इतिहास / History

सिन्धुघाटी सभ्यता की कला | सिन्धुघाटी सभ्यता की ऐतिहासिक चित्रकला का महत्व

सिन्धुघाटी सभ्यता की कला | सिन्धुघाटी सभ्यता की ऐतिहासिक चित्रकला का महत्व

सिन्धुघाटी सभ्यता की कला

सर जान मार्शल का कथन – “जीवन में मैंने पहली बार उन वस्तुओं को देखा तो उस समय मेरे मन में यह निर्णय देना बड़ा कठिन था कि ये वस्तुएँ प्रागैतिहासिक हैं या नहीं।”

“उन्होंने मेरी प्राचीन कला सम्बन्धी सभी पूर्व निश्चित धारणाओं को पूर्ण रूप से बदल दिया। प्राचीन विश्व के लोगों को इस प्रकार की मूर्तिकला का ज्ञान न था यह बात तो तब तक यूनानियों को भी ज्ञात न थी जब तक वहाँ मूर्ति-पूजा का विकास न हुआ।”

आधुनिक अनुसंधानों में मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की सभ्यता प्राचील काल को नये परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करती है। यह परिप्रेक्ष्य है, सांस्कृतिक वेशक्रम, जिसे आज का मानव किसी न किसी रूप में परम्परागत रूप से निर्वाह कर रहा है। सिन्धु सभ्यता का पता सन् 1924 में सर जॉन मार्शल और डॉ० अर्नेस्ट मैके के प्रयल से चला। यह सभ्यता सिन्धु और रावी के तट पर हजारों वर्ष पहले के निवासियों के रहन-सहन, जीवन प्रणाली तथा सम्बन्धों को प्रकट करती है। इस खोज से अनेकों प्रकार की नालियाँ, स्नानागार, सभाभवन, सरोवर, अलंकृत भवनों का पता चला है। यह सभ्यता मानव के जीवन दर्शन, कला बोध तथा कला के हर पहलू पर प्रकाश डालती है। अतः सिद्ध होता है कि वह युग कला में स्वर्ण-युग रहा होगा, जिसके कारण मूर्तिकला, वास्तुकला, शिल्पकला, चित्रकला, धातुकला आदि सभी कलाओं को विकसित होने का पूर्ण अवसर मिला। हड़प्पा और मोहनजोदड़ों को खुदाई से प्राप्त अवशेष इसके उदाहरण हैं। मोहनजोदड़ों एवं हड़प्पा की सभी सामग्री आर्यों से पूर्व की सभ्यता तथा संस्कृति पर प्रकाश डालती है। उस समय के सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और व्यक्तिगत जीवन को स्पष्ट करने में योग देती है। वास्तव में यह सभ्यता हर भाँति पूर्ण विकसित थी। भारतीय इतिहास के अध्ययन में इस सभ्यता का बड़ा महत्त्व है, इसने इतिहास की कड़ी को जोड़कर विश्व के समक्ष मानव विकास की परम्परा का महत्त्वपूर्ण अध्याय प्रस्तुत किया है, जिसको देखने पर इस युग की विशालता एवं कलात्मकता को समझ सके कि हमारे पूर्वज कितने सभ्य एवं विकसित थे।

मोहनजोदडो में भवन, सरोवर, स्नानागार तथा दुमंजिले भवनों के अवशेष, सूती कपड़ो के टुकड़े, करघे, आभूषण, हाथी दाँत, हड्डी, मिट्टी तथा ताँबे के गहने, हथियार आदि ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उस युग की सभ्यता कलामय थी। अब हम इस युग की कला के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालेंगे।

