भारत की उत्तर पाषाण कालीन संस्कृति | भारत की उत्तर पाषाण कालीन सांस्कृतिक विशेषताओं का वर्णन
भारत की उत्तर पाषाण कालीन संस्कृति | भारत की उत्तर पाषाण कालीन सांस्कृतिक विशेषताओं का वर्णन
भारत की उत्तर पाषाण कालीन संस्कृति
प्रागैतिहासिक युग में प्राकृतिक स्वभाव के अनुसार निरन्तर विकास होता जा रहा था। उत्तर पाषाणकाल की जलवायु पूर्व पाषाणकाल की अपेक्षा अधिक सम हो गई थी। महाशीत तथा अत्यधिक ग्रीष्मता की अपेक्षा जलवायु साधारण स्तर की होने के कारण मानव की शरीरिक क्षमता तथा बुद्धि का विकास होने लगा। विद्वानों का मत है कि इस सभ्यता का काल आज से लगभग पच्चीस सहस्त्र वर्ष पूर्व से लेकर लगभग सात सहा वर्ष पूर्व तक था।
(1) संस्कृति तथा सभ्यता के केन्द्र-
उत्तर पाषाणकाल की सभ्यता का विकास भारत के चतुर्दिक प्रदेशों में हुआ। इस काल से सम्बन्धित सामग्री का विशाल भण्डार बर्जहोम (काश्मीर), सिन्धु प्रदेश, उत्तरी भारत, बङ्गाल, बिहार, आसाम, मध्यप्रदेश, ब्रह्मगिरि (मैसूर), हैदराबाद, पट्टावरम (मद्रास), वेलारी तथा अर्काट (दक्षिण भारत) आदि से प्राप्त हुआ है। लगभग 115 एकड़ भूमि में विस्तृत एक समाधि की प्राप्ति दक्षिण भारत के तिन्नवल्ली जिले में स्थित तवल्लुर नामक स्थान से हुई है।
(2) आयुध, उपकरण तथा माध्यम-
उत्खनन द्वारा प्राप्त आयुधों में कुल्हाड़ी, हथौड़ी, धनुषबाण, बर्ची, भाले आदि प्रमुख हैं। हँसिया तथा पहिया इस काल के अभूतपूर्व तथा क्रान्तिकारी उपकरण थे। पहले की अपेक्षा इस काल के आयुध सुडौल, तेज धार वाले, नुकीले, चमकीले तथा सुव्यवस्थित थे। बनावट में आकार-प्रकार की सुन्दरता एवं आकर्षकता पर ध्यान दिया जाने लगा था। इन पर गहरे हरे रंग की पालिश का प्रयोग भी किया जाता था। पाषाण के हथियारों में अब लकड़ी, सींग या हड्डी की मूठ लगाई जाती थी। आयुध उपकरण बनाने का माध्यम केलसेडोनी, चर्ट, जेस्पर तथा ब्लेड स्टोन आदि प्रकार का पाषाण था। पाषाण के अलावा लकड़ी तथा मिट्टी भी प्रयोग में लाई जाने लगी थी। प्राप्त आयुधों में कुछ आयुध अलंकृत हैं तो कुछ उपयोगिता के आधार पर अत्यन्त सादे भी हैं।
(3) निवास स्थान-
इस बात के निश्चित प्रमाण मिले हैं कि इस काल में मनुष्य के भ्रमणकारी जीवन का अन्त हो गया था तथा अब वह एक निश्चित निवास स्थान को अपना चुका था। उत्तर पाषाणकालीन मानव ने पहाड़ियों, कन्दराओं, नदियों के कगारों तथा वृक्षों को छोड़कर नदियों के किनारों तथा खुले मैदानों में घर बनाकर रहना शुरू कर दिया। पत्थर के चौकोर तथा गोल आकारों की सहायता से दीवार बनाकर उसने पत्तों, पेड़ की शाखाओं तथा जानवरों की हड्डियों का प्रयोग करके छत बनाना शुरू कर दिया गया था। इस प्रकार घर बनाकर उनकी दीवारों तथा आंगन को मिट्टी के लेप से साफ किया जाने लगा। कई घर एक साथ बने होते थे। यह गाँव का प्रारम्भिक रूप था। सुरक्षा की दृष्टि से तथा अन्य पशुओं से बचाव के लिए इन गाँवों के चारों ओर बड़े-बड़े पाषाण खण्डों तथा जंगली झाड़ियों के बाड़े बनाये जाने लगे थे।
(4) भोजन-
