इतिहास / History

शेरशाह की विजय | शेरशाह का साम्राज्य विस्तार | मालवा तथा राजपूताना के सरदारों के प्रति शेरशाह की नीति

शेरशाह की विजय | शेरशाह का साम्राज्य विस्तार | मालवा तथा राजपूताना के सरदारों के प्रति शेरशाह की नीति

 शेरशाह की विजय (1540-1545 ई०)

भारत का सम्राट बनने के पश्चात् उसने नये प्रदेश जीतने का प्रयत्न किया, साथ ही वह उन प्रदेशों पर भी अधिकार करना चाहता था जो कि इब्राहीम लोदी तथा हुमायूँ के अधीन रह चुके थे जिससे कि यह सिद्ध हो सके कि वह अपने पूर्ववर्ती सम्राटों में से किसी से भी कम नहीं था। उसकी प्रमुख विजयें इस प्रकार हैं-

(1) गक्खर प्रदेश की विजय-

गक्खर प्रदेश झेलम और सिन्धु नदियों के उत्तर में स्थित पहाड़ी प्रदेश था। इस प्रदेश पर उस समय गक्खर जाति के सरदार रायसरण गक्खर का अधिकार था। यह प्रदेश सामरिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण था। अतः शेरशाह ने एक विशाल सेना लेकर गक्खरों पर आक्रमण करके उन्हें रौंद डाला लेकिन सम्राट गक्खरों को पूर्णरूप से अपने अधीन न कर सका। उसी समय उसे बंगाल में विद्रोह की सूचना मिली। अतः गक्खरों पर पूर्ण विजय का कार्य अपने योग्य सेनापतियों हैबतखाँ के सुपुर्द करके स्वयं लौट आया। शेरशाह ने वहाँ एक विशाल दुर्ग का निर्माण कराया जोकि रोहतास-दुर्ग के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ उसने गक्खों का दमन करने तथा दुर्ग-रक्षा के लिए 50 हजार सैनिकों को नियुक्त कर दिया।

(2) बंगाल के विद्रोह का दमन-

जिस समय शेरशाह गक्खर प्रदेश को हस्तगत करने में व्यस्त था उसी समय अवसर पाकर बंगाल के गवर्नर खिज्रखाँ ने अपने को स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया। शेरशाह ने तुरन्त ही उसका दमन करने के लिए 1541 ई० में बंगाल के लिए प्रस्थान कर दिया। उसने बंगाल पहुँचकर खिज्रखाँ को अपदस्थ कर दिया और उसे बन्दी बना लिया। शेरशाह ने यहाँ पर गवर्नर का पद समाप्त करके एक नयी शासन प्रणाली स्थापित की जिससे भविष्य में किसी को विद्रोह करने का अवसर प्राप्त न हो। उसने बंगाल प्रान्त को अनेक सरकारों (जिलों) में विभाजित करके प्रत्येक सरकार में “सिकदार” को नियुक्ति कर दी। सभी सरकारों के कार्यों की देखभाल करने के लिए एक प्रान्तपति की भी नियुक्ति कर दी। प्रान्तपति न्याय प्रशासन तथा राजस्व से सम्बन्धित सभी कार्यों को करता था। लेकिन इसके हाथ में सैनिक शक्ति नहीं थी। डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है, “इस व्यवस्था ने शासन के सैनिक स्वरूप को एकदम बदल दिया और पुरानी व्यवस्था के स्थान पर नवीन शासन-तन्त्र की स्थापना कर दी। जो सिद्धान्त रूप से मौलिक और कार्य की दृष्टि से सुगम एवं सुविधाजनक थी।

(3) मालवा-विजय-

मालवा के सरदार मल्लूखाँ ने माण्डू, उज्जैन तथा सारंगपुर पर अधिकार कर लिया था और 1537 में कादिरशाह के नाम से अपने को स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया। दूसरे उसने हुमायूँ के विरुद्ध शेरशाह को सहायता देने का वचन दिया था, जिसको उसने पूरा नहीं किया था। इन्हीं कारणों से प्रेरित होकर शेरशाह ने 1542 ई० में मालवा पर चढ़ाई कर दी । प्रो० कानूनगो के मतानुसार इस अभियान के प्रमुख दो उद्देश्य थे; (1) गुजरात तथा मेवाड़ के राज्यों से सीधा सम्पर्क करना जिनमें होकर मुगल मालवा में प्रवेश कर सकते थे। (2) मालवा के मालदेव के संकल्पों को पूरा होने से रोकना और उसके उपद्रव करने से पहले उसे कुचल देना।

कादिरशाह ने भयभीत होकर शेरशाह की अधीनता स्वीकार कर ली शेरशाह ने उसके साथ उदारता का व्यवहार किया और उसे लखनौती का सूबेदार बना दिया। लेकिन इस रूप में उसने अपने को सुरक्षित नहीं समझा। उसे शेरशाह का विश्वास नहीं था। इसलिए वह अपने परिवार सहित भाग खड़ा हुआ और गुजरात के शासक महमूद तृतीय के यहाँ जाकर शरण ली। शेरशाह ने मालवा के अधिकांश भाग को अपने राज्य में मिला लिया और सुजातखाँ को वहाँ का सूवेदार नियुक्त कर दिया। मालवा से लौटते समय उसने रणथम्भौर के दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया।