  1. चित्रकला

कलात्मक सामग्री बर्तन, ठप्पा, जवाहरात, आभूषणं, मूर्तियों और मुद्राओं (यद्यपि मुद्राओं की लिपि अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी) पर चित्रित चित्र धर्म के अन्तर्गत हैं। ये चित्र शैव और नाग मत के प्रतीकात्मक चित्रों से मिलते हैं। बर्तन और ठप्पों पर हाथी, बैल, गैंडा, घड़ियाल, भैंस, कुत्ता, कछुआ आदि के चित्रों से उनकी कोमल कलात्मक भावना का बोध होता है। इस सभ्यता के प्रतीकों ने हमारे पूर्वजों के प्रकृति प्रेम को दर्शाया है और कला के सभी अंगों से समन्वय करके अपनी दैनिक उपयोग की वस्तुओं को अलंकृत करके अपना मानसिक सन्तुलन किया है। पशुओं की आकृतियाँ प्रतीकात्मक रूप से अपनाई गई हैं। ये चित्र उनके मानसिक उद्वेगों, कल्पनाओं, भावनाओं एवं स्वप्नों को प्रकट करते हैं कि किस प्रकार मानव का पशु जगत् से पारस्परिक सम्बन्ध था। इस सम्बन्ध को हम उनकी प्रत्येक प्राप्त सामग्रियों पर सुलभ रूप में पाते हैं। इस सभ्यता की समानता मेसोपोटामिया और सुमेरियन सभ्यता से करते हैं और अवश्य ही प्राचीन मिस्त्र, बेबीलोनिया, मेसोपोटामिया, एलाम और सुमेरिया को सभ्यता से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा होगा। खुदाई से प्राप्त मानव कंकाल और ठठरियों से द्रविड़ और मंगोल लोगों के जातीय तत्वों से समानता प्रकट होती है। वाचस्पति गैरोला के शब्दों में- “धर्म प्रवण भारत में आध्यात्मिक उपादानों को लेकर कला के विराट स्वरूप का निर्माण हुआ। भारतीय कलाकार ने बाह्य सौन्दर्य के वशीभूत होकर कला की उद्भावना नहीं की, बल्कि उसकी अन्तः प्रेरणाओं और उनके भीतर प्रस्तुत देवी विश्वासों ने ही उसके विचारों को रंग, रूप, वाणी और ख्याति प्रदान की है। उसके लोक जीवन को भी दृष्टि में रखा। सिन्धु सभ्यता की उपलब्ध कलाकृतियों में इस अभिप्राय के पर्याप्त प्रमाण सुरक्षित हैं। इस प्रकार निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि प्राचीनकाल की इन सभ्यताओं का आपसी आदान-प्रदान व्यापक रूप में विभिन्नताओं (कला के सभी अंगों) पर होता रहा होगा।

मोहनजोदड़ों में ऐसे चित्र भी मिले हैं जिन पर आर्य सभ्यता की छाप स्पष्टतः प्रकट होती है। इस स्थान से अस्सी मील उत्तर में हड़प्पा नामक स्थान पर अनेक शिला खण्ड मिले है जिनकी कलामय सुन्दर चित्रकारी हलारों वर्ष प्राचीन है। पुरातत्त्व विभाग इन चित्रों के चित्रण काल को निश्चित नहीं कर पाया, किन्तु मोहनजोदडों और हड़प्पा के प्राप्त साधनों में समानता मिलता है।

  1. मूर्तिकला-

सिन्धु घाटी की सभ्यता से ज्ञात होता है कि ये लोग धर्म में आस्था रखते थे। धर्मपय मूर्तियाँ इसका प्रबल प्रमाण हैं। ये पूर्तियों लकड़ी, पाषाण एवं अन्य धातुओं से निर्मित होती थीं। बाल नर्तकी की मूर्ति पूर्ण आभूषणों और श्रृंगार युक्त अवस्था में मिलती हैं। बैल की आकृति चादर पर मिलती है। इस प्रकार प्रायः सभी मूर्तियाँ धार्मिक भावना के हेतु हैं। हाथी दाँत का माँ का चित्र, पशुओं का पालन सन्तान के समान करती हुई यूरोप की मेडोना का चित्र, मुद्राओं पर बनी आकृतियाँ शैव मत से सम्बन्धित हैं। सभी मूर्तियों के अध्ययन से स्पष्टता प्रमाणित होता है कि अवश्य ही इस भू-भाग में रहने वाले लोगों का जीवन धर्म-प्रधान रहा होगा। वाचस्पति गैरोला के अनुसार– “यद्यपि सिन्धु घाटी की इन उपलब्धियों के द्वारा हड़प्पा, मोहनजोदड़ों के नागरिकों, नगरों, शासकों, कवियों, कलाकारों, विद्वानों और कारीगरों के सम्बन्ध में कुछ पता नहीं चलता तथापि इन अवशेषों से तत्कालीन भारत के रहन-सहन, रीति-रिवाज, ज्ञान-विज्ञान और कला-कौशल सम्बन्धी बहुत सी बातों का परिचय अवश्य मिलता है।’

