भूगोल / Geography

अजैविक एवं जैविक कारक किसे कहते हैं | What are inorganic and biological factors in Hindi

अजैविक एवं जैविक कारक किसे कहते हैं | What are inorganic and biological factors in Hindi

पर्यावरण के कारक

पर्यावरण का प्रत्येक भाग जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जीवों के जीवन को प्रभावित करता है ‘कारक’ कहलाता है। पर्यावरण जिसमें जीव अवस्थित हैं अनेक पर्यावरणीय कारकों के पारस्परिक सम्बन्धों का जटिल जल है।

अध्ययन की सुविधा को दृष्टि से पर्यावरण की रचना में भाग लेने वाले कारकों को 2 वर्ग में विभक्त किया जा सकता है-

(1) जैविक कारक (Biotic Factors)

(2) अजैविक कारक (Abiotic Factors)

  1. अजैविक कारक (Abiotic Factors)-

पर्यावरण के ऐसे अजैविक भाग जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जीवों के जीवन को प्रभावित करते हैं, अजैविक पर्यावरण कारक कहलाते हैं।

इसके अन्तर्गत प्रायः प्रकाश गुरुत्व, जल, वायुमण्डल, गैसे तथा मिट्टी आदि कारक आते हैं। ये सभी कारक परस्पर एक दूसरे से सम्बन्धित है। किसी स्थान विशेष के जीवों पर पड़ने वाला प्रभाव इन सभी कारकों की क्रिया प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न परिस्थितिक पर निर्भर करता है तथा कोई एक कारक प्रथक रूप से जीवों को प्रभावित नहीं करता बल्कि संयुक्ति रूप से ही यह कार्य संभव हो पाता है। अजैविक कारकों को पुनः 2 अन्य वर्गों में विभक्त कर सकते हैं-

 (i) भौतिक कारक (Physical factors)

(ii) रासायनिक कारक (Chemical factors)

(i) भौतिक कारक (Physical factors) – वे कारक जो अपने भौतिक गुणों के द्वारा पर्यावरण में उपस्थित जीवों का जीवन प्रभावित करते हैं, भौतिक कारक कहलाते हैं। इसके अन्तर्गत ताप, प्रकाश, जल, आर्द्रता, मिट्टी, प्रवाह एवं दबाव आदि आते हैं।

(a) ताप (Temperature)- पर्यावरण में सभी प्रकार की जैविक क्रियाओं के संचालन के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यहाँ ऊर्जा गर्मी के रूप में सूर्य से हमें प्राप्त होती है। सूर्य से प्राप्त होने वाली ऊर्जा से हमारा वातावरण गर्म रहता है तथा जैविकों में जीवन का संचालन होता है।

प्रत्येक प्राणी में ताप को सहन करने की एक सीमा या ताप परिसर होता है इसे इष्टतम तापमान (Optimum temperature) कहा जाता है। ताप सहनशीलता के आधार पर प्राणियों का विभाजन किया गया है। वे प्राणी जो लम्बे तापक्रम परिसर को सहन कर सकते हैं प्रथतापी (Eurythermal) कहलाते हैं; जैसे साइक्लोप्स, टोड, आयस्टर, छिपकली तथा मनुष्य आदि लम्बे तापक्रम परिसर को बर्दाश्त कर सकते हैं इसलिए इन्हें पृथतापी प्राणी वर्ग में रखा जाता है।

इसी तरह छोटे तापक्रम परिसर को सहन करने वाले प्राणी तनुतापी (Stenother- mal) कहलाते हैं जैसे- घोंघे, कोरल, दीमक, मछलियाँ आदि। मनुष्य के लिए इष्टतम तापमान की सीमा 20-25 से. है। अर्थात् मानव शरीर के लिए यह तापमान सर्वाधिक कार्यशीलता व सुखकारक माना जाता है।

