कवि-लेखक / poet-Writer

मैथिलीशरण गुप्त (Maithili Sharan Gupt)

मैथिलीशरण गुप्त (Maithili Sharan Gupt)

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जीवन-परिचय

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म चिरगाँव जिला झाँसी में 1886 ई० में हुआ था। गुप्तजी के पिता का नाम सेठ रामचरण जी था जो अत्यन्त ही सहदय और काव्यानुरागी व्यक्ति थे। पिता के संस्कार पुत्र को पूर्णत: प्राप्त थे इनकी शिक्षा-दीक्षा प्रायः घर पर ही हुई थी। हिन्दी के अतिरिक्त इन्होंने संस्कृत, बंगला, मराँठी आदि भाषाओं का अध्ययन किया था। आचार्य पं० महावीरप्रसाद द्विवेदी जी के सम्पर्क में आने से इनकी रचनाएँ सरस्वती में प्रकाशित होने लगीं। द्विवेदीजी की प्रेरणा से ही इनके काव्य में गम्भीरता एवं उत्कृष्टता का विकास हुआ। इनके काव्य में राष्ट्रीयता की छाप है । गाँधी दर्शन से आप विशेष प्रभावित हैं। इन्होंने असहयोग आन्दोलन में जेल यात्रा भी की है। आगरा विश्वविद्यालय ने इनकी हिन्दी सेवा पर 1948 ई० में डी० लिट की उपाधि से विभूषित किया। ‘साकेत’ नामक प्रबन्ध काव्य पर इनको मंगलाप्रसाद पारितोषिक भी मिल चुका है। आप स्वतन्त्र भारत के राज्यसभा में सर्वप्रथम सदस्य मनोनोत किये गये हे मृत्यु 1964 ई० में हो गयी।

 

रचनाएँ

गुप्तजी की रचनाएँ दो प्रकार की हैं- (1) मौलिक एवं (2) अनुदिन ।

(1) मौलिक- जयद्रथ-वध, भारत-भारती, पंचवटी, नहुष आदि।

(2) अनूदित रचनाएँ- मेघनाद वध, वीरांगना, स्वप्नवासवदत्ता आदि। ‘साकेत’ आधुनिक युग का प्रसिद्ध महाकाव्य है। इसमें रामकथा को एक नये परिवेश में चित्रित कर उपेक्षित उर्मिला के चरित्र को उभारा गया है। यशोधरा में बुद्ध के चरित्र का चित्रण हुआ है। यह एक चम्पू काव्य है जिसमें गद्य और पद्य दोनों में रचना की गयी है। भारत-भारती गुप्त जी की सर्वप्रथम खड़ीबोली की राष्ट्रीय रचना है जिसमें देश की अधोगति का बड़ा ही मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी चित्रण किया गया है।

 

काव्यगत विशेषताएँ

(क) भाव-पक्ष- (1) गुप्तजी की कविता के वर्ण्य-विषय मुख्यत: भक्ति, राष्ट्र -प्रेम, भारतीय संस्कृति और समाज-सुधार हैं। (2) इनकी धार्मिकता में संकीर्णता का आरोप नहीं किया जा सकता है। (3) ये भारतीय संस्कृति के सच्चे पुजारी हैं। (4) गुप्तजी लोक सेवा को सर्वोपरि मानते हैं। (5) इनके हृदय में नारी जाति के प्रति अपार आदर और सहानुभूति है। (6) राष्ट्र-प्रेम तो गुप्तजी के शब्द-शब्द में भरा है। (7) इनकी राष्ट्रीयता पर गाँधीवाद की पूरी छाप है। (8) इनकी रचनाओं में समाज सुधारवादी दृष्टिकोण भी दिखलाई पड़ता है। (9) गुप्तजी के प्रकृति-चित्रण में सरसता एवं सजीवता है। (10) मनोभावों के चित्रण में गुप्तजी को विशेष दक्षता प्राप्त है। (11) संवादों की अभिव्यक्ति अत्यन्त ही सरल तर्क-व्यंग्य से मुक्त है।

(ख) कला-पक्ष- (1) भाषा और शैली- गुप्तजी की भाषा शुद्ध परिष्कृत खड़ीबोली है जिसका विकास धीरे-धीरे हुआ है। इनकी प्रारंभिक काव्य रचनाओं में गद्दे की भांति छू सकता है, किंतु बात की रचनाओं में सरसता और मधुरता अपने आप आ गयी है। इनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। शब्द-चयन में भी ये काफी कुशल हैं । उसमें मुहावरे और लोकोक्तियों के प्रयोग से चार चाँद लग गये हैं। भाषा में प्रसाद गुण की प्रधानता है। कहीं-कहीं तुक मिलाने के प्रयास में इन्हें शब्दों को विकृत भी करना पड़ा है जो कभी-कभी खटक जाता है।

काव्य-रचना की दृष्टि से गुप्तजी की शैली चार प्रकार की है-

(1) भावात्मक शैली- झंकार तथा अन्य गीति काव्य।

(2) उपदेशात्मक शैली- भारत-भारती, गुरुकुल आदि।

(3) गीति-नाट्य शैली- यशोधरा, सिद्धराज, नहुष आदि।

(4) प्रबन्धात्मक शैली- साकेत, पंचवटी, जयद्रथ-वध आदि।

 

रस-छन्द-अलंकार

गुप्तजी के काव्य में वीर, रौद्र, हास्य आदि सभी रसों का सुन्दर परिपाक हुआ है। गुप्तजी ने नये और पुराने दोनों प्रकार के छन्द अपनाये हैं हरिगीतिका गुप्तजी का अत्यन्त ही प्रिय छन्द है। गुप्तजी की कविता में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, विषयोक्ति, संदेह, यमक, श्लेष, अनुप्रास आदि अलंकारों की प्रधानता है। विशेषण-विपर्यय और मानवीकरण आदि नये ढंग के अलंकार भी इनकी रचनाओं में छायावाद प्रभाव के कारण आ गये हैं।

 

साहित्य में स्थान

गुप्ता जी आधुनिक हिन्दी काव्य-जगत् के अनुपम रत्न हैं। ये सही अर्थों में राष्ट्रकवि थे । इन्होंने अपनी प्रेरणादायक और उद्बोधक कविताओं से राष्ट्रीय जीवन में चेतना का संचार किया है।

 

स्मरणीय तथ्य

जन्म- 1886 ई०, चिरगाँव जिला झाँसी, (उ० प्र०) ।

मृत्यु1964 ई०।

रचनाएँ- मौलिक काव्य-भारत-भारती, ‘जयद्रथ-वध, ‘पंचवटी’, ‘साकेत’ ‘यशोधरा, ‘द्वापर’, ‘सिद्धराज’ आदि। अनूदित- ‘मेघनाद-वध ‘वीरांगना’ ‘विरहिणी-ब्रजांगना, ‘प्लासी का युद्ध’, ‘रुबाइयाँ, ‘उमर-खैयाम’।

काव्यगत विशेषताएँ

वर्ण्य-विषय- ‘राष्ट्प्रेम’, ‘आर्य संस्कृति से प्रेम, ‘प्रकृति-प्रेम’, ‘मानव हृदय चित्र, ‘नारी महत्त्व’।

भाषा- शुद्ध तथा परिष्कृत खड़ीबोली।

शैली- प्रबन्धात्मक, उपदेशात्मक, गीतिनाट्य तथा भावात्मक।

रस तथा अलंकार- प्रायः सभी। विप्रलम्भ भृंगार में विशेष सफलता मिली है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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