भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
जीवन-परिचय- यूग प्रवर्त्तक साहित्यकार एवं असाधारण प्रतिभासम्पन्न भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म सन् 1850 ई० के सितम्बर माह में, काशी में हुआ था। इनके पिता गोपालचन्द्र ‘गिरधरदास’ ब्रजभाषा के एक प्रसिद्ध कवि थे। बाल्यकाल में मात्र 10 वर्ष की अवस्था में ही ये माता-पिता के सुख से वंचित हो गए थे। भारतेन्दुजी का विवाह 18 वर्ष की अल्पावस्था में ही करा दिया गया था। इनकी पत्नी का नाम मन्नो देवी था।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हई, जहाँ उन्होंने हिन्दी, उर्दू, बाँग्ला एवं अंग्रेजी का अध्ययन किया। इसके पश्चात् उन्होंने ‘क्वीन्स कॉलेज ‘ में प्रवेश लिया, किन्तु काव्य रचना में रुचि होने के कारण इनका मन अध्ययन में नही लग सका; परिणामस्वरूप इन्होंने शीघ्र ही कॉलेज छोड़ दिया। काव्य-रचना के अतिरिक्त इनकी रुचि यात्राओं में भी थी। अवकाश के समय में ये विभिन्न स्थानों की यात्राएँ किया करते थे।
सन1885 ई० में इसी रोग के कारण मात्र 85 वर्ष की अल्पायु में ही भारतेन्दुरजी का स्वर्गवास हो गया। अपने इस छोटे-से जीवन में ही उन्होंने हिन्दी की जो सेवा की है, उसके लिए हिन्दी-साहित्य जगत् उनका सदैव ऋणी रहेगा।
साहित्यिक सेवाएँ-
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र अपने युग की सम्पूर्ण चेतना के केन्द्रबिन्दु थे। ये प्राचीनता के पोषक, नवीनता के उन्नायक, वर्तमान के व्याख्याता और भविष्य के द्रष्टा थे। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हिन्दी-भाषा और साहित्य को सही मार्गदर्शन देने के लिए जिस समन्वयकारी प्रतिभा की आवश्यकता थी, वह प्रतिभा भारतेन्दुजी के रूप मे हिन्दी को प्राप्त हुई थी।
भारतेन्दु बाल्यावस्था से ही काव्य-रचनाएँ करने लगे थे। अपनी काव्य-रचनाओ में ये ब्रजभाषा का प्रयोग करते थे। कुछ हो समय के पश्चात् इनका ध्यान हिन्दी-गद्य की ओर आकृष्ट हुआ। उस समय हिन्दी-गद्य का कोई निश्चित भाषा नहीं थी। विभिन्न रचनाकार गद्य के विभिन्न रूपों को अपनाए हुए थे। उस समय हिन्दी गद्य की भाषा के दो प्रमुख रूप थे- एक में संम्कृतनिष्ठ तत्पम शब्दों की अधिकता थी तथा दूसरे में उर्दू फारसी के कठिन शब्दो का प्रयोग किया जाता था। कुछ रचनाओं की भाषा क्षेत्रीय लोकभाषाओ से प्रभावित थी। जो एक क्षेत्र-विशष के लिए ही उपयोगी थी। भाषा का कोई राष्ट्रीय स्वरूप नहीं था। सैंस्कृत, उर्दू एवं फारसी के कठिन शब्दों से युक्त भाषा सामान्य जन-मानस से अपना भावात्मक सम्बन्ध नहीं जोड़ पा रही थी। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का ध्यान इस अभाव की और आकृष्ट हुआ। इस समय बाँग्ला गद्य-साहित्य विकसित अवस्था मे था। भारतेन्दु जी ने बाँग्ला के नाटक ‘विद्यासुन्दर’ का हिन्दी में अनुवाद किया और उसमें सामान्य बोलचाल के शब्दों का प्रयोग करके भाषा के नवीन रूप का बीजारोपण किया।
सन् 1868 ई० में भारतेन्दुजी ने ‘कवि-वचन-सुधा’ नामक पत्रिका का सम्पादन प्रारम्भ किया। इसके पाँच वर्ष उपरान्त सन् 1873 ई० में इन्होंने एक दूसरी पत्रिका ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ का सम्पादन प्रारम्भ किया। आठ अंको के बाद इस पत्रिका का नाम ‘हरिश्चन्द्र पत्रिका’ हो गया। हिन्दी-गद्य का परिष्कृत रूप सर्वप्रथम इसी पत्रिका में दृष्टिगोचर हुआ। वस्तुत: हिन्दी-गद्य को नया रूप प्रदान करने का श्रेय इसी पत्रिका को दिया जाता है।