अधिकांश जीव 0 से 0 से कम तथा 50 से. से अधिक का तापमान सह नहीं पाते क्योंकि इस ताप सीमा के बाहर उनका जैविक क्रियाएँ बन्द हो जाती है। अधिक ताप पर जीवों के शरीर के आवश्यक पदार्थ जैसे प्रोटीन वसा अथवा चर्बी में ऐसे परिवर्तन होते हैं उससे जीव की मृत्यु अवश्यम्भावी हो जाती है। जीव-जन्तु ही नहीं पौधों की जीवन क्रियाएँ भी ताप से प्रभावित होती हैं। पौधों में जल का अवशोषण प्रकाश संश्लेषण, श्वसन तथा वाष्पोत्सर्जन आदि सभी क्रियाएँ तापमान से प्रभावित हो रहा है। पौधों में भी अधिकांश जैविक क्रियाएँ 0-50 से तापमान के अन्तर्गत ही सुचारु रूप से चलती है।

ताप सहने की सीमा या क्षमता वनस्पतियों में भिन्न- भिन्न होती है, जो कि जीव द्रव्य (Protoplanet) क्लोरोफिल में पाये जाने वाले जल की मात्रा के ऊपर निर्भर करती है। उदाहरणार्थ- आर्कटिक प्रदेशों के वनों के शंकु वृक्ष 80 F जैसे कम तापमान पर जीवित रहते

हैं। वहीं सहारा मरुस्थल को स्थानीय वनस्पति 13 F की गर्मी में पनपते रहते हैं। ताप सहने की शक्ति के आधार पर पौदों को शीत प्रतिरोधी (cold Resistant) तथा ऊष्मा प्रतिरोधी (Heat Resistant) में वर्गीकृत किया गया है।

पादपों का जीवित रहना ही नहीं अपितु उनका विकास एवं वृद्धि भी तापमान पर निर्भर करती है। पौधों में वृद्धि मुख्यतया रासायनिक एवं क्रियात्मक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप ही होते हैं। लेकिन सामान्य रूप से पादपों की वृद्धि ऊँचे तापमानों पर अधिक होती है।

तापमान का पौधों की प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। यद्यपि प्रकृति में प्रकाश संश्लेषण का क्रिया तापमान के व्यापक परिसर (Range) में होती है लेकिन प्रभावपूर्ण तापमानान्तर साधारणतया 70F तथा 100 के बीच पाया जाता है। इसके बाद इष्टतम स्थिति को प्राप्त करने के बाद जैसे-जैसे ताप बढ़ता जाता है प्रकाश संश्लेषण की – एकाएक कम होने लगती है। पौधों में श्वसन की गति भी ताप से प्रभावित होती है और यह वृद्धि तब तक होती रहती है जब तक कि यह तापमान पौधे के अन्य प्रक्रमों को हानि पहुँचाने की सीमा तक नहीं पहुँच जाता है।

तापमान के कारण जन्तुओं का जीवन भी अछूता नहीं रहता है। सामान्यतः प्रकृति में 2 प्रकार के प्राणी पाये जाते हैं। एक तो वे जिनमें रुधिर का ताप वातावरण पर निर्भर होता है अर्थात् वातावरण में तापमान के परिवर्तन से रुधिर का ताप भी घटता-बढ़ता रहता है, इन्हें असमतापीय जन्तु (Paikilo thermic Cold blooded animals) कहते हैं। इसके अन्तर्गत मछली मेढक तथा सर्प आदि आते हैं। इसके विपरीत कुछ जन्तुओं में रुधिर का ताप वातावरण के ताप परिवर्तन से ज्यादा प्रभावित नहीं होता, इन्हें समतापी (Homeothermic या Worm bloode annuals) कहते हैं।उदाहरण के लिए सभी पक्षी एवं स्तनधारी जन्तुओं में यह गुण या विशेषता पायी जाती है।

स्पष्ट है कि पर्यावरण के ताप कारक में परिवर्तन के साथ ही जन्तुओं के रुधिर का ताप भी प्रभावित होता है जिसमें प्राणियों की उपापचय की रासायनिक क्रियाओं की गति में बदलाव आ जाता है। ताप के कारण पक्षियों का प्रवास (migration) भी प्रभावित होता है। पक्षियों की लम्बी उड़न प्रतिवर्ष शीत ऋतु में आरम्भ होती है जिसमें ताप के कारण ही ठंडे देशों को पक्षी वहाँ से उड़कर गर्म देशों में चले जाते हैं। भारत में जो प्रवासी पक्षी शीत ऋतु में भारत आते हैं उनमें प्रमुख हैं- साइबेरियन क्रेन, फ्लेमगो, हंस, ग्रेलग हंस, पिनतेल, टील, रूडी सेल्ड्रेक, शॉबलट, ग्रट क्रेस्टेड ग्रेब, तथा कंवल आदि।

