कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ (Kanhiyalal Prabhakar Mishra)
जीवन-परिचय
कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ का जन्म सन् 1906 ई० में देवबन्द (सहारनपुर) के एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम पं० रमादत्त मिश्र था। वे कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे। प्रभाकरजी की आरम्भिक शिक्षा ठीक प्रकार से नहीं हो पाई; क्योंकि इनके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। इन्होंने कुछ समय तक खुर्जा की संस्कृत पाठशाला में शिक्षा प्राप्त की। वहाँ पर राष्ट्रीय नेता आसफ अली का व्याख्यान सुनकर ये इतने अधिक प्रभावित हुए कि परीक्षा बीच में ही छोड़कर चले आए और राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़े। तत्पश्चात् इन्होंने अपना शेष जीवन राष्ट्रसेवा के लिए अर्पित कर दिया। सन् 1930 ई० से 1932 ई० तक और सन् 1942 ई० में ये जेल में रहे। इस अवधि में इनका सम्पर्क राष्ट्र के महान् नेताओं से हुआ। भारत के स्वतन्त्र होने के बाद इन्होंने स्वयं को पत्रकारिता में लगा दिया। लेखन के अतिरिक्त अपने वैयक्तिक स्नेह और सम्पर्क से भी इन्होंने हिन्दी के अनेक नए लेखकों को प्रेरित और प्रोत्साहित किया। 9 मई, सन् 1995 ई० को इस महान् साहित्यकार का निधन हो गया।
साहित्यिक सेवाएँ
हिन्दी के श्रेष्ठ रेखाचित्रकारों, संस्मरणकारों और निबन्धकारों में प्रभाकरजी का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनकी रचनाओं में कलागत आत्मपरकरता, चित्रात्मकता और संस्मरणात्मकता को ही प्रमुखता प्राप्त हुई है। पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रभाकरजी को अभूतपूर्व सफलता मिली। पत्रकारिता को इन्होंने स्वार्थसिद्धि का साधन नहीं बनाया, वरन् उसका उपयोग उच्च मानवीय मूल्यों की स्थापना में ही किया।
स्वतन्त्रता आन्दोलन के दिनों में इन्होंने स्वतन्त्रता सेनानियों के अनेक मार्मिक संस्मरण लिखे। इन संस्मरणों में भारत के स्वाधीनता संग्राम का इतिहास स्पष्ट हुआ है और इनमें युगीन परिस्थितियों और समस्याओं का सजीव चित्रण भी हुआ है। इस प्रकार संस्मरण, रिपोर्ताज और पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रभाकरजी की सेवाएँ चिरस्मरणीय है।
कृतियाँ
प्रभाकर जी के कुल 9 ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं।
(1) रेखाचित्र- (1) नई पीढ़ी के विचार, (2) जिन्दगी मुस्कराई, (3) माटी हो गई सोना, (4) भूले-बिसरे चेहरे।
(2) लघु कथा- (1) आकाश के तारे, (2) धरती के फूल।
(3) संस्मरण- दीप जले -शंख बजे।
(4) ललित निबन्ध- (1) क्षण बोले कण मुस्काए, (2) बाजे पायलिया के घुंघरू । इनके सामाजिक, रानैतिक और शैक्षिक समस्याओं पर आशावादी और निर्भीक विचारों का परिचय मिलता है।
इनके अतिरिक्त ‘महके आँगन चहके द्वार ‘ इसकी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है।
भाषा-शैली
प्रभाकर जी की भाषा सामान्य रूप से तत्समप्रधान, शुद्ध और साहित्यिक खड़ीबोली है। उसमें स्पष्टता, सरलता और सुबोधता है। पाठक सहज प्रवाह के साथ उसका आनन्द लेता है। भाषा को सजीव, गतिशील, व्यावहारिक और स्वाभाविक बनाने के लिए प्रभाकरजी ने अन्य भाषाओं के शब्दों का भी ग्मुचित प्रयोग किया है। मुहावरो, लोकोक्तियों के प्रयोग से प्रभाकरजी की भाषा में अभिव्यंजना का सौन्दर्य उत्पन्न हुआ है। अनेक स्थलों पर आलंकारिक भाषा ने कविता-जैसा सौन्दर्य उत्पन्न कर दिया है। शैली के रूप में उन्होंने भावात्मक, वर्णनात्मक तथा नाटकीय शैलियों का प्रयोग प्रमुखता से किया है।
हिन्दी-साहित्य में स्थान
कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ मौलिक प्रतिभासम्पन्न गद्यकार थे । इन्होंने हिन्दी-गद्य की अनेक नई विधाओं पर अपनी लेखनी चलाकर उसे समृद्ध किया है। पत्रकाग्ता एवं रिपोर्ताज के क्षेत्र में भी इनका अद्वितीय स्थान है। हिन्दी भाषा के साहित्यिकों में अग्रणी और अनेक दृष्टियों से एक समर्थ गद्यकार के रूप में प्रतिष्ठित इस महान् साहित्यकार का, मानव-मूल्यों के सजग प्रहरी के रूप में भी सदैव स्मरण किया जाएगा।
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