राजनीति विज्ञान / Political Science

जेरेमी बेन्थम की जीवनी | बेन्थम का उपयोगिता के सिद्धान्त | उपोगितावाद की आलोचना

जेरेमी बेन्थम की जीवनी | बेन्थम का उपयोगिता के सिद्धान्त | उपोगितावाद की आलोचना

जेरेमी बेन्थम की जीवनी

उपयोगितावाद के जनक जेरेमी बेन्थम का जन्म इंग्लैंड में 1748 ई० में एक सम्पन्न वकील घराने में हुआ था। वह बचपन से असाधरण प्रतिभाशाली था। तीन वर्ष की आयु में इसने लैटिन और चार वर्ष की आयु में फ्रेंच पढ़ी, तेरह वर्ष की आयु में मैट्रिक पास किया तथा पन्द्रह वर्ष की आयु में उसने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा पास की। बेन्थम के पिता ने अपने असाधारण प्रतिभाशाली पुत्र को 1766 में लिंकन्स में वकालत पढ़ने के लिये भेजा। बेन्थम ने इस समय का सदुपयोग कानून सम्बन्धी पुस्तकों के अध्ययन में किया और वह किंग्स बैंच के प्रधान न्यायाधीश लार्ड मैन्सफील्ड के न्यायालय में कानून का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने के लिये जाया करता था। यहाँ उसे कानून की वास्तविक स्थिति का, उसकी अपूर्णताओं, अनिश्चितियों, त्रुटियों और दोषों का प्रत्यक्ष अनुभव और ज्ञान हुआ। वह कानून की अव्यवस्था, बेहूदापन तथा अनावश्यक जटिलता देखकर चकित रह गया। 1800 ई० में लगभग 230 अपराधों के लिये प्राणदन्ड की व्यवस्था की, ४० शिलिंग से अधिक मूल्य की वस्तुओं की चोरी के लिए मृत्यु दण्ड दिया जाता था। कानून तोड़ने वाले दण्ड पाने से बच जाते थे और निरपराध व्यक्ति दण्डित हो जाते थे। बेन्थम को कानून के दोषों का जितना अधिक ज्ञान हुआ वह उतनी ही अधिक दृढ़ता से इनके सुधार के लिए संकल्प करने लगा। वकालत करने के स्थान पर उसने अपने जीवन का ध्येय कानूनी पद्धति का सुधार करना बना लिया।

बेन्थम प्रतिदिन नियमित रूप से लिखने वाला असाधारण प्रतिभा का व्यक्ति था। उसके द्वारा लिखे गये पृष्ठों की संख्या 1 लाख से अधिक बताई जाती है। उसके हस्तलेखों की पांडुलिपियाँ 148 बक्सों में बन्द हैं और आज भी लंदन विश्वविद्यालय और ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित हैं।

1785 में उसने यूरोप में विभिन्न देशों की यात्रा की जिसका उसके विचारों पर प्रभाव पड़ा। 1788 में वह कामन्स सभा की सदस्यता के लिये खड़ा हुआ था किन्तु सफलता नहीं मिली। चुनाव में हारने के बाद उसने प्राचीन यूनान के सुप्रसिद्ध विधान निर्माता सोलन और लाइकरगस की भाँति आदर्श विधानों का निर्माता बनने का संकल्प किया। 1789 में फ्रांसीसी राज्य क्रान्ति आरम्भ होने के साथ ही इस विषय पर उसकी पुस्तक “नैतिकता और विधान निर्माण के सिद्धान्त’ (Principles of Morals Legislation) प्रकाशित हुई। बेन्थम 60 वर्ष की आयु में उम्र क्रान्तिकारी विचारों का प्रबल समर्थक बना। 1824 में उसने इन विचारों के प्रसार के लिए वेस्ट मिन्स्टर (West Minster Review) नामक पत्र निकालने में सहयोग दिया। 1827 में उसने लन्दन विश्वविद्यालय के मूल यूनिवर्सिटी कालेज को इस उद्देश्य से स्थापित किया कि ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज के दूषित वातावरण से मुक्त रहे। 1832 में उसकी मृत्यु हो गई।

