शिक्षाशास्त्र / Education

धर्म शिक्षा की रूपरेखा | प्राथमिक स्तर पर धर्म शिक्षा की रूपरेखा | माध्यमिक स्तर पर धर्म शिक्षा की रूपरेखा | विश्वविद्यालय स्तर पर धर्म शिक्षा की रूपरेखा

धर्म शिक्षा की रूपरेखा | प्राथमिक स्तर पर धर्म शिक्षा की रूपरेखा | माध्यमिक स्तर पर धर्म शिक्षा की रूपरेखा | विश्वविद्यालय स्तर पर धर्म शिक्षा की रूपरेखा

धर्म शिक्षा की रूपरेखा

धर्म शिक्षा की आवश्यकता अपने देश में प्राथमिक, माध्यमिक तथा विश्वविद्यालयीय स्तर पर बताई गई है। अतएव हमें इसकी रूपरेखा पर विचार करना आवश्यक जान पड़ता है।

(क) प्राथमिक स्तर पर धर्म शिक्षा की रूपरेखा-

इस स्तर पर साधारण एवं स्थूल रूप में धर्म की बातें बताई जावें और कुछ क्रियाओं का अभ्यास हो। इनमें निम्न बातें रखी जावें-

(i) सभी छात्र मिलकर समूह गान, नैतिक गान गावें। यह क्रिया कक्षा लगाने से पूर्व हो।

(ii) नियमित रूप से अध्यापक एवं छात्र भी अपने जीवन के और महापुरुषों के जीवन के कुछ धार्मिक एवं नैतिक विवरण प्रस्तुत करें। दूसरे लोग उसे ग्रहण करने की चेष्टा करें।

(iii) महापुरुषों की सरल, रोचक एवं शिक्षाप्रद कहानियों पढ़ने को कहा जावे, या पढ़ायी जावे।

(iv) श्रव्य-दृश्य साधनों से मेले, तीर्थ-स्थानों, मन्दिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों, के बारे में ज्ञान दिया जावे।

(v) विभिन्न अवसरों पर विद्यालय तथा समाज में मानव सेया कार्य का अभ्यास कराया जावे।

(vi) शारीरिक शिक्षा, सफाई, स्वास्थ्य रक्षा के नियमों के पालन द्वारा भी कर्त्तव्य एवं धर्म की शिक्षा व्यावहारिक रूप से दी जावे । खेलकूद में भाग लेने के लिए छात्रों को अभिप्रेरण हो।

(vii) अध्यापकों की सहायता से बालकों को स्थानीय भ्रमण-निरीक्षण का अवसर दिया जावे।

(ख) माध्यमिक स्तर पर धर्म शिक्षा की रूपरेखा-

ऊपर की बातों के अलावा इस स्तर पर विभिन्न साधनों का प्रयोग हो। इन्हें नीचे दिया जा रहा है-

(i) विद्यालय कार्य आरंभ होने के पूर्व सभी के द्वारा ईश्वर की प्रार्थना हो जिसमें कोई भेदभाव और अलगाय न प्रकट हो।

(ii) हिन्दू, इस्लाम, ईसाई और अन्य सभी धर्मों के सिद्धान्तों का सरल परिचय कराया जावे, इन्हें जीवन में अपनाने पर बल दिया जाये।

(iii) छुट्टियों के दिनों में सेवायोजन, भ्रमण, निरीधाण आदि के कार्यक्रम बनाए जावें और छात्रों को उनमें भाग लेना अनिवार्य किया जावे।

(iv) छात्रों के अच्छे-बुरे सभी व्यवहारों एवं आचरणों का अभिलेख रखा जाये और इनके विवरण को कुछ समय के मध्यान्तर बताये जाये तथा सुधार के लिये अवसर दिया जावे।

(v) अच्छे कार्यों एवं अभ्यासों के लिये उचित पुरस्कार एवं प्रोत्साहन भी दिया जाये ।

(vi) समाज के विभिन्न कार्यों में छात्रों का योगदान अवश्य कराया जावे क्योंकि इस स्तर पर बालक-किशोर में उत्तरदायित्व को पूरी करने की क्षमता आ जाती है।

(vii) श्रव्य-दृश्य सामग्रियों से विभिन्न महापुरुषों की जीवनियाँ बताई जायें और इनके प्रभावों का अध्ययन व्यावहारिक रूप से किया जाये।

(ग) विश्वविद्यालय स्तर पर धर्म शिक्षा की रूपरेखा-

यह स्तर किशोरावस्था का उत्तरार्ध और युवावस्था के आगम का होता है अतएव उच्च स्तरीय ज्ञान एवं क्रिया से संबंधित रूपरेखा होनी चाहिये। इसे नीचे दिया जा रहा है-

(i) पाठ्यक्रम में विभिन्न धर्मों की सामान्य बातों को अध्ययन के लिये ावे।

(ii) विभिन्न धर्मों की मूल पुस्तकों का समयानुकूल अध्ययन सभी के द्वारा किया जाये। एक आलोचक की दृष्टि से छात्र इन्हें पढ़े और सभी की अच्छाइयों को धारण करने का प्रयत्न करें।

(iii) विभिन्न धर्मों का दार्शनिक विवेचन एवं तुलनात्मक अध्ययन की व्यवस्था स्नातकोत्तर कक्षाओं में होनी चाहिये।

