़कर नहीं है” | अर्थशास्त्र का मुख्य उद्देश्य शासन कार्य में राजा का मार्गदर्शन करना था | इसकी महत्ता को बताते हुए ‘सलेटोर’ लिखा है- “प्राचीन भारत की राजनीतिक विचारधाराओं में सबसे अधिक ध्यान देने योग्य कौटिल्य की विचारधारा है” |

नीतिशास्त्र –

कामन्दक नीतिशास्त्र प्रोफेसर अल्टेकर के मत से गुप्त काल में 500 ईसा पूर्व के आसपास लिखा गया है | इस ग्रंथ में जहां एक और प्राचीन आचार्यों के मतों को उद्धृत किया गया तो वहीं दूसरी ओर राजा और उस कुटुंब का विस्तृत वर्णन भी है | डॉक्टर जयसवाल का मत है कि “इस ग्रंथ की रचना चंद्रगुप्त द्वितीय के मंत्री विशाखदत्त ने कि | जहां तक इस ग्रंथ की मौलिकता का प्रश्न है यह निर्विवाद है कि सभी विद्वानों द्वारा इस ग्रंथ को कौटिल्य के अर्थशास्त्र पर आधारित माना गया है | यह तथ्य कामन्दम  द्वारा कौटिल्य के प्रति आभार प्रकट करने से अधिक स्पष्ट हो गया है” |

कमन्दकीय नीतिसार तथा शुक्रनीतिसारों से राज्य और शासन पर लिखे हुए ग्रंथों में इन दोनों का महत्व अन्य सभी ग्रंथों से बढ़कर है | राजा और उसके मंत्रियों तथा कर्मचारियों के अतिरिक्त इनमें परराष्ट्र और राज्य का वर्णन विस्तार से किया गया है | न्याय की व्याख्या का वर्णन, चार प्रकार के न्यायालयों का वर्णन भी किया गया है | शुक्र के मतानुसार “शासन पद्धति का ध्येय समाज का सर्वांगीण विकास करना था” | उसने कहा कि प्रत्येक राज्य का कर्तव्य है वह औषधालय, धर्मशालाएं आदि की व्यवस्था के विधा को प्रोत्साहन दे, व्यापार, उद्योग, धंधों की प्रगति करें | इसके अतिरिक्त शुक्र नीति में दरबार के विभिन्न वर्ग, सामंतों की विभिन्न श्रेणियों, मंत्रिमंडल का कार्यक्षेत्र आदि का भी वर्णन है |

शुक्रनीतिसार –

हिंदू राज्य शास्त्र के अध्ययन की दृष्टि से ‘शुक्रनीतिसार’ एक अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य है | इस ग्रंथ में शासन व्यवस्था आदि से अन्य वर्णन है | इस ग्रंथ में दंड नीति को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है | नृपन्त्र की काफी विशद व्याख्या की गई है | जिसमें यह सिद्ध होता है कि इसके रचना काल तक गणतंत्र का अस्तित्व समाप्त हो चुका था | इससे शासन व्यवस्था का उल्लेख करते समय राजा, मंत्री तथा अन्य राज्य कर्मचारियों के कार्यों का वर्णन किया गया है | शुक्र के मतानुसार शासन व्यवस्था का लक्ष्य डाकुओं को दंड देना अथवा मदिरादि को काबू में रखना मात्र नहीं था, बल्कि शासन व्यवस्था का सर्वोपरि लक्ष्य समाज की सर्वांगीण उन्नति करना था | अतः शुक्र के अनुसार राज्य का यह कर्तव्य है कि वह प्रजा के लिए धर्मशालाएं तथा चिकित्सालयों का निर्माण कर और विधा को प्रोत्साहन दे | व्यापार तथा उद्योग धंधों की सुव्यवस्था करें, समाज को आर्थिक प्रगति की ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें इसके अतिरिक्त इस ग्रंथ द्वारा प्राचीन व्यवस्था के बारे में अनेक सूचनाएं मिलती हैं | जो कि राज्यशास्त्र के अन्य ग्रंथों में उपलब्ध नहीं हैं उदाहरणार्थ दरबार में विभिन्न श्रेणी के दरबारी कहां बैठते थे सामंतों की विभिन्न श्रेणियों की क्या थी इत्यादि का भी वर्णन प्राप्त होता है |

अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ – इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक तथ्यों पर प्रकाश डालने वालों में कल्हण कृत ‘राजतरंगिणी’, वाण कृत ‘हर्षचरित्र’, विशाखदत्त कृत ‘मुद्राराक्षस’, चंदबरदाई कृत ‘पृथ्वीराज रासो’ , पाणिनि का ‘व्याकरण’, कालिदास का ‘रघुवंश’, चंद्रशेखर द्वारा लिखित राजनीतिक ‘रचनाकार’ चालुक्य आदि पुस्तकों में राजा, राज उनके तत्कालीन राजनीतिक विचारों और संस्थाओं का प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से वर्णन किया गया है |

विदेशी स्रोत –

भारतीय साहित्य के अतिरिक्त समय समय पर भारत आने वाले विदेशी व्यक्तियों एवं लेखकों के विवरण से भी ऐतिहासिक तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है | इनमें से कुछ ने तो भारत में कुछ समय तक निवास किया और अपने स्वयं के अनुभवों द्वारा लिखा है तथा कुछ ने तो भारतीय ग्रंथों को अपने विवरण का आधार बनाया है | इन लेखकों में यूनानी, चीन तथा अरब फारसी लेखक विशेष रूप से उल्लेखनीय है |

यूनान के प्राचीनतम लेखकों मैं वेसीएल तथा हेरोडोटस के नाम प्रसिद्ध है वेसीयस ईरान का राज वैद्य था | उसके वर्णन का स्रोत ईरानी है इसलिए इसका वर्णन अविश्वसनीय है | हेरोडोटस कभी भारत नहीं आया था फिर भी उसने भारत फ्रांस के संबंध का वर्णन किया | हेरोडोटस का विवरण भी अधिकांशत:अफवाहों पर आधारित है | सिकंदर के साथ आने वाले लेखकों में लेकर नियार्कस, आनेसीक्रेतस के विवरण अपेक्षाकृत अधिक प्रमाणित एवं विश्वसनीय है | इसमें सिकंदर के भारत आक्रमण का रोचक और आलोचनात्मक विवरण मिलता है | सिकंदर के समवर्ती लेखकों में मेगास्थनीज, डायमेंकस के नाम उल्लेखनीय हैं | इसमें सबसे महत्वपूर्ण विवरण मेगास्थनीज का है जिसने ‘इंडिका’ नामक पुस्तक में चंद्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था का विशद विवरण किया है शेष के विवरण मुख्यतः सिकंदर के अभियान से संबंधित हैं |

इसके अतिरिक्त चीनी यात्रियों के वर्णन भी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री प्रस्तुत करते हैं इन चीनी यात्रियों में फाहान, हवेंसांग इत्यादि प्रमुख हैं  फाहान चंद्रगुप्त द्वितीय के राज्यपाल में भारत में आया उसने गुप्तकालीन इतिहास पर प्रमुख प्रकाश डाला है | हेनसांग हर्ष के समय आया था तथा उसने समूचे भारत का भ्रमण किया था उसके वर्णन हर्ष के राज्यकाल का विस्तृत वर्णन है | मुस्लिम इतिहासकारों और यात्रियों के विवरण से भारत की ग्यारहवीं तथा बारहवीं शताब्दी की राजनीतिक अवस्था का ज्ञान प्राप्त होता है |अलबरूनी की विश्व विख्यात पुस्तक ‘तहकीक-ए-हिंद’ से राजपूत कालीन भूगोल, राजनीति, समाज, धर्म, रीति रिवाज आदि पर उपयोगी प्रकाश पड़ता है |

पुरातत्व –

संदिग्ध परिस्थितियों में पुरातत्व ही हमारे प्राचीन इतिहास में अनेक पक्षों का शंका समाधान करता है | पुरातत्व के आधार पर ही हमे सातवाहन वंश के बाद के अधिकांश इतिहास का ज्ञान हो सकता है | पुरातत्व में प्राचीन अभिलेखों, प्राचीन मुद्राओं, प्राचीन खंडहरों एवं स्मारकों का अध्ययन सम्मिलित है | प्रागैतिहासिक काल का लगभग पूर्ण इतिहास उत्खनन से प्राप्त सामग्री से ज्ञात हुआ उत्खनन से ही सिंधु एवं हड़प्पा सभ्यता के विषय में ज्ञात हुआ जिससे आज इतिहास की धारा ही बदल गई | मोहनजोदड़ो की खुदाई से यह प्रमाणित किया जाता है कि भारतीय सभ्यता आर्यों के पहले की है | पुरातत्व विज्ञान के विद्वानों ने वैदिक काल के मृत अवशेषों से प्रारंभिक स्मृतियों से, विभिन्न गुफाओं के अध्ययन से, विभिन्न खंभों की जानकारी से प्राचीन भारत की राजनीतिक और शासन व्यवस्था समझने की दशा में महत्वपूर्ण सहयोग दिया है |