रचना- बेन्थम ने लेखों तथा निबन्धों के अतिरिक्त कई ग्रन्थ लिखे जो निम्नलिखित हैं-

(1) फ्रेगमेण्ट्स ऑफ गवर्नमेण्ट, (2) ए डिफेन्स आप यूजरी, (3) ऐन इंट्रोडक्शन टू दि प्रिसिंपल्स आप मारल्स एण्ड लेजिसलेशन, (4) डिसकोर्स आन सिविल एण्ड पेनल लेजिस्लेशन, (5)ए थ्योरी ऑफ पनिशमेण्ट एण्ड रिवार्ड्स, (6) ए ट्रीटाइज आन जुडीशियल एवीडेन्स, (7) पेपर्स अपान कोडिफिकेशन एण्ड पब्लिक इन्स्ट्रक्शन, (8) दि बुक आफ फिलेसीज।

बेन्थम का उपयोगितावादी सिद्धान्त

(Bentham’s Theory of Utilitarianism)

बेन्थम उपयोगितावाद का नेता माना जाता है परन्तु उसके विचारों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उसने किसी राजनैतिक विचारधारा का प्रतिपादन नहीं किया) वह तो केवल हर क्षेत्र में सुधार चाहता था। बेन्थम लिखता है कि “प्रकृति ने समस्त मानव जाति को सुख और दुःख इन दो सम्प्रभु स्वामियों के अधीन रखा है। यह कार्य इन्हीं दो शक्तियों का है कि वे बताये कि हमें क्या करना है क्या नहीं।” उसी के शब्दों में-

“Nature has placed mankind under the governance of two sovereign masters-pain and pleasure. It is for them alone to point out what we ought to do, as well as to determine what we shall do.”

(1) उपयोगितावाद- उपयोगितावाद का अर्थ है ‘अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख’, (Greatest happiness of the greatest number)|

बेन्थम के अनुसार किसी वस्तु या कार्य की उपयोगिता ही उसके अच्छे या बुरे होने का निर्णय करती है। अपने आप में कोई कार्य न अच्छा है और न बुरा । यदि कार्य के करने से लाभ होता है अर्थात् सुख मिलता है तो वह अच्छा है और यदि दुःख मिलता है तो वह बुरा है। सब कुछ परिणाम पर निर्भर करता है; अतः मनुष्य स्वभाव से सदा ऐसा कार्य करने को प्रेरित होता है जिससे उसे सुख मिले और उन कार्यों से बचने की कोशिश करता है जिससे दुख पाने की सम्भावना हो। यही उपयोगिता का व्यावहारिक सिद्धान्त है।

इस प्रकार उपयोगिता का सिद्धान्त सुख की प्राप्ति और दुःख के निवारण का सिद्धान्त है। किन्तु सुख और दुख का स्वरूप जानने के लिए बैन्थम ने विशद् वैज्ञानिक विवेचन किया है। उसके अनुसार सरल अथवा सामान्य सुख निम्नलिखित पन्द्रह प्रकार के हैं। इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होने वाले सुख-सम्पत्ति, दक्षता, भिन्नता, उत्तम चरित्र अथवा कीर्ति, शक्ति, पवित्रता (Piety), परोपकार या सत्कामना, परोपकार या असत्वामना (malevolence), बुद्धि, स्मृति, कल्पना,| आशा, सत्संग और दुःख, बुद्धि (relief) से प्राप्त होने वाले सुख । इसी प्रकार साधारण दुःख 12 प्रकार के हैं- पीड़ा (Privation), शत्रुता, अपयश, दरिद्रता, धार्मिकता तथा निर्दयता, स्मृति, कल्पना, आशा और सत्सङ्ग, बुरा चाहना और अशोभनीयता।

