वन संसाधन पर संक्षिप्त लेख

वन संसाधन पर संक्षिप्त लेख | Write a short article on forest resource in Hindi

वन संसाधन पर संक्षिप्त लेख | Write a short article on forest resource in Hindi

वन संसाधन पर संक्षिप्त लेख 

वन एक महत्त्वपूर्ण नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधन है। पृथ्वी का लगभग एक तिहाई थलीय क्षेत्र वनों से आच्छादित है। भारत में 24.2% प्रतिशत थलीय क्षेत्र वनों से आच्छादित है।

उपयोग-

वन जैव विविधता के भण्डार होते हैं और मानव को महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय सेवाएं प्रदान करते हैं। वन मनुष्यों तथा उद्योगों के लिए वस्तुएँ व सेवाएँ प्रदान करके हमारे देश के आर्थिक विकास में काफी योगदान देते हैं। वन संस्कृति और सभ्यता से भी जुड़े हुए हैं। वनों कुछ महत्त्वपूर्ण उपयोग निम्नलिखित हैं-

(i) उत्पादक कार्य (Productive Functions)

(a) लकड़ी (Wood)- वनों द्वारा दिया जाने वाला प्रमुख उत्पाद लकड़ी है। यह ईंधन के रूप में, निर्माण कार्य में कच्चे माल के रूप में, दरवाजों, खिड़कियों, फर्नीचर, रेलवे स्लीपर, बैलगाड़ी तथा खेल के सामान बनाने में उपयोग की जाती है। यह विभिन्न उद्योगों जैसे पल्प/लुगदी, कागज, अखबारी कागज तथा बोर्ड आदि के लिए कच्चा माल भी प्रदान करती है। यह पैकिंग सामग्री (फलों, चाय आदि की) में भी उपयोग की जाती है।

(b) लघु वन उत्पाद (Minor Forest Products)- भारतीय वन लघु वन उत्पादों जैसे बांस, गोंद, रेजिन, डाइ/रंजक, टैनिन, लाक, फाइबर, ऊर्ण (flocks), औषधियां, कत्था, वाष्पशील तेलों, दवाओं, मसालों, कीटनाशकों आदि की भी आपूर्ति करते हैं। साबुन के विकल्प जैसे रीठा तथा शिकाकाई भी वन्य पादपों से प्राप्त किए जाते हैं। म.प्र. में बीड़ी को लपेटने के लिए तेन्दू पत्ती का उपयोग किया जाता है।

(c) जनजातीय लोगों के लिए भोजन (Food for Tribal People) – वन जनजातीय लोगों के लिए भोजन प्रदान करते हैं (कंदों, पत्तियों, जड़ों, फलों, पक्षियों तथा जन्तुओं के मांस के रूप में)।

(d) जन्तु आधारित उत्पाद (Animal Based Products) – टसर तथा मोगा सिल्क, लाक, शहद, मोम आदि उत्पाद वन्य कीटों के क्रियाकलापों का परिणाम होते हैं। अन्य उपयोगी उत्पादों में जानवरों के सींग, हाथीदांत तथा खाल आदि सम्मिलित हैं।

(ii) सुरक्षात्मक कार्य (Protective Functions)- इसमें जल तथा मृदय का संरक्षण, सूखे की रोकथाम, वायु, सर्दी, विकिरण, शोरगुल, स्थलों तथा गंधों आदि से सुरक्षा सम्मिलित है।

(iii) नियामक कार्य (Regulative Functions) – इसमें CO2 तथा O2 जैसी गैसों (पर्यावरणीय प्रदूषण का नियन्त्रण करने वाली), जल, खनिज तत्त्वों तथा विकिरण ऊर्जा का अवशोषण, संचयन तथा निर्मुक्ति सम्मिलित है। वन प्रभावी रूप से बाढ़ तथा सूखे की स्थितियों, वैश्विक जैवभूरसायन चक्रों विशेषतः कार्बन चक्र को नियन्त्रित करते हैं। वन जल सांभर (Water shed) के रूप में कार्य करते हैं और इस तरह से जल चक्र को नियन्त्रित करने में सहायक होते हैं। वन ह्यरुमस को मिलाकर मृदा की सरंध्रता (porosity) व उर्वरता को भी अच्छा बनाते हैं।

