बेन्थम की राजनीतिक चिन्तन में देन | बेन्थम का राजनीतिक चिन्तन में महत्त्व
बेन्थम की राजनीतिक चिन्तन में देन | बेन्थम का राजनीतिक चिन्तन में महत्त्व
बेन्थम की राजनीतिक चिन्तन में देन तथा महत्त्व
अनेक दोषों के होते हुए भी बेन्थम का राजनीतिक चिन्तन में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। वेन्थम मौलिक अथवा उत्कृष्ट कोटि का विचारक नहीं था। एक विद्धान के शब्दों में, “उसने ज्ञान का सिद्धान्त लॉक तथा राम से ग्रहण किया, सुख दुःख का सिद्धान्त हेल्वेशियस से लिये, सहानुभूति और प्रतिकूल भावना का सिद्धान्त राम से लिया, उपयोगिता का विचार कई अन्य लेखकों से लिया। उसमें मौलिकता का अभाव था फिर भी राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में अपनी विशिष्ट देनों तथा प्रभाव के कारण वह विशिष्ट स्थान रखता है। उसकी विभिन्न क्षेत्रों में असाधारण प्रभाव उल्लेखनीय है।” उसकी महत्त्वपूर्ण देन निम्नलिखित हैं:-
(1) उपयोगिताबादी विचार-
उसकी पहली देन उपयोगिता के दार्शनिक सिद्धान्त की स्थापना और इसे वैज्ञानिक रूप प्रदान करना है। उसी के प्रयत्नों से इसने एक शास्त्रीय और ब्रिटिश राजनीति पर प्रभाव डालने वाले सुधार्वादी आन्दोलन का रूप धारण किया । बेन्थम ने पुराने सिद्धान्तों का अद्भुत सम्मिश्रण करते हुये इसके समाज-सुधार के प्रभावशाली साधन का आविष्कार किया। यह बेन्थम की सर्वधा नवीन और मौलिक देन थी।
(2) राज्य के कार्य और उद्देश्य का नया सिद्धान्त-
उसकी दूसरी देन राज्य के कार्य और उद्देश्य के सम्बन्ध में एक नये सिद्धान्त का विकास था। उसके मतानुसार राज्य का लक्ष्य अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख पहुँचाना है। भले ही इस सुख को निश्चित करने में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाँ हों किन्तु वह अपने आप में एक क्रान्तिकारी सिद्धान्त था। उसने यह घोषणा की कि राज्य मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य राज्य के लिए। उसने इस बात पर बल दिया कि केवल उसी राज्य को उत्तम माना जा सकता है जो अपनी प्रजा का हित पूरा करे। बेन्थम ने कहा था कि समाज का निर्माण करने वाले व्यक्तियों के हित में ही समाज का हित है। वेपर ने राजनीतिक सिद्धान्त के क्षेत्र में यह बेन्थम की सबसे बड़ी देन मानी है।
(3) कानूनी व्यवस्था में सुधार-
बेन्थम की तीसरी देन कानूनों के क्षेत्र में सुधार की थी। वह प्रधान रूप से तत्कालीन कानूनों के सुधार के लिये प्रचंड आन्दोलन करने वाला था यह उसके जीवन का प्रधान लक्ष्य था इस क्षेत्र में उसके प्रभाव का उल्लेख करते हुए सर हेनरी मेन ने लिखा था कि “बेन्थम के समय में होने वाले मुझे किसी भी एक कानूनी सुधार का ज्ञान नहीं है, जिसका मूल स्रोत उसे न बताया जा सकता हो।” बेन्थम यद्यपि अपने देश की कानून की संहिता (Code) बनाने के उद्देश्य में सफल नहीं हुआ था किन्तु उसने इनके भीषण दोषों को प्रकाश में लाकर कानूनी सुधार की महत्वपूर्ण प्रक्रिया का श्रीगणेश किया |
(4) कानून एवं प्रभुसत्ता सम्बन्धी विचार-
राजनीतिक चिन्तन के क्षेत्र में बेन्थन की चौथी देन कानून और प्रभुसत्ता के विचार थे। बेन्थम से पहले कानून को बुद्धि (reason) अथवा प्रकृति (nature) का रहस्यपूर्ण आदेश माना जाता था। किन्तु बुद्धि और प्रकृति दोनों का स्वरूप अनिश्चित और अस्पष्ट था। बैन्थम ने कानून के अस्पष्ट स्वरूप के स्थान पर एक अत्यन्त सरल और स्पष्ट मत का प्रतिपादन किया। इसके अनुसार कानून एक ऐसी सत्ता का आदेश है जिसकी आज्ञाओं का पालन लोग स्वाभाविक रूप से करते रहते हैं।
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(5) राज्य सम्बन्धी विचार-
बेन्थम से पहले राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सामाजिक अनुबन्ध (Social Contract) के सिद्धान्त का बोलबाला था। राज्य सुदूर स्मरणातीत समय में, इतिहास के उषाकाल में हुए एक समझौते का परिणाम समझा जाता था। बेन्थम ऐसे किसी काल्पनिक भूतकालीन समझौते को नहीं, अपितु प्रजाजनों द्वारा स्वाभाविक रूप से वर्तमान समय में आज्ञा पालन को राज्य का आधार मानता था । मनुष्य आज्ञा का पालन उपयोगिता के आधार पर करते हैं। उन्हें उससे जो सुख और लाभ प्राप्त होते हैं, वे आज्ञा भंग के दुष्परिणामों की अपेक्षा अधिक उपयोगी तथा लाभप्रद है। इसके अतिरिक्त उसने उस समय के प्रचलित सभी प्रकार के अधिकारों का खण्डन करके मध्यकालीन राजनीतिक विचारधारा के दोषों को दूर किया।
(6) ब्रिटिश राजनीति को क्रान्ति से सुरक्षित बनाया-
बेन्थम की छठी देन इंग्लैण्ड के राजनीतिक जीवन में स्थिरता की प्रवृत्ति को बढ़ाना था। फ्रांस की राज्य क्रान्ति के बाद यूरोप में क्रान्तियों की बाढ़ आ गई थी, 19वीं शताब्दी में अधिकांश देशों में क्रान्तियों द्वारा समाज में मौलिक, उग्र एवं क्रान्तिकारी परिवर्तन किये गए। किन्तु बेन्थम ने शनैः शनैः सुधार करके ब्रिटिश राजनीति को क्रान्ति से सुरक्षित बनाया।
(7) अनुसन्धान और गवेषणा को महत्त्व देना-
बेन्थम की सातवीं महत्त्वपूर्ण देन राजनीति शास्त्र के क्षेत्र में अनुसन्धान एवं गवेषणा की प्रवृत्ति को स्थान देना था। आजकल यह प्रवृत्ति सब राज्यों के लिये आवश्यक मानी जाती है। एबेन्स्टाइन ने उसे विधानपालिका और कार्यपालिका के तीन अंगों के समान महत्व रखने वाला चौथा अंग बताया है। राज्य सभी योजनाओं, कार्यों और नीतियों का निर्धारण करने से पहले इनके सम्बन्ध में सब प्रकार का आवश्यक अनुसन्धान और विचार-विमर्श करते हैं। विवादग्रस्त प्रश्नों की जाँच के लिये समितियाँ और आयोग नियुक्त किये जाते हैं। इनके द्वारा समस्याओं की पूरी जाँच की जाती है और तब तक कोई नीति निश्चित की जाती है। आजकल यह पद्धति सर्वथा स्वाभाविक प्रतीत होती है।
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