(4) रायसीन की विजय-

रायसीन मध्यभारत की एक समृद्धशाली रियासत थी जिसका राजा पूरनमल था। 1542 ई० में उसने शेरशाह को राजसी भेंट प्रदान कर उसे अपना मित्र बनाना चाहा। लेकिन शेरशाह इस धनी रियासत को हस्तगत करना चाहता था। दूसरे उसने मुसलमान जागीरदारों की सारी सम्पत्ति जब्त करके उन्हें गरीब बना दिया था और उनकी स्त्रियों को अपना गुलाम बना लिया था, जिसको शेरशाह ने इस्लाम के विरुद्ध समझा इसलिए उसने पूरनमल को दण्ड देने का निश्चय किया। लेकिन डा० कानूनगो का मत है कि शेरशाह का उद्देश्य धार्मिक न होकर राजनीतिक था। उन्होंने लिखा है, “इस आक्रमण का कारण पूरनमल को चन्देरी के मुस्लिम परिवारों को दास बनाने के अपराध में दण्ड देने का धार्मिक उद्देश्य नहीं था। इसके लिए किसी कट्टर धार्मिक प्रेरणा की आवश्यकता भी नहीं थी, रायसीन पर आक्रमण करने के लिए राजनीतिक उद्देश्य ही शेरशाह के लिए पर्याप्त था। हुमायूं के भाग्य को देखते हुए शेरशाह भलीभाँति अनुभव करता था कि एक दुर्ग के अविजित रहने से भी सम्पूर्ण साम्राज्य पलटा जा सकता है। इसलिए उसने अपने को भावी संकटों से मुक्त करने के लिए मालवा से राजपूतों के प्रभाव को उखाड़ फेंकने का संकल्प किया।” 1542 ई० में शेरशाह ने रायसीन पर आक्रमण कर दिया। उसको सेनाएँ बहुत दिनों तक घेरा डाले हुए पड़ी रहीं, लेकिन पूरनमल को पराजित नहीं किया जा सका। तब शेरशाह ने कुरान की सौगन्ध खाकर पूरनमल की सुरक्षा का आश्वासन देकर उसे आत्मसमर्पण करने के लिए कहा। पूरनमल ने शेरशाह पर विश्वास करते हुए आत्मसमर्पण कर दिया किन्तु जैसे ही राजपूत सेनाएँ दुर्ग से बाहर निकल कर आयौं वैसे ही शेरशाह ने काजियों की राय मानकर राजपूतों पर अचानक आक्रमण कर दिया। असहाय राजपूत अपनी सियों तथा बच्चों का वध करके शत्रु पर टूट पड़े और लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए । इस प्रकार रायसीन पर शेरशाह का अधिकार हो गया। राजपूतों के साथ शेरशाह द्वारा किया गया विश्वासघात उसके चरित्र पर बहुत बड़ा कलंक है।

(5) सिन्ध तथा मुल्तान पर अधिकार-

जिस समय शेरशाह ने रायसीन पर अधिकार किया उसी समय नवम्बर, 1543 ई० में शेरशाह के सेनाप्ति हैबता नियाजी ने सिन्धु तथा मुल्तान पर अधिकार कर लिया। यहाँ पुर बलूची सरदार फतेहखाँ तथा बख्शूलंगा को बुरी तरह कुचल दिया गया। इस विजय ने हुमायूँ का कन्धार जाने का रास्ता बन्द कर दिया और पश्चिमी सीमा दृढ़ तथा सुरक्षित हो गयी।