वनों का अति-दोहन

बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में, भारत में लगभग 30 प्रतिशत थलीय क्षेत्र वनों से घिरे थे। लेकिन बीसवीं शताब्दी के अन्त तक वन क्षेत्र कम होकर 24.2% प्रतिशत रह गया। यह राष्ट्रीय वन नीति (1988) द्वारा मान्य औसत 33 प्रतिशत वन क्षेत्र तथा पहाड़ों पर कम से कम 67% से कम है। ऐसा वनों के अति दोहन के कारण हुआ है। शहरों की बढ़ती मांग, अत्यधिक तथा बेरोकटोक वनों की कटाई, अत्यधिक चराई, वन उत्पादों के अत्यधिक उपयोग, जनसंख्या में वृद्धि आदि, वनों के अति दोहन के कुछ प्रमुख कारण हैं। आज भारत में प्रति व्यक्ति उपलब्ध वन क्षेत्र 0.06 है जो विश्व औसत (0.64 है. प्रति व्यक्ति) से काफी कम है।

वनों की कटाई

विश्व का वन क्षेत्र तेजी से सिकुड़ रहा है;B विशेषतः विकासशील देशों में जो उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में स्थित हैं। उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों की वर्तमान वनों की कटाई की दर 1 करोड़ हैक्टेयर प्रतिवर्ष से अधिक आंकी गई है। यदि वनों की कटाई इसी गति से होती रही, तो बचे हुए उष्ण कटिबंधीय वनों के सहस्राब्दि के भीतर ही लुप्त हो जाने का खतरा है। वनों की कटाई के प्रमुख कारण हैं –

(a) कृषि का विस्तार

(b) शहरीकरण

(c) औद्योगिकरण

(d) वन उत्पादों का अत्यधिक व्यावसायिक उपयोग

(e) मवेशियों को चराना

(f) पहाड़ों पर सड़कों का निर्माण

(g) कीटों, पीड़कजीवों तथा कवकों का आक्रमण

(h) मानव की गतिविधियों जैसे खनन, खुदाई, सिंचाईं, वनों की आग आदि क प्रभाव

(i) मानव तथा मवेशियों की जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि।

(j) स्थानान्तरी जुताई (Shifting cultivation)

वनों की कटाई के संकट /कुप्रभाव

(a) महत्त्वपूर्ण पादप, जन्तु तथा सूक्ष्मजीवीय प्रजातियाँ विलुप्त हो जाती हैं ।

(b) क्षेत्रीय तथा विश्व की जलवायु में परिवर्तन हो जाता है, वन क्षेत्रों में वर्षा कम हो जाती है तथा सूखा की स्थिति सामान्य हो जाती है।

(c) वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में कार्बन के निर्मुक्त होने से (जो ग्रीन हाउस गैस है) विश्व तापमान में वृद्धि हो जाती है।

(d) अर्थव्यवस्था तथा जीवन स्तर में गिरावट आती है।

(e) देश के आर्थिक सन्तुलन की हानि होती है।

लकड़ीकी कटाई, खुदाई तथा बाँधों का वनों एवं जनजातीय लोगों पर प्रभाव

भारत में बहुत ही समृद्ध प्राणिजात् (Fauna) तथा वनस्पतिजात (Flora) है जो वन क्षेत्रों में उपस्थित है। जनजातीय लोग भी वनों में रहते हैं। वन इन लोगों को भोजन प्रदान करते हैं। लकड़ी की अत्यधिक कटाई ने वनों को नष्ट कर दिया है। इसका जनजातीय लोगों पर एक प्रमुख प्रभाव यह पड़ेगा कि उन्हें अपना भोजन नहीं मिल पाएगा। विभिन्न विस्तारों के कुछ वन क्षेत्र जनजातीय समुदायों द्वारा उनको प्रदत्त धार्मिक पवित्रता के कारण संरक्षित कर लिए गए हैं। ये क्षेत्र पवित्र वन (Sacred forests) कहलाते हैं। ये वन अनेकों दुर्लभ, खतरे में पड़े तथा स्थानिक वर्गकों (taxon ) के लिए शरणस्थली का काम करते हैं। वृक्षों की अत्यधिक कटाई इन वन क्षेत्रों को भी प्रभावित कर देगी। खनन के कारण थल का विरूपण, वनों की कटाई तथा जलीय संसाधनों का क्षय हो रहा है। जब कोई बाँध बनाया जाता है तो यह न सिर्फ अच्छे वन के कुछ भाग को समाप्त कर देता है बल्कि अभिक्रियाओं की एक श्रृंखला शुरू हो जाती है जिससे आने वाले समय में और अधिक वनों की कटाई होती है। बिहार में कोइल तथा कारो (Koch and Karo) परियोजना लोगों के विरोध के कारण बन्द कर देनी पड़ी थी क्योंकि इसने उस क्षेत्र के कई हजार सन्थाल जनजाति के लोगों को विस्थापित कर दिया था।