बेन्थम के मतानुसार किसी व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह द्वारा अनुभव की जाने वाली सुख- दुःख की मात्रा इनके ग्रहण या अनुभव करने की सामर्थ्य को निश्चित करने वाले तत्वों पर निर्भर रहती है। ये तत्व कुल बत्तीस हैं स्वास्थ्य, शक्ति, कठोरता, शारीरिक दोष या कमियाँ, ज्ञान की मात्रा और स्वरूप, बौद्धिक शक्तियों की प्रखरता, मन की दृढ़ता और निश्चलता, मनोवृत्ति, नैतिक अनुभव, ग्रहण करने की शक्ति, नैतिक पक्षपात, आर्थिक अवस्था, लिङ्ग, आयु, सामाजिक पद, शिक्षा, जलवायु, वंश परम्परा और शासन ।

उपयोगिता का निर्धारण करने में बेन्थम सुखों की मात्रा पर बल देता है। यदि किसी कार्य से सुख की अधिक मात्रा उत्पन्न होती है तो वह अच्छा सुख है। अतः इनकी मात्रा को इंच व सेर में तौलकर बेन्थम ने एक पद्धति निकाली है। इस पद्धति के अनुसार सुखों दुखों को तुलनात्मक कसौटी पर कसा जाता है। इस पद्धति को आनन्द मापक गणना पद्धति (Felicific Calculus) कहते हैं। बेन्थम के कथनानुसार एक कानून बनाने वाले का यह कर्त्तव्य है कि वह किसी प्रवृत्ति से उत्पन्न होने वाले सुखों और दुःखों का मूल्यांकन करते हुए उन्हें दो पलड़ों में तौले। एक ओर सुखों के और दूसरी ओर दुःखों के मूल्य रखे जाएँ; इनमें से यदि सुखों वाला पलड़ा भारी हो तो यह प्रवृत्ति उत्तम अथवा उपयोगी है। यदि दुःखों वाला पलड़ा भारी हो तो यह प्रवृत्ति बुरी अथवा निरुपयोगी है। किसी नियम के साथ सुख-दुःख उसे पालन करवाता है और उसका मूल स्रोत इसकी अनुज्ञप्ति (Sanction) या पालन कराने वाली शक्ति होती है। ये अनुज्ञप्तियाँ 4 प्रकार की होती हैं-भौतिक, नैतिक, राजनीतिक तथा धार्मिक । भौतिक अनुज्ञप्ति में वे सुख-दुःख आते हैं जो प्रकृति से प्राप्त होते हैं। इनमें कोई मानवीय हस्तक्षेप नहीं होता। नैतिक अनुज्ञप्ति में घृणा या प्रेम की भावनाओं से अनुप्राणित होने वाले पड़ोसियों से प्राप्त होने वाले सुख दुःख है। तीसरी राजकीय अनुज्ञप्ति मैजिस्ट्रेट आदि सरकारी कर्मचारियों द्वारा कानून के अनुसार दिए जाने वाले दण्ड हैं। चौथी धार्मिक अनुज्ञप्ति धर्मशास्त्र की अवस्थाओं के अनुसार मिलने वाले दुःख-सुख हैं। बेन्थम ने इन चारों को उदाहरण से भी समझाया जो निम्नलिखित प्रकार हैं:-

यदि यह मकान मनुष्य की अपनी असावधानी और दूरदर्शिता से जलता है तो यह प्रकृति के प्रकोप का परिणाम है। यदि आग लगाने के समय सहायता न देने वाले पड़ोसियों की दुर्भावना से भस्म हुआ है तो यह लोकमत से प्राप्त होने वाला दुखः या दण्ड है। यदि यह मकान मैजिस्ट्रेट की आज्ञा से जलाया गया है तो यह राजनीतिक स्रोत से मिलने वाला दण्ड है। यदि इसका अन्त किसी देवता के रोष का परिणाम माना जाता है तो यह धार्मिक स्रोत से मिलने वाला दुःख है।