भारतेन्दु जी ने हिन्दी से संस्कृत एवं उर्दू-फारसी के जटिल शब्दों को निकालकर बोलचाल के सामान्य शब्दों का प्रयोग प्रारम्भ किया। इससे हिन्दी को एक नया रूप मिला और यह भाषा सामान्य लोगों से जुड़ गई। भारतेन्दु जी ने नाटक, निबन्ध तथा यात्रावृत्त आदि विभिन्न विधाओं में गद्य-रचना की। इनके समकालीन सभी लेखक इन्हें अपना आदर्श मानते थे और इनसे दिशा-निर्देश प्राप्त करते थे। सामाजिक, राजनैतिक एवं राष्ट्रीयता की भावना पर आधारित अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतेन्दुजी ने एक नवीन चेतना उत्पन्न की। इनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर तत्कालीन पत्रकारों ने सन् 1880 ई० में इन्हे ‘भारतेन्दु’ की उपाधि से सम्मानित किया।
भारतेन्दुजी ने अपने युग के हिन्दी- साहित्य के उत्थान हेतु सर्वस्व न्योछावर कर दिया। अपने सहयोगी लेखकों को प्रोत्साहन देकर इन्होंने कई पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ कराया और उन्हें दिशा-निर्देश दिया। कई साहित्यिक संस्थाएँ इनके द्वारा दी गई आर्थिक सहायता पर ही संचालित हो पाती थी। ये उदार हृदय से साहित्य के लिए धन दिया करते थे। इस प्रकार साहित्य के विकास हेतु इन्होंने अपनी सामर्थ्य से भी बढ़कर प्रयास किए।
कृतियाँ-
अल्पायु में ही भारतेन्दुजी ने हिन्दी को अपनी रचनाओं का अप्रतिम कोष प्रदान किया उनकी
प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) नाटक- भारतेन्दुजी ने मौलिक तथा अनूदित दोनो प्रकार के नाटकों की रचना की है, जो इस प्रकार
हैं-
(क) मौलिक – (1) सत्य हरिश्चन्द्र, (2) नीलदेवी, (3) श्रीचन्द्रावली, (4) भारत-दुर्दशा, (5) अँधेर नगरी, (6) वैदिकी हिंस हिंसा न भवति, (7) विषस्य विषमौषधम्, (8) सती-प्रताप ( 9) प्रेम-जोगिनी ।
(ख) अनूदित- (1) मुद्राराक्षस, (2) रत्नावली, (3) भारत-जननी, (4) विद्यासुन्दर, (5) पाखण्ड-विडम्बन, (6) दुर्लभ बन्घु, (7) कर्पूरमंजरी, (8) धनंजय-विजय।
(2) निबन्ध-संग्रह- (1) सुलोचना, (2) परिहास-वचक, (3) मदालसा, (4) दिल्ली – दरबार दर्पण, (5) लीलावती।
( 3 ) इतिहास- (1) कश्मीर कुसुम, (2) महाराष्ट्र देश का इतिहास, (3) अप्रवाली की उत्पत्ति।
(4) यात्रा- वृत्तान्त- (1) सरयू पार की यात्रा, (2 ) लखनऊ की यात्रा आदि।
(5) जीवनियाँ- (1) सूरदास की जीवनी, (2) जयदेव, (3) महात्मा मुहम्मद आदि
भाषा-शैली- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से पूर्व हिन्दी-भाषा का स्वरूप स्थिर नहीं था। हिन्दी माषा के रूप मे संस्कृत के तत्सम शब्दों या उ्दू-फारसी के कठिन शब्दीं का समावेश या। इसके अंतिरिक्त ब्रजभाषा आदि लोकभाषाओं के अपभ्रंश शब्दों में भी रचनाएँ होती थीं, जो प्रत्येक क्षेत्र में अलग- अलग भाषा रूप में व्यव्त होती थी। शैली के रूप में इन्होंने वर्णनात्मक, विवरणात्मक, विचारात्मक, भावात्मक, व्यंग्यात्मक तथा हार्य शैलियों का मुख्य रूप से प्रयोग किया है।
हिन्दी-साहित्य में स्थान- भारतेन्द्र हरिश्चन्द्र ने हिन्दी-भाषा और हिन्दी-साहित्य के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान दिया। साहित्य के क्षेत्र में उनकी अमूल्य सेवाओं के कारण ही उन्हें ‘आथुनिक हिन्दी गद्य साहित्य का जनक’, ’युग निर्माता सहित्यकार’ अथवा ‘आधुनिक हिन्दी- साहित्य का प्रवर्त्तक’ कहा जाता है। भारतीय साहित्य में उन्हें युगद्रष्टा, युगस्त्रष्टा, युग-जागरण के दूत और एक युग-पुरुष के रूप में जाना जाता है। उनकी अविस्मरणीय सेवाओं के कारण ही भारतीय साहित्यकारों ने उन्हें ‘भारतेन्दु’ की उपाधि से विभूषित किया। यही नहीं, हिन्दी-साहित्य के इतिहास में सन् 1868 ई० से 1900 ई० तक की अवधि को भी इन्हीं के नाम पर ‘भारतेन्दुकाल’ के नाम से जाना जाता है। वे सुनिश्चित रूप से भारतीय साहित्य गगन के ‘इन्दु’ ही थे। आज भी हिन्दी-साहित्याकाश का यह ‘इन्दु’ अपने आलोक से हिन्द साहित्य को जगमगा रहा है।