वन संरक्षण तथा प्रबन्धन-

इसे सुनिश्चित करना चाहिए-

(i) वृक्ष उत्पादों की सहनीय आपूर्ति तथा लोगों और उद्योगों की सेवा।

(ii) संरक्षण द्वारा दीर्घ काल तक पारिस्थितिक सन्तुलन को बनाए रखना; वनारोपण (afforestation) कार्यक्रमों के माध्यम से अत्यधिक वृक्ष लगाने से ह्मसमान वनों की रक्षा की आवश्यकता है। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित वनविद्या (forestry) विधियों का समाकलन करना चाहिए-

(a) रक्षण अथवा संरक्षण वनविद्या (Protection of conservation feisty)- निम्नीकृत वनों का रक्षण जिससे उनकी वनस्पतिजात् तथा प्राणिजात् की क्षतिपूर्ति की जा सके जैसे राष्ट्रीय उद्यान तथा अभ्यारण्य (विस्तृत विवरण के लिए इकाई 4 देखिए) ।

(b) उत्पादन अथवा व्यावसायिक वन विद्या (Production or commercial forestry) – व्यावसायिक मांग को पूरा करने के लिए वृक्ष उगाना जिससे प्राकृतिक वनों की कटाई किए बिना मांग की पूर्ति की जा सके। इसे सामाजिक वन विद्या (Social forestry) तथा कृषि वनविद्या (Agroforestry) में बॉटा जा सकता है।

(e) सामाजिक वनविद्या (Social forces try) – उद्देश्य सभी बेकार पड़ी तथा परती भूमि (fallow land) पर वृक्षों तथा झाड़ियों को लगाना है जिससे ईंधन की लकड़ी तथा चारा प्राप्त किया जा सके।

(d) कृषि वनविद्या (Agroforestry)- इसमें भूमि का विभिन्न विधियों से उपयोग सम्मिलित है, जहाँ काष्ठीय प्रजातियों को शाकीय फसलों के साथ या तो एक ही समय पर अथवा समय अन्तराल में बोया जाना सम्मिलित है। कृषि वनविद्या के प्रमुख उपकरण स्थान्तरी जुताई (shifting cultivation) अथवा झूम कृषि (Jhum cultivation) तथा टॉँग्या प्रणाली (Taunya system) है।

(e) झूम कृषि (Jhum Cultivation)- यह एक पारम्परिक कृषि वरनविद्या प्रणाली है जो हमारे देश के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में विस्तृत रूप से चलन में है। इसमें वनों को नष्ट करके उन्हें जला दिया जाता है और उसके बाद कुछ वर्षों तक वहाँ खेती की जाती है, फिर वहाँ खेती करना छोड़ दिया जाता है जिससे वहाँ फिर से वन विकसित हो जाते हैं।

(f) टाँग्या प्रणाली (Taunya system)- इसमें कृषि की फसलों को वृक्षों (साल, टीक) की कतारों के बीच में उगाया जाता है।

भारत में प्रतिवर्ष फरवरी तथा जुलाई के महीने में एक सप्ताह तक वन महोत्सव मनाया जाता है जिसमें प्रत्येक स्थान पर उपयुक्त पादप छत्र विकसित करने की आवश्यकता पर बल दिया जाता है।

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