(6) मारवाड़ की विजय-

उस समय मारवाडु का राजा राजस्थान में सबसे अधिक शक्तिशाली था। उसको राजधानी जोधपुर थी। यहाँ का शासक मालदेव, राठौर वोर, साहसी तथा चतुर कूटनीतिज्ञ था। उसने अपनी प्रतिभा के बल पर ही अपने साम्राज्य की पर्याप्त वृद्धि कर ली थी। जैसाकि हम पहले लिख आये हैं कि उसने 1541 ई० में हुमायूँ को दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए आमन्त्रित किया था। लेकिन शेरशाह ने हुमायूँ को बन्दी बनाने के लिए मालदेव पर दबाव डाला जिसको मानने के लिए मालदेव बाध्य हो गया परन्तु हुमायूँ को इस षड्यन्त्र का पता चल गया और वह वापिस लौट गया। शेरशाह इस बात से नाराज हुआ कि मालदेव ने हुमायूँ को बन्दी क्यों नहीं बनाया ? दूसरे मारवाड का शक्तिशाली राज्य उसके लिए कभी भी खतरा बन सकता था। तीसरे मालदेव द्वारा पराजित राजपूत सरदार शेरशाह से जा मिले थे जो निरन्तर शेरशाह पर मारवाड़ पर आक्रमण करने के लिए दबाव डाल रहे थे, जिनमें बीकानेर के राव कल्याणमल विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन्हीं से प्रेरित होकर 1543 ई. में शेरशाह ने मालदेव पर आक्रमण कर दिया। कई महीने तक युद्ध चलता रहा लेकिन शेरशाह मालदेव को पराजित न कर सका। तब उसने कूटनीति से काम लिया और उसने कुछ ऐसे जालो पत्र तैयार करवाकर मालदेव के शिविर के पास डलवा दिये जिसमें मालदेव के साथियों की ओर से उसके विरुद्ध शेरशाह की सहायता करने की बात कही गयी थी। जब यह जाली पत्र मालदेव को दिये गये तो वह घबड़ा गया और उसे अपने साथियों पर अविश्वास हो गया। परिणामस्वरूप उसने युद्ध का संकल्प छोड़ दिया और पीछे हट गया। यद्यपि कुछ स्वामिभक्त राजपूतों ने उसे वफादारी का वचन दिया लेकिन उसे विश्वास नहीं हुआ। फिर भी जयता और कुम्पा नामक दो राजपूत सरदारों ने पृथक् होकर अपने 12,000 अनुयायियों के साथ आक्रमणकारी सेना पर धावा बोल दिया और लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए, तब मालदेव को वास्तविकता का पता चला लेकिन तब तक सब कुछ बिखर चुका था। अतः मालदेव गुजरात की ओर पलायन कर गया। इस प्रकार अजमेर से लेकर आबू तक का उसका सारा राज्य अफगानों के अधिकार में चला गया।

(7) चित्तौड़ पर अधिकार-

मारवाड़ को जीतने के पश्चात् उसने मेवाड़ की ओर ध्यान दिया। मेवाड़ में उस समय षड्यन्त्र, अराजकता और अस्थिरता का साम्राज्य था। मेवाड़ के विद्रोही सरदारों ने विक्रमजीत की हत्या करके बलवीर को गद्दी पर बिठा दिया था, वह अल्पवयस्क राजकुमार उदयसिंह (राणाप्रताप का पिता) की हत्या करके अपने मार्ग को निष्कंटक बनाना चाहता था लेकिन पन्नाधाय के असीम त्याग के कारण वह बच निकला। 1542 ई० में उदयसिंह का राज्यारोहण हुआ। शेरशाह एक विशाल सेना लेकर चित्तौड़ की ओर बढ़ा, जब वह चित्तौड़ से चौबीस मील की दूरी पर था तो अल्पवयस्क बालक राजा उदयसिंह ने घबड़ाकर किले की चाबियाँ शरशाह के पास भिजवा दी। इस प्रकार बिना युद्ध किये ही मेवाड़ पर शेरशाह का आधिपत्य स्थापित हो गया।

(8) कालिंजर की विजय तथा शेरशाह की मृत्यु-

1545 ई० में शेरशाह ने कालिंजर पर आक्रमण किया। कहा जाता है कि कालिंजर के राजा कीरतसिंह ने रीवा के राजा वीरभान बघेल को अपने यहा शरण दी । शेरशाह ने वीरभान को सौंपने के लिए कीरतसिंह से प्रार्थना की लेकिन कीरतसिंह ने अफगान सम्राट की प्रार्थना पर कोई ध्यान नहीं दिया। अतः शेरशाह को कालिंजर पर आक्रमण करने का बहाना मिल गया। उसने कालिंजर के दुर्ग का घेरा डाल दिया। यह घेरा लगभग एक वर्ष तक चलता रहा लेकिन वह दुर्ग को हस्तगत करने में सफलता प्राप्त नहीं कर सका । अन्त में शेरशाह ने गोला-बारूद बिछाकर किले की दीवारों को उड़ाने का निश्चय किया। जिस समय किले की दीवार तथा फाटक को लक्ष्य करके गोले छोड़े जा रहे थे उसी समय एक गोला किले की दीवार से टकराकर उछला और लौटकर शेरशाह के गोलाबारूद के भण्डार के पास आकर गिरा और इससे बारूद खाने में आग लग गयी और शेरशाह बुरी तरह जल गया। किला तो जीत लिया गया किन्तु शेरशाह की कुछ ही समय उपरान्त 22 मई, 1545 ई० को 60 वर्ष की अवस्था में मृत्यु हो गयी। इस बात का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता कि शेरशाह को कालिंजर में ही दफना दिया गया था अथवा उसे सहसराम ले जाया गया ।

शेरशाह का साम्राज्य विस्तार

असम, कश्मीर तथा गुजरात को छोड़कर लगभग सम्पूर्ण उत्तरी भारत शेरशाह के राज्य में सम्मिलित था। पूर्व में सोनार गाँव, पश्चिम में गक्खर, उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में विन्ध्य की श्रेणियाँ उसके साम्राज्य की सीमाएँ थीं। दक्षिण की ओर जैसलमेर को छोड़कर राजस्थान, मालवा और बुन्देलखण्ड को साम्राज्य में मिला लिया गया था। बीकानेर के कल्याणमल ने भी उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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