
आधुनिक शिक्षा पर प्रयोजनवाद के प्रभाव का उल्लेख
दर्शन के रूप में नहीं वरन् व्यवहार के रूप में प्रयोजनवाद ने आधुनिक शिक्षा पर बहुत प्रभाव डाला है। शिक्षा एक व्यावहारिक कला है और व्यावहारिक दृष्टि से प्रयोजनवाद शिक्षा पुनःनिर्माण में बहुत सहायक सिद्ध हुआ। प्रयोजनवादी शिक्षा की निम्नलिखित धाराएं आज भी भारतीय शिक्षा में स्पष्ट है-
- शिक्षा व्यापक रूप से विकास वृद्धि या व्यवहार परिवर्तन का रूप लेती है।
- शिक्षा के निकट के उद्देश्य बहुत महत्व रखते हों और उनकी प्राप्ति के लिये शिक्षण विधियां प्रगतिशील हों।
- शिक्षा जीवन केन्द्रित हो और एक प्रगतिशील समाज में वह भी प्रगति का परिचय दे।
- शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है और समाज का पोषण है।
- समाज शिक्षा संस्थाओं को अपने आदर्शों की पूर्ति के लिए स्थापित करता है। अतः शिक्षण संस्थाएं समाज का बन्धु रूप है।
- जनतंत्रीय समाज के लिए जनतंत्रीय शिक्षा की आवश्यकता है।
- ज्ञान की उत्पत्ति क्रिया से होती है, क्रिया प्रधान है, सफलतापूर्वक क्रिया का सम्पादन करने के लिए वह ज्ञान आता है और बालक क्रिया द्वारा सीखता है।
- शिक्षा बालक की नैसर्गिक प्रवृत्तियों, रुचियों, शक्तियों आदि को केन्द्र बनाकर दी जाये परन्तु उसको साथ ही साथ सामाजिक रूप भी दिया जाये। बालक अपने हित के साथ-साथ समाज का हित करने की क्षमता भी सीख ले।
- परम्परागत, रूढ़िगत तथा कठोर विधियों व विचारों को शिक्षा में लाकर एक लचकदार समाज में एक लचकदार शिक्षा की आवश्यकता है।
- शिक्षा जीवन की तैयारी ही नहीं जीवन का लक्ष्य है। भविष्य अनिश्चित है अतः वर्तमान अधिक मूल्य रखता है। शिक्षा द्वारा बालकों को वह गुण, ज्ञान, मनोकृतियां व कौशल दिये जाये जो उन्हें एक बदलते हुए समाज में परिस्थितियों के अनुकूल अपना समाज में स्थान लेने योग्य बनाये।
प्रयोजनवाद ने शिक्षा में एक नयी क्रान्ति को जन्म दिया, कक्षा के समग्र वातावरण में नया रूप आया, शान्तिपूर्ण बैठकर ज्ञान प्राप्त करने का स्थान न रहकर सक्रिय छात्र क्रियाओं से मुक्त व्यस्त स्थान बनकर रह गया। प्रयोजनवाद के अनुसार छात्र कक्षा में चुपचाप बैठकर व्याख्या नहीं सुनते हैं अपितु कार्य करते हैं, सन्दर्भ सामग्री का अध्ययन करते हैं। वे विचार-विमर्श करते हैं। वे योजना बनाते हैं और प्रयोग करते हैं। अध्ययन अब केवल कक्षा में बैठकर नहीं किया जाता अपितु प्रकृति अवलोकन, भ्रमण आदि द्वारा सक्रिय रूप से अध्ययन किया जाता है। अध्ययन की प्रणाली व्याख्यान प्रश्नत्तर, पुस्तक पठन आदि तक सीमित नहीं रही बल्कि साक्षात्कार, अवलाकन, प्रयोग, पत्र व्यवहार आदि अध्ययन का अंग बन गयी है।
प्रयोजनवाद ने बालक की स्वतन्त्रता का उद्घोष किया। लोकतांत्रिक युग में कैवल व्यक्ति को ही अन्तिम लक्ष्य माना जाता है। शिक्षा में इस वास्तविकता को प्रयोजनवाद ने सबसे, पहले स्वीकार किया। प्रयोजनवाद ने बालक को एक निष्क्रिय ज्ञान ग्अहण करने वाला हा न मानकर उसे शिक्षण प्रक्रिया का सक्रिय घटक माना है।
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