शिक्षाशास्त्र / Education

भारतीय यथार्थवाद | न्याय-वैशेषिक दर्शन में यथार्थवाद | भारतीय दर्शन में व्यावहारिकतावादी प्रवृत्ति | व्यावहारिकतावाद का अर्थ | भारतीय दर्शन में व्यावहारिक प्रवृत्ति

भारतीय यथार्थवाद | न्याय-वैशेषिक दर्शन में यथार्थवाद | भारतीय दर्शन में व्यावहारिकतावादी प्रवृत्ति | व्यावहारिकतावाद का अर्थ | भारतीय दर्शन में व्यावहारिक प्रवृत्ति

भारतीय यथार्थवाद

आदर्शवाद विचार जगत से सम्बन्ध रखता है परन्तु जयन्त भट्ट ने तर्क दिया है कि “हम क्यों केवल विचारों की यथार्थता को माने जब कि हम बाह्य संसार को प्रत्यक्ष देखते हैं जो हमारे विचारों से बिल्कुल असमान है।” वास्तविकता तो यह है ही कि जब हम वस्तुओं के आकार-रूप को प्रत्यक्ष करते हैं तो वस्तु-रूप एवं विचार-रूप दोनों में उसे पाते हैं। यही यथार्थवाद स्थापित हो जाता है। यथार्थवाद इस प्रकार बहुत पहले से ही परिचित एवं भारत में एक प्रभावशाली विचारधारा रही है जो अत्यन्त आलोचनात्मक एवं विश्लेषणात्मक कही गई है। भारतीय यथार्थवाद जैन विचारक पल्लिसेन के कथनों में (“हम केवल स्थूल वस्तुओं जैसे सुराही, खम्भे आदि का प्रत्यक्ष करते हैं”), सांख्य योग कथनों में (“संसार केवल विचारों से ही नहीं बना है क्योंकि यदि ऐसा होता तो एक बाह्य वस्तु जैसे एक सुराही, ‘मैं एक सुराही हूँ’ के रूप में प्रत्यक्ष की जाती न कि ‘यह एक सुराही है’ इस रूप में”)।

(अ) न्याय-वैशेषिक दर्शन में यथार्थवाद

भारतीय दर्शन में न्याय और वैशेषिक विचारधाराएँ मिलती हैं जिन्हें कुछ विशेषताओं के आधार पर यथार्थवादी माना गया है। न्याय और वैशेषिक दोनों समान विचारधाराएँ हैं फिर भी अलग-अलग हैं। इसलिए दोनों में यथार्थवादी तत्व क्या है यह नीचे दिया जा रहा है-

न्याय दर्शन में यथार्थवादी तत्व- (1) न्याय दर्शन सोलह तरह के पदार्थों को स्वीकार करता है जो मनुष्य के ज्ञान के लिए साधन स्वरूप कहे जा सकते हैं। (2) मनुष्य संसार की वस्तुओं का भोक्ता होता है। वही इसकी जानकारी करता है। सक्रिय रूप में मनुष्य संसार की वस्तु का प्रयोग करता है, उससे सुख प्राप्त करता है और दुःख से बचता है। (3) संसार सत्य है माया जाल या झूठ नहीं है। जगत की वस्तुएँ नित्व एवं परमाणुओं से बनी हैं। यह जगत सत्य है। (4) वैज्ञानिक विवेचन व विश्लेषण पर न्याय दर्शन बल देता है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष, परीक्षण एवं अन्वेषण द्वारा ज्ञान प्राप्त होती है। (5) बुद्धि तथा तर्क द्वारा सभी प्रश्नों का समाधान करना न्याय दर्शन की एक अन्य विशेषता कही जाती है। यहाँ हमें वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग पर बल दिया जाना मिलता है।

वैशेषिक दर्शन में यथार्थवादी तत्व- (1) वैशेषिक दर्शन में 6-7 पदार्थों को स्वीकार किया गया है। परन्तु 6-7 पदार्थों का व्यापक स्वरूप होने पर कुल 45 पदार्थ हो गये हैं। इसीलिए इसे बहुतत्ववादी यथार्थवाद कहते हैं। (2) परमाणुओं के संयोग से सृष्टि और उत्पत्ति होती है और इनके अलग-अलग (विभाग) होने से प्रलय होती है। परमाणुओं का. संयोग उनकी गति और कर्म से होती है। परमाणुओं में जो क्रिया होती है उससे परिवर्तन होता रहता है और फलस्वरूप सृष्टि व प्रलय का क्रम चलता रहता है। (3) जीव और जगत की उत्पत्ति में कार्य कारणवाद का सिद्धान्त पाया जाता है जैसे पिता कारण है और पुत्र कार्य है। उत्पत्ति के पूर्व कार्य असत् होता है अथवा अस्तित्व नहीं रखता है। इसी से इस सिद्धान्त को असत्कार्यवाद भी कहा गया है। (4) वैशेषिक दर्शन में चार प्रकार के ज्ञान-प्रत्यक्ष, अनुमान, अन्तर्दृष्टि जन्य, आर्छ। इन्हें प्राप्त करने के लिये इन्द्रियाँ, उपमान परम्पराओं, शब्दों एवं ऋषियों व विद्वानों के साधन होते हैं। (5) वैशेषिक दर्शन में जीवात्मा, इन्द्रिय, मन, बुद्धि व तर्क के प्रयोग से ज्ञान की उपलब्धि होती है। जीवात्मा पुरुष की चैतन्य क्रियाशील आत्मा है जो पुरुष की चेष्टाओं में पाई जाती है? ऐसा वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण वैशेषिक दर्शन में पाया जाता है।