  1. लिपि-

पुरातत्वेताओं के अनुसार कला का स्त्रोत लिपि के प्रारम्भ से हुआ। इस दृष्टि से मोहनजोदडों एवं हडया से प्राप्त सिने, मुद्राएं, जिन पर समय, राजवंश. सम्राट और उन पर सम्बन्धित प्रतीक भी अंकित हैं, लिपि तथा चित्रकला के प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। इन प्राप्त कलानिधियों की भाषा रहस्यमय रही तो भी भारतीय संस्कृति की प्राचीनता को प्रकट करने में इसने पर्याप्त सहयोग प्रदान किया। सिन्धु घाटी की सभ्यता लिपि-कला का प्रारम्भ एवं प्राचीनता का स्रोत है।

  1. अन्य कलाएँ-

सिन्धु घाटी की सभ्यता इस बात का प्रतीक है कि यहाँ के निवासियों का जीवन कलामय था और कला उनके जीवन के प्रत्येक पहलू में व्याप्त थी। दैनिक-जीवन की वस्तुओं पर अंकित चित्र एवं आकृतियाँ उनकी व्यापक कलात्मक अनुभूति को प्रकट करती हैं किस-किस प्रकार ये अपने जीवन को विभिन्न दृष्टियों से कला रूप में संजोते थे। मोहर, मोतियों के आभूषण, चूड़ियाँ, जूड़े के पिन, कान का मैल निकालने की सुइयाँ, बाल उखाड़ने की चिमटियों, शृंगारदान, कर्णभूषण आदि से सौंदर्यप्रियता का आभास होता है। साथ ही यह भी पता चलता है कि ये लोग सभी प्रकार की धातुओं से परिचित थे, परन्तु लोहे की कला से पूर्णतया अनभिज्ञ थे। स्त्रियों के आभूषण में मनके, चूड़ियाँ, बालियों और काँटे मिलते हैं। मिट्टी के खिलौने भी विभिन्न प्रकार के मिले हैं। हाथी दाँत की मूर्तियों एवं खिलौने उनके कलात्मक जीवन का परिचय देते हैं।

कारीगारों के औजारों, बच्चों के खिलौनों, धार्मिक मूर्तियों, नारियों के सौंदर्य प्रसाधन की सामग्रियों, राज्य मुद्राओं व सिक्कों आदि सभी चीजें उनके जीवन को लोककला की श्रेणी में लाते हैं। रायकृष्ण दास के अनुसार– “इन चित्रों में सरल रेखाओं, कोणों, वृत्तों और वृत्तांशों से बने अलंकरण की अधिकता है। इनके भीतर फूलों, पत्तियों और पशु-पक्षियों की आकृतियों का भी उपयोग किया गया है। मुख्यतः पशु-पक्षियों की आकृतियों से ही इस कला की आरम्भिकता प्रकट होतीई है। इन तरहों में कुछ ऐसी हैं जिनकी परम्परा भारतीय कला में बनी रही है। शेष में से अनेक ऐसी हैं जिनकी परम्परा फिर से चलाने की आवश्यकता है, उनके सौन्दर्य के कारण। ‘ किस प्रकार यह प्राचीन लोग अपने जीवन की सभी वस्तुओं को कलामय रूप प्रदान करके दैनिक जीवन में प्रयोग करते थे। इन बातों का हमें आभास मिलता है।

  1. भवन निर्माण कला-

मोहनजोदडों और हड़प्पा के अवशेष भवन, स्नानागार, सड़कें, नालियाँ एवं भित्तियाँ प्राचीन वास्तुकला के महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं। एक विशाल स्नानागार में सीढ़ियाँ हैं, और चारों ओर कमरों के साथ लम्बे-चौड़े बरामदे भी बने हैं। यहाँ की सड़कें चौडी-चौड़ी मिलती हैं मकान भी कई-कई मंजिल के मिलते हैं। मकानों का निर्माण पक्की लाल ईंटों के द्वारा होता था। ये प्राचीन नगर कितने ही भागों में विभाजित मिलते हैं। पश्चिम में मन्दिर, धर्म स्थान, सभा भवन, अनाज भण्डार और विद्यालय मिलते हैं, पूर्व में सरकारी भवन, उत्तर में मृत मनुष्यों के स्थान, दक्षिण में निम्न जाति के स्थान मिलते हैं। इन सभी भवनों से प्रकट होता है कि यहाँ की सभ्यता हर भाँति से समृद्ध रही होगी।

