ग्रामीण एवं नगरीय परिवारों का तुलनात्मक अध्ययन

ग्रामीण एवं नगरीय परिवारों का तुलनात्मक अध्ययन | नगरीय परिवार की समस्याएँ | ग्रामीण एवं नगरीय परिवारों की तुलना

ग्रामीण एवं नगरीय परिवारों का तुलनात्मक अध्ययन | नगरीय परिवार की समस्याएँ | ग्रामीण एवं नगरीय परिवारों की तुलना | Comparative study of rural and urban families in Hindi | Problems of urban family in Hindi | Comparison of rural and urban families in Hindi

ग्रामीण एवं नगरीय परिवारों का तुलनात्मक अध्ययन

जिम्मरमैन के अनुसार- “नगरों में परिवार संस्था का ग्रामों से मौलिक रूप नहीं पाया जाता है। भारतीय नगरीय संरचना भी परिवार संस्था विघटन के कगार पर खड़ी है। इस संस्था में आज अनेक समस्याएँ परिव्याप्त हो गयी हैं।”

नगरीय परिवार की समस्याएँ-

नगरीय परिवार की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

(1) पारिवारिक तनाव- नगरीय परिवार की सबसे बड़ी समस्या पति और पत्नी का सम्बन्ध है। प्राचीन युग एवं आधुनिक युग में संघर्ष चल रहा है। नगरों में पारिवारिक तनावों की संख्या अधिक पायी जाती है। बच्चों में भी अनुशासनहीनता पायी जाती है।

(2) विवाह-विच्छेद- नगरीय परिवार की दूसरी प्रमुख समस्या विवाह विच्छेद का विकास होना है। विवाह का आधार पवित्र समझौता न होकर वैज्ञानिक समझौता हो गया है। जिसे जब चाहें तब तोड़ा जा सकता है। विवाह का उद्देश्य जीवन के कार्यों की पूर्ति न होकर सुख- आनन्द एवं भोग-विलास की संतुष्टि हो गया है। दोनों को आपस में बाँधने के बन्धन समाप्त हो गये हैं।

(3) माता-पिता व सन्तानों का संघर्ष- माता-पिता एवं इनके बच्चों का संघर्ष बढ़ता जा रहा है। परिवार के साथ में ऐसी कोई शक्ति नहीं है, जिनके द्वारा माता-पिता बच्चों पर नियन्त्रण रख सकें। परिवार के संरक्षकों व युवा सन्तानों में परस्पर मूल्यों का संघर्ष विकसित है। युवाओं में अनुशासनहीनता बढ़ गयी है।

(4) संतानों के पालन-पोषण की समस्याएँ- पति एवं पत्नी दोनों ही घर से बाहर कार्य करने जाते हैं जिसके कारण बच्चों के पालन-पोषण की समस्या बढ़ती जा रही है। माता केवल घर की चहारदीवारी में रहकर समाज के अन्य कार्यों एवं उत्सवों में भाग लेती है। इसके कारण वह बच्चों की देखभाल नहीं कर पाती। यद्यपि दूसरी व्यवस्थाएँ की गयी हैं किन्तु वे उचित परिणाम नहीं दे पा रही हैं।

(5) सुरक्षा का अभाव- पहले पति-पत्नी का सम्बन्ध स्थायी होता था और उसके कारण परिवार के सदस्यों में सुरक्षा रहती थी। नगरीय परिवार में अब इस भावना का लोप हो गया है। क्योंकि दोनों को ही सदैव यह आशंका बनी रहती है कि जाने कब मुझे दूसरा साथी छोड़ दे। आधुनिक काल में ऐसा अधिकांश रूप में देखा जाता है।

(6) पारस्परिक विश्वास की कमी- नगरीय परिवार में पारस्परिक विश्वास की अत्यधिक कमी पायी जाती है। एक दूसरे पर कोई विश्वास नहीं करता। यह परिवार न होकर संयुक्त सीमित कम्पनी हो गयी है।

(7) न्यून जन्म-दर- जन्म-दर दिन प्रतिदिन गिरती जा रही है। ऐसे बहुत से परिवार पाये जाते हैं जिनमें बच्चे ही नहीं होते। इसके कारण राष्ट्र की जनसंख्या तो कम होती ही है साथ ही साथ परिवार भी अस्थायी हो जाता है। बच्चों के कारण पति-पत्नी के बन्धन में बंध जाते हैं। जिन परिवारों में बच्चे होते हैं उनमें विवाह विच्छेद बहुत कम होता है।