अग्नि का ज्ञान हो जाने के कारण कच्चे मांस को भूनकर खाना शुरू हो गया था। मांस प्रमुख खाद्य पदार्थ था, परन्तु कृषि ज्ञान होने के कारण अनाज का प्रयोग भी होने लगा था। पशुओं की उपयोगिता का ज्ञान तो मध्य पाषाण युग में ही हो चुका था, परन्तु अब मनुष्य को पशुपालन की कला तथा उनसे खाद्य-पेय सामग्री प्राप्त करने की कुशलता भी प्राप्त हो गई थी। दूध तथा दही का उपयोग होने लगा तथा पेड़-पौधों की टहनियों एवं फलों के रस निकालने की विधि द्वारा उसे किसी प्रकार के मद्य का ज्ञान भी हो गया था।
फलस्वरूप अनेक व्यवसाय उद्योग-यथा कृषि, पशुपालन, कताई, बुनाई, रंगाई आदि प्रारम्भ हो गए थे।
(6) वस्त्र निर्माण-
कृषि विज्ञान के अन्तर्गत कपास उत्पादन करने की क्षमता के कारण वस्त्र निर्माण कला का जन्म हुआ। उत्खनन द्वारा प्राप्त सामग्री में बुनने के उपकरण मिले हैं। पशुओं के बालों तथा पौधों की पतली टहनियों को बुनकर उनके विभिन्न वस्त्र बनाये जाते थे। पेड़-पौधों के द्रवों तथा धातु रसों द्वारा वस्त्रों को विभिन्न रंगों में रंगा जाता था। लाल-पीले, नीले तथा हरे रंग विशेष प्रिय थे। कपड़े पहनने का ढंग बड़ा सीधा-सादा था। कपड़े का आधा भाग सर पर लपेट कर आधा भाग कन्धे पर डाल लिया जाता था। पुरुष सर पर पगड़ियाँ बाँधते थे तथा स्त्रियाँ लहँगे का प्रयोग करती थीं।
(7) आभूषण-
जीवन-धारा निश्चित हो जाने के कारण मनुष्य में सौन्दर्यप्रियता की भावना जन्म लेने लगी थी। यह भावना आभूषणप्रियता के रूप में प्रकट हुई। इस काल के आभूषण पत्थर, पशुओं की हड्डियों, कौड़ी, सीपियों तथा शंख द्वारा बनाये जाते थे। गले की माला, कानों की बाली तथा अंगुलियों में पहनने की अंगूठी प्रिय आभूषण थे। प्राप्त चित्रों के आधार पर कहा जा सकता है कि श्रृंगार करने की रुचि विद्यमान थी। पुरुष सर पर पगड़ी बाँधते थे तथा स्त्रियाँ विभिन्न रंग-बिरंगे पुष्पों द्वारा केश तथा हाथों को सजाती थीं।
(8) जाति तथा वर्ग भेद-
विभिन्न व्यवसायों तथा उद्योगों को करने वाले व्यक्ति प्रायः एक ही समूह में रहते थे। इस कारण एक व्यवसाय या उद्योग करने वालों में पारस्परिक सम्बन्ध निकट तथा भाईचारे पूर्ण होने लगे। यहीं से जाति या समुदाय का मूल किन्तु सूक्ष्म रूप जन्म लेने लगा। जब कई विशिष्ट समुदाय बने तो उन्हें विभिन्न जातियों के नाम से जाना जाने लगा। वर्ग भेद तथा जाति के जन्म होने का कारण वातावरण की प्रतिकूल तथा अनुकूल अवस्था थी। वातावरण तथा जलवायु की अनुकूल अथवा प्रतिकूल अवस्था के कारण मनुष्य की भावात्मक तथा शारीरिक क्षमता में भेद होना स्वाभाविक था। इसके परिणामस्वरूप वर्ग भेद का जन्म हुआ।
(9) भाषा की उत्पत्ति-
सभ्यता के विकास के लिये विचारों को व्यक्त करने की कला से परिचित होना आवश्यक था। अतः इस काल के मानव ने अपनी भावना तथा विचारों को व्यक्त करने के लिए एक प्रणाली का विकास कर लिया था। यह प्रणाली भाषा के रूप में थी अथवा नहीं-इसका तो निश्चित प्रमाण नहीं मिल पाया है, परन्तु भित्ति चित्रों के अनेक सांकेतिक चिह्न इस बात के ठोस प्रमाण है कि विचारों का आदान-प्रदान किया जाता था।
(10) कला का जन्म-