स्मरणीय तथ्य
जन्म- 1850 ई०, काशी।
मृत्यु- 1S85 ई०।
पिता- बाबू गोपालचन्द्र।
रचनाएँ- प्रेम-माधुरो, प्रेम-तरंग, प्रेम-फूलवारी, भृंगार सतसई आदि।
काव्यगत विशेषताएँ
वर्ण्य-विषय- भृंगार, प्रेम, ईश्वर-भक्ति, राष्ट्रय प्रेम, सभाज-सुधार आदि।
भ्राषा- गद्य-खड़ीबोली, पद्म-ब्रजभाषा में उर्दू, अंग्रेजी आदि के शब्द मिश्रित है और व्याकरण की अशुद्धियाँ हैं।
शैली- उदबोधन, भावात्मक, व्यंग्यात्मक।
छन्द- गीत, कवित्त, कुण्डलिया, लावनी, गजल, छप्पय, दोहा आदि।
रस तथा अलंकार- नव रसों का प्रयोग।
काव्यगत विशेषताएँ
(क) भाव-पक्ष- (1) भारतेन्दु जी को हिन्दी के आधुनिक काल का प्रथम राष्ट्रकवि निःसंकोच कहा जा सकता है क्योंकि सर्वप्रथम इन्होंने ही साहित्य में राष्ट्रीयता, समाज-सुधार, राष्ट्रभक्ति तथा देश भक्ति के स्वर मुखर किये। (2) गद्यकार के रूप में तो आप आधुनिक हिन्दी गद्य के जनक ही माने जाते हैं। (3) कविवचन सुधा और हरिश्चन्द्र सुधा आदि पत्रिकाओं के माध्यम से भारतेन्दु जी ने हिन्दी के लेखकों और कवियों को प्रेरणा प्रदान की तथा पद्य की विविध विधाओं का मार्ग निर्देशन किया।
(ख) कला-पक्ष– (1) भाषा-शैली- भारतेन्दु जी की काव्य की भाषा ब्रजी और गद्य की भाषा खड़ीबोली है। इन्होंने भाषा का पर्याप्त संस्कार किया है। बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की काव्यगत शैलियों को निम्नलिखित चार श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है-
(1) भावात्मक शैली, (2) अलंकृत शैली, (3) उद्बोधन शैली तथा (4) व्यंजनात्मक शैली।
इसके अतिरिक्त गद्य के क्षेत्र में परिचयात्मक, विवेचनात्मक तथा भावात्मक, तीन प्रकार की रचनाएँ
प्रयुक्त हुई हैं।
(2) रस-छन्द-अलंकार- बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचनाओं में भक्ति, श्रृंगार, हास्य, वीभत्स और करुण आदि रसों का विशेष रूप से प्रयोग हुआ है। इन्होंने गीति काव्य के अतिरिक्त कवित्त, सवैया, छप्पय, कुण्डलिया, लावनी, गजल, दोहे आदि सभी प्रचलित छन्दों का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया है। उपमा, रूपक, सन्देह, अनुप्रास, श्लेप, यमक इनके प्रिय अलंकार हैं।
साहित्य में स्थान- आपको हिन्दी का युग-निर्माता कहा जाता है। आपने अपनी प्रतिभा से हिन्दी साहित्य को एक नया मोड़ दिया। इस दृष्टि से आधुनिक काल के साहित्यकारों में आपका एक विशिष्ट स्थान है।
कवि-लेखक (poet-Writer) – महत्वपूर्ण लिंक
- सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ (Suryakant Tripathi)
- महाकवि भूषण (Kavi Bhushan)
- अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ (Ayodhya Prasad Upadhyay)
- जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ (Jagannath Das Ratnakar)
- कविवर बिहारी
- मोहन राकेश (Mohan Rakesh)
- हरिशंकर परसाई (Harishankar Parsai)
- प्रो० जी० सुन्दर रेड्डी (Surender Reddy)
- तुलसीदास (Tulsidas)
- कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ (Kanhiyalal Prabhakar Mishra)
- डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल
- रामवृक्ष बेनीपुरी (Rambriksh Benipuri)
- राहुल सांकृत्यायन (Rahul Sankrityayan)
- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (Hazari Prasad Dwivedi)
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