धर्म निरपेक्ष देश में धार्मिक शिक्षा | धर्म शिक्षा के साधन

धर्म निरपेक्ष देश में धार्मिक शिक्षा | धर्म शिक्षा के साधन

धर्म निरपेक्ष देश में धार्मिक शिक्षा

भारत जैसे धर्म निरपेक्ष देश में धर्म की शिक्षा पर कुछ आपत्ति है और इसलिये कोठारी आयोग ने साफ लिखा है कि विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती। धर्म की शिक्षा पढ़ाई के घन्टों में न होना चाहिये बल्कि अलग घन्टे में हो सकती है परन्तु यह व्यक्तिगत छात्र की स्वेच्छा पर है कि वह उसे ले या न ले। अभिभावक की अनुमति भी इस प्रकार की शिक्षा लेने में होनी चाहिये। इससे स्पष्ट है कि धर्म निरपेक्ष राज्य में धर्म की शिक्षा स्वेच्छानुसार होती है, इसके लिए कोई बन्धन नहीं होता है।

एक दूसरा प्रश्न यह है कि धर्म की स्वतन्त्रता होने पर किस प्रकार की धार्मिक शिक्षा दी जावे। महात्मा गाँधी ने अपनी बेसिक शिक्षा योजना में धर्म को दूर रखा था क्योंकि उससे संकीर्णता, संघर्ष और विभेदकता फैलने की सम्भावना थी। परन्तु इसके बाद के शिक्षा आयोगों ने धर्म शिक्षा के लिये जोर दिया। ऐसी दशा में किस प्रकार की धार्मिक शिक्षा धर्म निरपेक्ष राज्य में होनी चाहिये, उसका लक्ष्य क्या हो यहाँ पर हमें विचार करना जरूरी जान पड़ता है।

किस प्रकार की धार्मिक शिक्षा हो? इसके उत्तर में नीचे लिखी बातों पर ध्यान दिया जावे-

(i) धार्मिक शिक्षा व्यापक एवं सामान्य रूप से दी जावे जिससे संकुचित और संकीर्ण विचार न हो।

(ii) धार्मिक शिक्षा देकर सामाजिक बुराइयाँ दूर की जावें जिससे सामाजिक वातावरण साथ हो जावे।

(iii) धार्मिक शिक्षा के द्वारा उत्तम आचरण एवं चरित्र का विकास किया जावे जिससे लोग आपस में बँधे रहें।

(iv) धार्मिक शिक्षा संवेगात्मक विकास का साधन बनाया जाये जिससे सामाजिक प्राणी में सामाजिक भावना का निर्माण हो।

(v) धार्मिक शिक्षा व्यक्ति को और समाज को शान्ति एवं सुख प्रदान करने में समर्थ हो जिससे लोगों की आस्था बनी रहे।

(vi) धार्मिक शिक्षा व्यक्तित्व के सभी पक्षों का विकास करे।

(vii) धार्मिक शिक्षा देश की संस्कृति का विकास, संरक्षण एवं प्रसार करने में सहायता देने।

(viii) धार्मिक शिक्षा सभी दृष्टि से राष्ट्र के एकीकरण में सहायक हो, राष्ट्र के निर्माण में बाधक न बने।

(ix) धार्मिक शिक्षा का आधार नीतिशास्त्रीय होना चाहिये और प्रत्येक नागरिक में वह सही मूल्यों का सृजन करे।

(x) धार्मिक शिक्षा सरल एवं रोचक तथा छात्र के मानसिक स्तर के अनुकूल होनी चाहिये जिससे आसानी से उसे धारण किया जा सके।

धार्मिक शिक्षा के लक्ष्य निम्नलिखित होने चाहिए-

(i) व्यक्ति में व्यापक दृष्टिकोण का विकास करना।

(ii) मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को विकसित करना ।

(iii) व्यक्ति के संवेगों का शोधन करना एवं उचित स्थायी भावों का निर्माण करना ।

(iv) समाज के अनुकूल मूल्यों का विकास करना जिससे व्यक्ति तथा समाज दोनों की प्रगति हो सके।

(v) नागरिक के उत्तरदायित्व एवं अधिकार में सन्तुलन रखना ।

(vi) मानवता को पतन से बचाना एवं अमर बनाना ।

(vii) व्यक्ति एवं समाज को सुधारना एवं ऊँचा उठाना।

(viii) जीवन को सम्पूर्ण बनाने की क्षमता प्रदान करना ।

धर्म शिक्षा के साधन

सामान्य रूप से सभी धर्मों के सारतत्व ग्रहण करने के लिये कुछ साधनों को अपनाया जा सकता है। ये साधन निम्नलिखित हैं जिन्हें आवश्यकता एवं सुविधा के अनुसार प्रयोग किया जा सकता है-

(i) प्रार्थना, ध्यान, मनन के लिये एक स्थान पर एकत्र होना ।

(ii) धर्म स्थानों के लिए यात्रा करना, वहाँ की महत्वपूर्ण चीजों तथा स्मारकों का निरीक्षण करना।

(iii) महान पुरुषों, धर्म प्रचारकों, धर्म गुरुओं व नेताओं की जीवनी का अध्ययन करना।

(iv) विद्यालय, समाज एवं परिवार में विभिन्न जयन्तियाँ, जन्म दिवस, समारोह, उत्सव मनाना।

(v) विभिन्न धर्मावलम्बियों से मिलना-जुलना एवं सम्पर्क रखना और बढ़ाना ।

(vi) विद्यालयों में समाज सेवा, सैनिक शिक्षा, स्काउटिंग, अस्पतालों मैं सेवा के कार्य करना।

(vii) छात्रों की समितियां बनाना, उन्हें विभिन्न प्रकार के कार्य पूरा करने का  उत्तरदायित्व देना।

(viii) धर्म की बातों की परीक्षा लेना एवं पुरस्कार देना ।

(ix) छात्रों के धर्म कार्यों का रेकाई रखना, अत्तो कार्यों के लिए पुरस्कार देना, सद्कार्यों के लिए अभिप्रेरित करना।

(x) अध्यापक एवं अभिभावकों का धर्म के प्रति लगाव होना, अभिवृद्धि प्रकट करना।

(xi) महापुरुषों का विद्यालयों में आगमन, प्रवचन एवं प्रोत्साहन देना।

(xii) समाज में धार्मिक समितियाँ, सभाएँ, मण्डलियाँ आदि होना तथा इनमें व्यापक दृष्टिकोण होना, परस्पर सम्पर्क एवं मेल होना।

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