मिर्जापुर, मानिकपुर, होशंगाबाद, पंचमढ़ी तथा सिंघनपुर आदि स्थानों में स्थित पर्वत गुहाओं में अंकित अनेक रेखांकित चित्रों की प्राप्ति इस बात का प्रमाण है कि इस काल में कला ने जन्म ले लिया था। इन चित्रों में परिचित जानवरों तथा अन्य ऐसी आकृतियाँ हैं-जैसे हाथी, सिंह, हिरण, सुअर, कुत्ता, चीता, घोड़ा, बैल, बकरी, बन्दर, धनुषबाण, घुड़सवार आदि-जो इस बात की पुष्टि करते है कि मनुष्य कला के माध्यम से भावाभिव्यक्ति तथा मनोरंजन करने लगा था। विभिन्न रंगों का प्रयोग मानसिक परिष्कृति का प्रमाण है। घरों के आकार-प्रकार से स्पष्ट होता है कि उत्तरपाषाण काल में मनुष्य को भवन निर्माण कला के प्रारम्भिक रूप का ज्ञान हो गया था।
(11) सामाजिक जीवन–
एकाकी जीवन का अन्त तथा सामाजिक जीवन का प्रादुर्भाव- इस युग की देन है। विभिन्न व्यवसाय कृषि, गृह निर्माण आदि कार्य किसी एक आदमी के वंश का काम नहीं था। अतः सहयोग की भावना ने जीवन को व्यवस्था प्रदान की। कृषि, अत्र संचय, निवास तथा पशुधन की उपयोगिता से अवगत होने के कारण सम्पत्ति की प्रारम्भिक भावना ने जन्म लिया। सम्पत्ति के कारण असमानता का जन्म होता है तथा असामनता वर्ग भेद उत्पन्न करती है-अतः इस काल के सामाजिक जीवन ने वर्ग, समुदाय आदि को जन्म दिया।
(12) धार्मिक भावनायें तथा विश्वास-
उत्खनन द्वारा प्राप्त सामग्री द्वारा कतिपय ऐसे प्रमाण प्राप्त हुए जिनके आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता कि उत्तर पाषाण काल में धार्मिक, भावना का जन्म हो चुका था। यह धार्मिक भावना अभी अपने प्रारम्भिक स्वरूप-यथा जादू टोने, अन्धविश्वास तथा स्थानीय मान्यताओं में थी। प्राकृतिक लीलाओं से भय उत्पन्न होने के कारण प्रकृति उपासना की भावना उत्पन्न हुई। इस युग में मनुष्य ने पर्वतों, चट्टानों, नदियों तथा वृक्षों में दैवी शक्ति का अनुभव किया । फलतः वे उनकी पूजा करने लगे। उत्खनन द्वारा प्राप्त अनेक शव-समाधियाँ इस बात का प्रमाण हैं कि उस समय शवों को कब्र में दफनाया जाता था। शव के साथ विभिन्न आभूषण तथा आयुध भी रखे जाते थे। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि मृतक क्रिया अनुष्ठान द्वारा सम्पन्न होती थी तथा मरणोत्तर जीवन के प्रति आस्था रखी जाती थी। भौतिक पदार्थों में जीवन शक्ति का अनुभव होने के कारण मनुष्य ने जीनव-मरण के विषय में भी सोचना शुरू कर दिया था। डा० राजबली पाण्डे ने इस धार्मिक अवस्था का चित्रण करते हुए लिखा है- “मृतकों की हड्डियाँ रखने के लिए अस्थिपात्रों तथा शवों के ऊपर बनी समाधियों से स्पष्ट मालूम होता है कि इस समय लोग जीवन श्रृंखला तथा पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे। वे पितरों की पूजा करते थे। भूतों से आविष्ट प्रस्तर खण्डों की पूजा आरम्भ हुई जो क्रमश: लिंग पूजा के रूप में विकसित हुई। चढ़ावे में अन्न, दूध, मांस आदि पदार्थ अर्पित किए जाते थे। धार्मिक भावना एवं पूजा पद्धति का ढाँचा इस समय लगभग तैयार हो गया था।”
निष्कर्ष
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि आदि काल से लेकर उत्तर पाषाण काल तक मानव ने निरन्तर विकास किया। आधुनिक भारत का बहुत कुछ, उस समय के सामाजिक जीवन, धार्मिक आस्थाओं, आर्थिक संगठन तथा कला में प्रस्फुरण के रूप में उभरने लगा था।
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