अभिलेखों में गुफाओं, शिलालेख, स्तंभ लेख, ताम्रपत्र आदि आते हैं जिनसे प्राचीन भारत के इतिहास के पुनर्निर्माण में बड़ी सुविधा हुई है | यह अभिलेख देश विदेश के विभिन्न भागों और भाषाओं में प्राप्त हुए हैं जिनसे राजाओं और राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों पर काफी प्रकाश पड़ा है |

 अशोक के अभिलेख, हाथीगुफा, जूनागढ़ तथा गुप्तकालीन अभिलेख विशेषकर समुद्रगुप्त का प्रयाग अभिलेख दक्षिण के चोल पांडय तथा पहल्लव राजाओं के अभिलेख आदि भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डालते हैं | विदेशी अभिलेख भी भारतीय इतिहास के निर्माण में बड़े सहायक रहे हैं उदाहरणार्थ भारत और ईरान के राजनीतिक संबंध की पुष्टि पर्सीपोलिस के अभिलेखों से होती है |

 मौर्य तथा गुप्त काल के अनेक शिलालेख प्राप्त होते हैं | इन के आधार पर तत्कालीन राज्य व्यवस्था के बारे में सूचनाएं संकलित की जाती हैं इसी प्रकार राज्य कवियों तथा राज्य अधिकारियों द्वारा ताम्र पत्रों को लिखने का प्रचलन भी था | सबसे प्राचीन शिलालेख मौर्य सम्राट अशोक के शासनकाल में मिलते हैं | शिलालेख में उसके बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का उल्लेख किया गया है उसके शासनकाल में भारत की प्रथम परिषद हुई थी ज्स्नेन बौद्धों के धार्मिक सिद्धांतों को निश्चित किया गया था | साथ ही शिलालेखों के माध्यम से उस युग की शासन व्यवस्था के विषय में भी पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है | प्राचीन भारतीय शासन पद्धति के अध्ययन के लिए मुद्रा भी उपयोगी है | मुद्राओं पर अंकित जो अभिलेख मिले हैं उनमें नगर राज्यों का अस्तित्व सिद्ध होता है | गुप्तकालीन सिक्के उस युग के शासन व्यवस्था के विषय में पर्याप्त रूप से जानकारी प्रदान करते हैं | प्राचीन भारतीय इतिहास के ज्ञान का मुख्य आधार मुद्राएं भी हैं ईसा पूर्व 206 ई० तक के भारत के इतिहास की जानकारी हमें अधिकतर तत्काल की मुद्राओं से हुई है | गुप्तकालीन मुद्राएं तत्कालीन काल और साहित्य की अवस्था का बोध कराती हैं मुद्राओं से अनेक नगर राज्यों का अस्तित्व सिद्ध होता है | भारत में रोमन मुद्राएं भारत व रोम के बीच के व्यापार का ज्ञान देती है |

स्मारकों के अंतर्गत सभी प्रकार के भवन और मूर्तियों, भवनों एवं अन्य कलाकृतियों से तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक जीवन का बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त होता है | यहां तक की तिथि निर्णय में भी भवन विशेषज्ञ का बड़ा महत्व होता है परंतु स्मारकों से राजनीतिक इतिहास नहीं जाने जा सकते क्योंकि राजनीतिक घटनाओं का उल्लेख करना कठिन होता है |

इन ताम्रपत्रों को लिखने में अतिरेजिना का प्रयोग किया जाता था | अलटेकर के अनुसार ताम्रपत्र के ऊपर लेख राज्य कवियों या राज्य कर्मियों द्वारा लिखे जाते थे इसलिए कभी-कभी अतिश्योक्ति देखी जाती है किंतु फिर भी इसमें शासन व्यवस्था, कर प्रणाली, पड़ोसी राज्यों के साथ संबंध, राज्य के विभाग राजकीय अधिकारियों के कार्य तथा दायित्व इत्यादि अनेक बातों पर प्रकाश पड़ता है |

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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