सिन्धुघाटी सभ्यता की ऐतिहासिक चित्रकला का महत्त्व-

सिन्धु घाटी की सभ्यता का विशद् वर्णन मिलता है और भारतीय चित्रकला के इतिहास का ईसवी सन् से 3000 वर्ष पूर्व की सभी सामग्री प्राचीन मिस्त्र, मेसोपोटामिया, बेबीलोनिया, एलाम और सुमेरिया की सभ्यता से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करती है। शची रानी गुर्टू के अनुसार- “मुद्राओं की चित्र लिपि का ब्लूचिस्तान में बाहुई नामक द्राविड़ भाषा और सुमेर एवं एलाम के चिह्नों से बहुत कुछ सादृश हैं। इतिहासकारों और भाषाविदों का मत है कि प्राचीन मिस्त्र, बेबोलोनिया, मेसोपोटामिया, एलाम और सुमेरिया की सभ्यताओं से घनिष्ठ सम्पर्क रहा है और यह भी सम्भावित है कि सुमेर द्राविड़ लोग सामुद्रिक मार्ग से एक स्थान से दूसरे स्थानों में घूमते रहे हों और कालान्तर में उनकी सभ्यताओं में समानता के साथ-साथ कुछ विभेद वैभिन्नय भी आ गया हो। खुदाई में प्राप्त मनुष्य की ठठरियों से भी सम्मिश्रित जातीय तत्त्वों का बोध होता है जिसमें आर्येतर द्राविड़ और मंगोल लोगों की आकृतियों से अधिक समानता दीख पड़ती है।’ मेसोपोटामिया के उर (Ur) तथा निप्पर नगरों की सभ्यता से यहाँ की सभ्यता की समानता की जा सकती है।

विदेशों से सम्बन्ध-

सुमेर सभ्यता और सिन्धु घाटी की सभ्यता में परस्पर समानता लक्षित होती है। उर, किस, अस्मर, तेप, गवरा और सूसा में कुछ मोहरें प्राप्त होती हैं जो हडप्पा और मोहनजोदड़ों की मोहरों के समान हैं। हॉल महोदय का कथन- “सभ्यता के क्षेत्र में सुमेरे भारत का ऋणी था, मोहनजोदड़ों में तांबे की कुल्हाड़ी मिली है जो पूर्व मिनी कालोन क्रीट और ट्राय द्वितीय की कुल्हाड़ी के समान है विद्वानों के मतानुसार यह सभ्यता उन सभ्यताओं के समकालीन है जो उस समय मित्र, सीरिया और ईराक में थी।

डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी के अनुसार- “सिन्धु घाटी की सभ्यता का मेसोपोटामिया की सभ्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है और न उसकी ऋणी है। अब तो शनैः-शनैः यह धारणा बलवती होती जा रही है कि सिंधु घाटी की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यता है।”

निष्कर्ष-

सिन्धु घाटी की सभ्यता ने कला पुरातत्व तथा इतिहास के क्षेत्र में नए आयाम प्रस्तुत किए हैं। यद्यपि पुरातत्व की दृष्टि से इस सभ्यता का काल निर्धारण नहीं हो सका है, किन्तु यह स्पष्ट है कि यह सभ्यता आर्य-अनार्य का संगम स्थल थी। आर्य सभ्यता के अनेक प्रतीक इस घाटी में मिले हैं जो इस बात के प्रतीक हैं कि मानव का विकास क्रम अनेक युगों से अबाध गति से होता रहा है।

प्रागैतिहासिक कला के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए शची रानी गुर्टू ने कहा है. ”राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में इन जनजातियों का कोई हाथ न होने पर भी इतिहास और पुरातत्त्व वेत्ताओं के प्रयास से इनकी प्रागैतिहासिक कला-थाती का संरक्षण किसी प्रकार किया जा सकता है। गृह सज्जा का बहुत-सा सामान अस्त्र-शस्त्र इनके प्राचीन आदर्श एवं परम्पराओं से जीवित प्रतीक नष्ट होने से बच गए हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी सुरक्षित चले आ रहे हैं।”

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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