ग्रामीण एवं नगरीय परिवारों की तुलना-

संरचनात्मक दृष्टि से ग्रामीण एवं नगरीय परिवारों की तुलनात्मक विवेचना निम्न प्रकार से की जा सकती है।

  1. स्थायित्व- ग्रामीण परिवार की संरचना अधिक स्थायी एवं संगठित होती है। परन्तु तुलनात्मक दृष्टि से नगरीय परिवार की संरचना उतनी स्थायी एवं संगठित नहीं होती है। अस्थायित्व नगरीयवाद का अभिशाप है।
  2. आकार- ग्रामीण परिवारों का आकार नगरीय परिवारों की तुलना में बड़ा होता है। ग्रामों में कृषि के व्यवसाय के कारण बड़े परिवार की आवश्यकता भी रहती है, नगरीय परिवार का आकार लघु होता है और प्रायः यह मूल परिवार ही होता है जिसमें पति-पत्नी और उनके बच्चे होते हैं। जन्म-दर भी ग्रामीण परिवारों की अधिक होती है। नगरीय परिवारों के लोग अधिक बच्चे भी पसन्द नहीं करते हैं।
  3. स्वरूप- ग्रामीण परिवार अभी तक अधिकांशतः विस्तृत परिवार अथवा संयुक्त परिवार होते हैं। नगरीय परिवार अधिकांशतः एकाकी परिवार होते हैं।
  4. सामञ्जस्य- ग्रामीण परिवारों में अत्यधिक सामंजस्य पाया जाता है और पारिवारिक बन्धन अधिक शक्तिशाली होते हैं। नगरीय परिवारों में अपेक्षाकृत अति न्यून सामञ्जस्य पाया जाता है । सदस्य अपनी-अपनी खिचड़ी पकाते हैं।
  5. मुखिया की सत्ता- ग्रामीण परिवार के मुखिया की सत्ता अपरिमित होती है। वह ग्रामीण परिवारों का एकमात्र शासक होता है। नगरीय परिवारों में मुखिया की सत्ता अधिक नहीं होती है कई बार तो बिलकुल ही नहीं है।
  6. सामान्य जीवन- ग्रामीण परिवार में सामानय जीवन की प्रमुखता पायी जाती है। माता-पिता, बच्चे तथा अन्य सम्बन्धी अधिकतर साथ-साथ कार्य करते हैं। उनमें अत्यधिक सहयोग की भावना पायी जाती है। नगरीय परिवारों में सामान्य जीवन का अभाव पाया जाता है।
  7. पारिवारिक महत्व- ग्रामीण परिवार एक अत्यन्त महत्वपूर्ण संस्था है तथा उसे ग्रामीण समाज का मूल आधार कहा जा सकता है। नगरीय परिवार इतना महत्वपूर्ण नहीं है। उसके सदस्य परिवार त्याग कर भी सरलता से आनन्दमय जीवन यापन कर सकते हैं।
  8. अन्योन्याश्रित ग्रामीण परिवारों में सदस्य एक दूसरे पर अत्यधिक मात्रा में अन्योन्याश्रित होते हैं। वे एक दूसरे के सहयोग के बिना जीवन नहीं चला सकते हैं। नगरीय परिवार में भी इतनी अधिक अन्योन्याश्रिता नहीं पायी जाती है। नगरीय परिवार के सदस्य अधिक स्वतन्त्र नहीं होते हैं।
  9. अनुशासन- ग्रामीण परिवार के सदस्य अधिक अनुशासित होते हैं। वे परिवार के मुखिया एवं अन्य प्रमुख सदस्यों का अत्यधिक आदर करते हैं तथा उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। नगरीय परिवार के सदस्य अपेक्षाकृत कम अनुशासित होते हैं। वे परिवार के मुखिया को अधिक महत्व नहीं देते हैं।
  10. सामाजिक नियन्त्रण- ग्रामीण परिवार अपने सदस्यों पर अत्यधिक नियन्त्रण रखते हैं। छोटा समुदाय होने के कारण कोई बात छिपी नहीं रह सकती है। नगरीय परिवार नियन्त्रण की दृष्टि से पूर्ण असफल रहे हैं।
  11. सामाजिक संरचना में परिवार का महत्त्व- ‘ग्रामीण परिवार का सामाजिक संरचना से अत्यधिक महत्व है। ग्रामीण सामाजिक संरचना ग्रामीण परिवार का सत्य प्रतिरूप है। सिक्स ने लिखा है- “निश्चय ही ग्रामीण परिवार उसकी (ग्रामीण सामाजिक संरचना) सदैव से ही प्रमुख संस्था रही है। जो व्यक्ति को स्थिति प्रदान करती है तथा सामाजिक संरचना की अधिकांश प्रकृति निश्चित करती रही हैं। ग्रामीण परिवार सम्पूर्ण ग्रामीण सामाजिक संरचना पर छाया रहता है। उसकी छाप हर संस्था पर लक्षित होती है। ग्रामीण समाज को ही परिवारात्मक समाज कहा गया है।”