जन्तुओं की प्रजनन क्षमता पर भी तापमान का प्रभाव पड़ता है। रोटिफर्स जीव में लिंग अनुपांत वातावरण से सर्वाधिक प्रभावित होता है। सामान्यतः देखा गया है कि शीतोष्ण कटिबन्धों में निवास करने वाले स्थलीय जीवों में वृद्धि बसंत ऋतु में प्रारंभ होती है। और ग्रीष्म ऋतु में अपने शीर्ष पर होती है। ठीक इसके उल्टा उष्ण कटिबन्धों के प्राणियों में वृद्धि पर बसन्त में सर्वाधिक तथा ग्रीष्म में बहुत मन्द होती है।

प्रकाश कारक

सूर्य की विकिरण ऊर्जा का वह भाग जो दृश्य स्पेक्ट्रम का निर्माण करता है, प्रकाश कहलाता है। प्रकाश पर्यावरण का महत्त्वपूर्ण भौतिक कारक है, जिसका स्रोत मुक्यतः सूर्य है। विकिरण रूप में प्राप्त सौर ऊर्जा (प्रकाश की साहयता से पौदे प्रकाश संश्लेषण द्वारा अपना भोजन निर्माण करते हैं। पौधों द्वारा अपने अन्दर एकत्र इस भोजन पर अन्य जीव-जन्तु आश्रित है। इस प्रकार प्रकाश के रूप में प्राप्त सौर ऊर्जा के ऊपर पृथ्वी पर जीव पर्याप्त जीवन पादप निर्भर हैं।

पर्यावरण का प्रकाश कारक कई प्रकार से जीवों को प्रभावित करता है। प्राणियों के अनेक प्रकार शारीरिक एवं व्यावहारिक लक्षम प्रकाश से नियंत्रित होते हैं। प्राणियों के विकास की गति को प्रकाश अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। प्रकाश की उपस्थिति या अनुपस्थिति से त्वचा में वर्णकों के निर्माण की रासायनिक क्रिया प्रबावित हयेती है। ठंडे प्रदेशों में प्रकाश की न्यूनता के कारम मैलेनिन नामक वर्णक का वहां के निवासियों की त्वचा का रंग गोरा बनाता है।

प्रकाश की तीव्रता भी प्रकाश संश्लेषण को प्रभावित करती है। यदि प्रकाश की तीव्रता इतनी कम हो जाये कि मात्र उतना ही भोजन पौधा बना सके जितना कि उसे अपने श्वसन में भय करना होता है तो प्रकाश की तीव्रता को यह अवस्था संतुलन प्रकाश तीव्रता (compensation points) कहलाती है।

पौधों की वृद्धि पर भी प्रकाश अपनी भूमिका निभाता है। यदि प्रकाश के प्रभाव में वनों की वृद्धि देखें तो पाएंगे कि इससे नर्म तथा दुर्बल तन ही बन पाते हैं। क्योंकि इनमें जाइलम का विकास नहीं हो पाता। इसके विपरीत धूप में उगने वाले पौधों के तने छोटे, मोटे और मजबूत होते हैं।

बहुत से पौधों की पत्तियाँ प्रकाश से अधिक प्रभावित होती हैं इसीलिए बहुत सी पत्ता फसलें कृत्रिम छाया में उगायी जाती हैं। उदाहरणार्थ सिगरेट बनाने में काम में लायी जाने वाली तम्बाकू की पत्तियों का उत्पादन कृत्रिम छाया में किया जाता है।

दैनिक प्रकाश की अवधि जिसे दीप्ति कालिकता (Photo periodism) भी कहते हैं, से भी पौधों एवं फलों के विकास को प्रभावित करते हैं। इस आदार पर पौधों की तीन श्रेणियाँ हैं-

(i) अल्प प्रदीप्ति कालिक पौधे, (ii) दीर्घ प्रदीप्ति कालिक पौधे, (iii) दीप्तिकाल निरपेक्ष पौधे।