बेन्थम का यह विश्वास था कि उपयोगिता का सिद्धान्त स्वतः सिद्ध है उसे अन्य प्रमाणों से सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। इस दुनिया में नैतिक भावना या अन्तःकरण नाम की कोई वस्तु नहीं है क्योंकि अन्तःकरण का अर्थ यही है कि हम किसी वस्तु को पसन्द या नापसन्द करते हैं।

बेन्थम सभी मानवीय भावनाओं को प्राकृतिक एवं स्वाभाविक मानता था । कोई भी भावना अप्राकृतिक नहीं थी। इनका अच्छा या बुरा होना इनके परिणामों पर निर्भर रहता है। सुख या दुःख पैदा करने के कारण ये भावनाएँ अच्छी और बुरी होती हैं। बेन्थम का यह विश्वास था कि मनुष्यों का राज्य या धर्म जैसे अमूर्त सत्ताओं या संस्थाओं के प्रति कोई कर्त्तव्य नहीं है। उनके कर्त्तव्य केवल सुख और दु:ख की अनुभूति रखने में समर्थ अन्य मनुष्यों के प्रति है। यही बेन्थम का उपयोगितावाद है।

उपोगितावाद की आलोचना

बेन्थम ने अपने सिद्धान्तों को इतना अधिक सरल बना दिया है कि उनमें कई बड़े दोष उत्पन्न हो गये। ये दोष निम्नलिखित हैं:-

(1) इसका पहला दोष यह है कि इसके अनुसार हमारे सब कार्यों का मूल्यांकन “अधिकतम संख्या के अधिकतम सुख” के आधार पर होना चाहिये। ऊपर से देखने पर यह बड़ी सरल और सीधी बात प्रतीत होती है किन्तु इसमें दोष यह है कि इसमें यह नहीं बताया गया कि प्रधानता व्यक्तियों की संख्या को दी जायेगी या सुख की मात्रा को। ऐसी परिस्थिति में बेन्थम का सिद्धान्त हमारी समस्या का समाधान करने में सर्वथा असमर्थ रहता है।

(2) दूसरा दोष बेन्थम ने सुख या भौतिक आनन्द को मानव क्रियाओं और व्यापारों का एकमात्र प्रेरक कारण मान लेना है। यह मान लेना कि मनुष्य केवल सुख के लिए ही सब कार्य करता है गलत है। यदि ऐसा है तो सब प्रकार के सुखों के बीच में रहने वाले सिद्धार्थ को गृह त्याग करने और जंगलों में बोधिज्ञान के लिए भटकने और तपस्या करके भीषण कष्ट उठाने की क्या आवश्यकता थी।

(3) तीसरा दोष सुख का मात्रात्मक (Quantitative) होना है गुणात्मक (Qualitative) होना नहीं । जोन्स ने लिखा है कि बेन्थम का एक यह भी दोष है कि वह आनन्द को हलके या केक की भाँति ऐसा भौतिक पदार्थ समझता है जिसे खंडों में विभक्त किया जा सकता है। उसके अनुसार विभिन्न पदार्थों और कार्यों से प्राप्त होने वाले आनन्द विभिन्न प्रकार के नहीं हैं।

(4) चौथा दोष यह है कि बेन्थम द्वारा बतायी गयी पद्धति से सुखों की मात्रा को सही ढंग से मापना सम्भव नहीं है क्योंकि बेन्थम ने इसके विभिन्न विरोधी तत्वों का मूल्यांकन करने की निश्चित प्रकृति नहीं बताई है।

(5) पाँचवाँ दोष नैतिकता के सिद्धान्तों को तिलांजलि देना है। बेन्थम भारतीय वकीलों की भाँति केवल भौतिक आनन्दों को महत्व देता है और उनके आधार पर उपयोगिता के सिद्धान्त को स्थापित करता है। उसकी दृष्टि में उच्च नैतिक भावना, अन्तःकरण और सत्-असत् या धर्म-अधर्म का मनुष्य के जीवन में कोई स्थान नहीं है।