नगरीय परिवार का महत्त्व सामाजिक संरचना में उतना नहीं है। नगरीय परिवार का अधिक प्रभाव नगरीय सामाजिक संरचना पर नहीं पड़ता है।

कार्य- ग्रामीण एवं नगरीय परिवार के कार्यों में भी बहुत अन्तर है जो प्रमुख रूप से निम्न है-

(1) प्राणिशास्त्रीय कार्य- प्राणिशास्त्रीय कार्य तीन हैं-

(अ) सन्तानोत्पत्ति (ब) यौन सम्बन्धों की सन्तुष्टि (स) बच्चों का पालन पोषण, (द) स्थान की व्यवस्था, (य) भोजन एवं वस्त्रों की व्यवस्था और (र) सदस्यों की शारीरिक रक्षा।

ग्रामों में शक्तिशाली परिवार के आधार पर ही शरीर की रक्षा की जाती है।

(2) आर्थिक कार्य- ग्रामीण परिवार अभी भी आर्थिक क्रियाओं का केन्द्र है। ग्रामीण परिवार का कार्य उत्पादन करना, वस्तुओं को बिक्री के योग्य बनाना, उसका विक्रय करना आदि सभी हैं। नगरीय परिवार आर्थिक क्रियाओं का केन्द्र नहीं हो सकते हैं वह तो केवल उपभोग का केन्द्र रह गया है।

(3) सामाजिक कार्य- ग्रामीण परिवार में सामाजिक कार्य का अत्यधिक महत्व है। इसे दो वर्गों में बांटा गया हैं-

(अ) सामाजिक स्थिति का निर्धारण- ग्रामीण परिवार अपने सदस्यों की सामाजिक स्थिति का निर्धारण का आधार प्रमुख हैं। चुनावों एवं राजनीतिक व सामाजिक नेतृत्व में भी परिवार का आधार बहुत महत्वपूर्ण रहता है। नगरीय परिवार का महत्व अब सामाजिक स्थिति के निर्धारण में उतना नहीं है।

(ब) सामाजिक नियन्त्रण- ग्रामीण परिवार नगरीय परिवार की तुलना में सामाजिक नियन्त्रण की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है।

(5) धार्मिक कार्य- धार्मिक कार्यों का प्रतिपादन ग्रामीण परिवारों में अधिक होता है- ‘नगरीय परिवार धार्मिक कार्यों के प्रति उदासीन है।’

ग्रामीण परिवार की श्रेष्ठता- ग्रामीण परिवार अनेक दृष्टियों से श्रेष्ठ है। तुलनात्मक दृष्टि से नागरिक परिवार उसकी समानता नहीं करता या कर सकता। ग्रामीण परिवार के अनेक महत्वपूर्ण गुण हैं। ग्रामीण परिवार एक संगठित पारिवारिक ढाँचा है। व्यक्ति इसमें सम्पूर्ण सुरक्षा का अनुभव करता है। इसका अभिप्राय यही है कि ग्रामीण परिवार में दोष नहीं है। इसका पक्ष भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

नगरीय परिवार की श्रेष्ठता- ‘नगरीय परिवार की श्रेष्ठता सर्वप्रधान है। यह एक प्रजातान्त्रिक इकाई है। नगरीय परिवार के व्यक्ति स्वतन्त्र रहकर अपने पैरों पर खड़े रहने की क्षमता विकसित करता है। स्वावलम्बन का पाठ वह नगरीय पाठशाला में बैठकर पढ़ता है। व्यक्तित्व के विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक स्वतन्त्रता का पर्यावरण उसे नगरीय परिवार में मिलता है। नगरीय परिवार वह छोटी इकाई है जिसमें पति-पत्नी तथा उनकी सन्तानों के बीच अनौपचारिक सम्बन्ध स्थापित किये जा सकते हैं। नगरीय परिवार की श्रेष्ठता यह है कि यह पति व पत्नी के बीच स्नेह के सम्बन्ध को अधिक महत्त्व देता है तथा स्वार्थों के सम्बन्धों से परिवार को मुक्त रखता है।

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