(i) अल्प प्रदीप्ति कालिक पौधे- ऐसे पौधे जिनमे पुष्पीकरण के लिए कम अवधि के प्रदीप्तिकाल की जरूरत होती है, इस वर्ग में आते हैं। सोयाबीन तथा क्राइसेन्थेयम इस वर्ग में आते हैं। इन पौधों की क्रान्तिक प्रकाश अवधि सामान्यतः 12 से 14 घण्टे होती है। इस अवधि से अधिक प्रकाश होने पर इनमें केवल वानस्पतिक वृद्धि होती है, पुष्पीकरण तभी होगा जब प्रदीप्ति काल प्रकाश अवधि से कम हो।

(ii) दीर्घ प्रदीप्ति कालिक पौधे- इस वर्ग के पौधों के पुष्पीकरण के लिए यहाँ आवश्यक है कि अधिक अवधि का प्रदीप्ति काल हो। यदि इसका प्रदीप्ति बढ़ा दे तो पुष्पीकरण की गति भ्री बढ़ जाती है। इससे कम प्रदीप्ति काल होने पर इनमें पुष्पीकरण बन्द हो जाता है, केवल वानस्पतिक वृद्धि होती है। पालक तथा मूली इसके उदाहरण हैं।

(i) दीप्तिकाल निरपेक्ष पौधे- पौधों के इस वर्ग में उनके पुष्पीकरण पर दीप्तिकालिकता का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। टमाटर तथा सूर्यमुखी इसी वर्ग के पौधे हैं।

पौधों के स्थानीय वितरण में भी प्रकाश कारक एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ज्यादा प्रकाश वाले क्षेत्रों में हेलोफाइटिस (Helophytes) किस्म के पौधे पाये जाते हैं तथा सबसे निचले स्तर पर घास तथा शाक जैसे पौधे मिलते हैं। स्थल के अलावा जल में पौधों का वितरण भी प्रकाश कारक पर निर्भर करता है। जलीय सतह जहाँ तक प्रकाश पहुँच पाता है। हरे पौधे जैसे शैवाल आदि पौधे होते हैं। इससे ज्यादा गहराई (लगभग 70 मीटर) से अधिक नीचे जहाँ प्रकाश बहुत क्षीण होता है वहाँ फियोफाइसी तथा रोडोफाइसी परिवार के पौधे पाये जाते हैं। इससे नीचे लगभग 200 मीटर की गहराई पर जहाँ प्रकाश की पूर्ण अनुपस्थिति होती है वहाँ स्वपोषी नहीं पाये जा ।ए इस प्रकार प्रकाश का वितरण जलीय वातावरण में पोरधों के वितरण को भी प्रभावित करता है।

(ii) रासायनिक कारक (Chemical factors) – पर्यावरण के ऐसे कारक जो अपने विशिष्ट रासायनिक गुणों के द्वारा पर्यावरण को प्रभावित करते हैं, रासायनिक कारक कहलाते हैं। रासायनिक कारकों में मृदा तथा जल आदि कारक आते हैं।

(क) मृदा (Soil) – पृथ्वी के बाहरी धरातल की सबसे ऊपरी सतह जिसका निर्माण वहाँ की चट्टानों के विघटन तथा उन पर कार्बनिक पदार्थों तथा सूक्ष्म जीवों की निरंतर क्रिया से होता है तथा जिसमें अधिकांश वनस्पतियाँ एवं जीव पाये जाते हैं, मिट्टी कहलाती है।

पौधों तथा जीवों के निवास के लिए मृदा सबसे महत्त्वपूर्ण कारक मानी जाती है। इसमें सभी जीवों एवं पौधों के पोषक तत्वों का संग्रह रहता है। मिट्टी के निर्माण तथा प्रकृति में मिट्टी का रासायनिक संगठन, नमी, तापमान तथा pH मूल्य का विशेष योगदान है। मिट्टी के खनिज तत्व (नाइट्रोजन, कार्बन, सोडियम, पोटेशियम, कैल्शियम, सिलिका, एल्युमिना तथा बोरोन) पौधों की बढ़ोत्तरी में सहायक होते हैं।