(iv) धर्म शिक्षा की सामग्रियों को विशेष लक्ष्यों को सामने रखकर प्रस्तुत करना चाहिये। ये लक्ष्य हों-अनुशासन, संयम, नियन्त्रण की स्थापना, मूल्य निर्धारण और बोध, चरित्र का निर्माण एवं आचरण का सुधार, व्यवहार कुशलता की प्राप्ति।

(v) धर्म शिक्षा के साधन परिवार, समुदाय, जाति, राज्य, विद्यालय सभी हों। समय- समय पर इनके द्वारा धर्म शिक्षा प्रदान की जाये।

(vi) राष्ट्र एवं देश प्रेम को आधार बनाया जाये और देश या राष्ट्र धर्म की चेतना जागृत की जाये।

(vii) देश के विभिन्न स्थानों तथा विदेशों में भ्रमण की व्यवस्था की जावे और एक मानव धर्म की ओर छात्रों को बढ़ाया जावे । आर्थिक एवं राजनैतिक सुविधाएँ यया क्षमता दी जावें।

इस प्रकार की रूपरेखा को तैयार करना सरल है परन्तु इसको व्यवहार में लाना कठिन भी होता है। छात्रों को धर्म परायण बनाने में सबसे बड़ा हाथ समाज का होता है। अपने देश में समाज की दुर्व्यवस्था है अतएव ऐसा कार्यक्रम केवल कागजी संस्तुति होगी। समाज के साथ राज्य एवं शासन का भी बड़ा हाथ होता है। हमारा संविधान धर्म निरपेक्ष है, इसका अर्थ यह है कि राज्य की रुचि धर्म में नहीं है। यहाँ बहुत से धर्म है। यह भी एक कठिनाई है। धर्म विहीनता इसी कारण शासन के द्वारा अपनाई गई है। साम्यवादी व्यवस्था में चर्च का धर्म नहीं है परन्तु मानव धर्म तो है ही। इसी प्रकार अपने देश में धर्म निरपेक्षता या धर्म विहीनता है फिर भी मानव धर्म तो पाया ही जाता है। अस्तु अपने देश में शिक्षा आयोगों के द्वारा ही दी गई रूपरेखा स्वीकार की गई है। और इस दृष्टि से आर्थिक, राजनैतिक तथा सामाजिक परिस्थितियों में ऐसी रूपरेखा व्यवहार्य अवश्य कही जावेगी। वैज्ञानिकता एवं भौतिकता के बढ़ते कदम धर्म को टैंक सकते हैं परन्तु भारत से उसे गायब नहीं कर सकते हैं।

भारत में धर्म की शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यवस्तु और शिक्षण-विधि क्या होनी चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर अत्यन्त कठिन हैं क्योंकि राष्ट्र धर्म निरपेक्षता पर बल देता है और जनतांत्रिक स्वतंत्रता, समानता और सामाजिक न्याय को महत्वपूर्ण मानता है। ऐसी दशा में धर्म की शिक्षा का उद्देश्य व्यापक और सर्वधर्ममान्य होना चाहिए। इसी दृष्टि से ऐसी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य सद्भावना और मानवीय दृष्टिकोण का विकास होना चाहिए। इसी उद्देश्य के अनुकूल पाठ्यपुस्तक भी संकलित की जानी चाहिए। धर्म और नैतिकता की शिक्षा केवल पाठ्यपुस्तक पढ़ा देना या बता देने से पूरी नहीं होती है। समरूप विकास के लिए विभिन्न नियमों की सामग्री में शामिल किया जाय तथा सामाजिक समारोहों में सक्रिय भाग लेकर छात्रों को अनुभूति करा दी जाय। ऐसी दशा में अन्तर्विषयक उपागम (इन्टर डिसिपिलनरी एप्रोच) तथा क्रिया-विधि काम में लाई जाय। इससे धर्म का बोझा बालक छात्र पर जबरन लादना नहीं होगा बल्कि धर्म के प्रति एक सहज और सरल ढंग से आकर्षण उत्पन्न होगा। किसी एक सम्प्रदाय की अथवा सभी सम्प्रदायों के सामान्य रूप से ग्रहणीय उपदेशों को न दिया जाय बल्कि स्वान्तः सुखाय सद्भाव एवं सत्यकार्य के द्वारा छात्रों को धर्मपरायण बनाया जाय। अध्यापक, अभिभावक एवं समाज के नेता तथा प्रशासक वर्ग की भूमिका भी इस ओर महत्वपूर्ण पाई जाती है।

निष्कर्ष

अन्त में हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आज सभी देशों में धर्म की बड़ी आवश्यकता है। व्यक्ति में सदाचार, ईमानदारी, सत्य, अहिंसा एवं शान्ति के प्रति आज निष्ठा की बड़ी आवश्यकता है और केवल धर्म के द्वारा ही इसे प्रदान किया जा सकता है। धर्म का कार्य मनुष्य और मनुष्य को बांधना है और इनके दिलों को एक करना है और एक ऐसी व्यवस्था लाना है जिसमें सभी लोग परस्पर प्रसन्न और सुखी रहें। शिक्षा का भी लक्ष्य मनुष्य जीवन को सुखमय बनाना होता है। इसीलिये तो प्रो० सी० डब्लू० हीथकोट ने लिखा है कि “सिद्धान्त रूप में धर्म और शिक्षा को एक दूसरे से भले ही अलग कर दिया जावे पर वास्तव में ऐसा विचार असम्भव है। शिक्षा और धर्म का उद्देश्य और लक्ष्य वास्तव में एक ही है। सच्ची शिक्षा का आधार धर्म है”।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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