(6) इस सिद्धान्त में एक बड़ा दोष यह है कि यह समाज बहुसंख्या द्वारा अल्पसंख्या को कुचलने तथा उस पर अत्याचार करने का अवसर देता है। यदि आनन्द मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है तो उसे पाने का अधिकार सबको दिया जाना चाहिये।

(7) बेन्थम की एक मौलिक भूल यह भी है कि वह केवल आमन्द की प्राप्ति पर बल देता है और यह भूल जाता है कि मनुष्यों के आनन्दों की इच्छा और सुखों की तृष्णा कभी पूरी नहीं हो सकती। हम अपनी इच्छाओं को जितना अधिक पूरा करते हैं वे उतनी ही बढ़ती चली जाती हैं।

(8) उपयोगिता की विचारधारा का आधार मनोविज्ञान तथा नीति शास्त्र की भ्रान्त एवं गलत धारणायें हैं। बेन्थम मानव प्रकृति को कोरा सुखवादी मानता हुआ उसकी मानसिक रचना . का सही रूप हमारे सामने नहीं रखता। वह मनुष्य को घोर स्वार्थी तथा केवल अपने सुख के लिये प्रयत्न करने वाला मानता है जो गलत है।

(9) उपयोगितावाद का ध्येय अधिकतम व्यक्तियों के लिये अधिकतम सुख प्राप्त करना है किन्तु यह सम्भव नहीं प्रतीत होता । सुख व्यक्तिगत अनुभव की वस्तु है। वह सबके लिये एक जैसा नहीं हो सकता। अत: एक सामान्य सुख और सामान्य आनन्द की कल्पना नहीं की जा सकती है।

(10) बेन्थम के सिद्धान्त का एक बड़ा दोष यह है कि वह समाज को केवल व्यक्तियों का समूह मात्र मानता है और वह इस विषय में घोर व्यक्तिवादी (Individualistic) है। उसके अनुसार जिस प्रकार पदार्थ अणुओं के संयोग से बनते हैं उसी प्रकार समाज व्यक्तियों के संयोग से बनता है। व्यक्तियों के अतिरिक्त समाज की कोई पृथक् सत्ता नहीं है । यह धारणा गलत है।

(11) बेन्थम के उपयोगितावाद का एक यह भी दोष है कि केवल सरकार (Government) विषयक सिद्धान्त है। राज्य के सम्बन्ध में यह सर्वथा मौन है। बेन्थम ने राज्य और सरकार में कोई अन्तर नहीं माना क्योंकि उपयोगितावाद प्रधान रूप से व्यक्ति द्वारा सुख प्राप्ति के लक्ष्य पर ही बल देता है। वह मनुष्य के और राज्य के पारस्परिक सम्बन्धों का कोई विश्लेषण या विवेचन नहीं करता। वह केवल इतना ही कहता है कि व्यक्ति के कार्यों में राज्य को कम से कम हस्तक्षेप करना चाहिये। इसके अतिरिक्त वह राज्य के सम्बन्ध में विस्तृत सिद्धान्तों का प्रतिपादन नहीं करता।

(12) बेन्थम की विचारधारा का एक बड़ा दोष यह भी है कि वह स्वतन्त्रता एवं समानता को कोई महत्त्व नहीं देता। उसके मतानुसार कानून का प्रधान लक्ष्य सुरक्षा प्रदान करना है। सुरक्षा सामाजिक जीवन तथा मानवीय सुख के लिए परम आवश्यक है। समानता के सिद्धान्त का पालन उस हद तक होना चाहिए जहाँ तक उससे सुरक्षा को कोई बाधा नहीं पहुंचती है। स्वतन्त्रता कानून का प्रधान विषय नहीं है। उसे सुरक्षा का ही अंग समझना चाहिये।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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