मृदा का pH मूल भी पौधों के अस्तित्व एवं विकास को प्रभावित करता है। मृदा का pH जब 7 से अधिक होगा तो मृदा क्षारीय हो जायेगी जिसमें सोडियम तथा पोटेशियम लवणों की अधिकता होती है। इसी तरह जब मृदा का pH मान 7 से कम होगा तो वह मिट्टी अम्लीय कहलाती है।

पौधों के विकास की दृष्टि से उदासीन या कुछ अम्लीय मिट्टी श्रेष्ठ मानी जाती है। क्षारीय मृदा में प्रायः पौधे नहीं उगते। मृदा का प्रभाव वनस्पति ही नहीं प्राणियों पर भी पड़ता है। कैल्शियम कवच वाले घोंघे चने की अधिकता वाली मृदा में अधिक संख्या में पाए जाते हैं। इसी तरह खनिज युक्त मृदा में निमेटोड वर्ग के कृमियों की अधिकता पायी जाती है।

जल-कारक

पर्यावरण के रासायनिक कारकों में जल महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। समस्त जैव मण्डल के जीवधारियों एवं वनस्पतियों के लिए जल सीधे या परोक्ष रूप से जल का असीमित महत्त्व है।

जल एक सार्वजनिक घोलक (Universal solvent) होने। धीरे धीरे ठण्डा एवं गर्म होने, श्यानंता (verbosity) अन्य दरवों की अपेक्षा अधिक होने, पृष्ठ तनाव (surface tension) अन्य द्रवों से अधिक होने तथा अपने विशिष्ट घनत्व के कारण पादपों एवं जीवधारियों में अपनी विशेष भूमिका निभाता है।

पृथ्वी के जैव मण्डल में पौधों द्वारा प्रकाश संश्लेषण का क्रिया से भोजन निर्माण में जल एक आवश्यक तत्व है। जीवों द्वारा ग्रहण भोजन के घोलक के रूप में भी जल की भूमिका निर्विवाद है। पौधा अपना भोजन मृदा से तभी ग्रहण करते हैं जहाँ जल इसके लिए घोलक का कार्य करें। जीवों के शरीर में भोजन के पाचन एवं संचार के लिए भी जल एक आदर्श वाहक का कार्य करता है।

जैविक कारक (Biotic Factors)-

इस सृष्टि में कोई भी प्राणी अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखता, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में वे एक दूसरे को प्रभावित अवश्य करते हैं। ये सभी कारक जैविक कारकों की श्रेणी में आते हैं। पेड़-पौधे, जीव-जन्तु तथा मानव को ही मुख्यतः जैविक कारकों की श्रेणी में रखा जाता है।

उदाहरणार्थ- एक स्थान विशेष में उत्पन्न होने वाले पौधे जहाँ एक तरफ स्वयं अपनी ही प्रजाति के पौधों से प्रभावित होते हैं वहीं उन पौधों के बीच बसने वले जन्तु भी पौधों को प्रभावित करते हैं तथा स्वयं उनसे प्रभावित होते हैं। इस प्रकार जीवों के बीच परस्पर क्रिया प्रतिक्रिया का एक जैविक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, जिसके आधार पर जीवधारी वातावरण के जैविक कारकों से अनुक्रियाएँ (interaction) करता है।

ये जैविक घटकों को मोटे तौर पर 3 वर्गों में बाँट सकते हैं- उत्पादक वर्ग, उपभोक्ता वर्ग तथा विघटक वर्ग।

महत्त्वपूर्ण है कि इन गैसों के अतिरिक्त भी वायुमण्डल में अन्य गेसें भी अत्यन्त अल्प मात्रा में विद्यमान रहती हैं जैसे- हीलियम, नियोन, क्रिप्टन, जेनोन आदि। वायुमण्डल में जल वाष्प की मात्रा भी सामान्य अवस्था में 3-5 प्रतिशत तक पायी जाती है। समुद्र तल से 6 किमी. की ऊँचाई तक पृथ्वी में सर्वत्र विभिन्न गैसों का अनुपात लगभग एक समान रहता है। इससे अधिक ऊँचाई पर इनके अनुपात में परिवर्तन आता जाता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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