(ब) सांख्य-दर्शन में यथार्थवादी तत्व-

(1) संसार की सृष्टि 25 तत्वों से होती है-प्रकृति, महत् (बुद्धि), अहंकार (चेतना), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन, आकाश, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि (पंच महाभूत) पाँच तन्मात्राएँ, और पुरुष या आत्मा। (2) इन सभी को चार वर्गों में बांट गया है जिसका आधार कार्यकारण भाव है। (3) सत्कार्यवाद अर्थात् कार्य की सत्ता कार्य की उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान होती है जैसे मिट्टी में घड़े बनाने की सत्ता पहले से होती है। (4) समस्त ब्रह्माण्ड का उद्भव उसके आद्य पदार्थ प्रकृति से हुआ है। प्रकृति बहुत से रूपों में पायी जाती है। (5) सृष्टि का विकास पदार्थ में निहित सत्व, रज, तमस् तीनों गुणों की क्रिया प्रतिक्रिया से होता है। जगत के विकास की प्रक्रिया मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के समान होता है। (6) विश्व के दो ही परम तत्व हैं-प्रकृति और पुरुष। पुरुष शुद्ध चैतन्य होता है।

(स) भारतीय यथार्थवाद का शैक्षिक निहितार्थ- भारतीय यथार्थवाद के संदर्भ में न्याय, वैशेषिक एवं सांख्य दर्शनों को शामिल करने पर हम इनके शैक्षिक निहितार्थ पर भी विचार करें तभी हमें इसका ज्ञान एक शिक्षा दर्शन के रूप में मिल सकेगा। इस दृष्टि से हम उपर्युक्त तीन भारतीय दर्शनों के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम और विधि पर सम्मिलित रूप में विचार प्रकट करेंगे।

(i) शिक्षा के उद्देश्य-

(1) न्याय, वैशेषिक और सांख्य तीनों दर्शनों का उद्देश्य मनुष्य को संसार की चीजों का यथार्थ ज्ञान देना है जिससे कि वह चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करने में समर्थ हो सके।

(2) शिक्षा का दूसरा उद्देश्य है “त्रिविध-आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक दुःखों, कष्टों और क्लेशों आदि से मुक्ति दिलाना ।” दूसरे शब्दों में इन दर्शनों का लक्ष्य मनुष्यों के दुःख दूर करना है और सुख प्रदान करना है।

(3) शिक्षा का तीसरा उद्देश्य है मनुष्यों को व्यावहारिक शुद्ध आचरण सम्बन्धी, सत्कर्मों के अनुष्ठान करने की क्षमता प्रदान करना । यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए जीवन में अच्छी आदतों, प्रवृत्तियों, क्रियाओं का अभ्यास जरूरी होता है। शिक्षा इस ओर ले जाती है ऐसा इन दर्शनों से प्राप्त होता है।

(4) शिक्षा का चौथा उद्देश्य मनुष्य का सर्वांगीण विकास करना है। सर्वांगीण विकास में शारीरिक, सामाजिक, सांस्कृतिक भी विकास शामिल होते हैं। सांस्कृतिक विकास में ज्ञान बुद्धि, अहंकार (चेतना), पाप आदि सभी का विकास होता है।

(5) मुक्ति या मोक्ष का उद्देश्य भी इन दर्शनों में मान्य है। मुक्ति का तात्पर्य है सभी कष्टों का दूर होना और संसार में जन्म-मरण का दुःख न पाना वहाँ भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों संकेत मिलता है।

(ii) शिक्षा का पाठ्यक्रम-

न्याय, वैशेषिक तथा सांख्य तीनों दर्शनों में पाठ्यचर्या एवं पाठ्यक्रम का स्वरूप समान मिलता है। तीनों दर्शन विज्ञान (भौतिक, रसायन, शरीर, जीव, अन्तरिक्ष विज्ञान), प्रकृति अध्ययन, तर्कशास्त्र, मनोविज्ञान, आचरण शास्त्र भाषा और साहित्य को पाठ्यक्रम में शामिल करने की संस्तुति देते हैं। लौकिक व्यवहार में कुशलता प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार की सांसारिक एवं आध्यात्मिक क्रियाओं को भी पाठ्यक्रम में शामिल किया है। न्याय दर्शन के क्षेत्र में अलौकिक ज्ञान के लिए भी संकेत मिलता है। इसके अनुसार कार्यक्रम में दर्शनशास्त्र, धर्मशास्त्र, अध्यात्मशास्त्र जैसे विषय एवं आत्मानुभूति और अन्तर्ज्ञान की क्रियाएँ भी शामिल की गई हैं।

(iii) शिक्षा की विधियाँ-

तीनों दर्शन का प्रस्तुतीकरण सूक्ष्म कयनों या सूत्रों के द्वारा किया गया है तथा साथ ही साथ इनकी व्याख्या, चर्चा एवं विश्लेषण तर्क के आधार पर सोदाहरण की गई है। इन साक्ष्यों के आधार पर हमें इन दर्शनों के अनुसार निम्नलिखित शिक्षा-विधियों का प्रयोग मिलता है-

(क) सूत्र या सूक्ष्म कथन की विधि।

(ख) तर्क एवं शास्त्रार्थ विधि जिसमें आगमन, विश्लेषण एवं संश्लेषण की पद्धतियाँ पाई जाती हैं।

(ग) प्रत्यक्ष प्रणाली जिसमें निर्विकल्पक और सविकल्पक पद्धतियों का प्रयोग हुआ है।

(घ) अनुमान विधि जिसमें सोदाहरण तथ्यों को समझाया गया है। इसमें वर्तमान स्थिति के आधार पर भविष्य की कल्पना या अनुमान किया जाता है जैसे बादल देखकर पानी बरसने का अनुमान है।

(ङ) उपाख्यान या कथा-प्रसंग विधि जिसमें विभिन्न कथा के माध्यमों से ज्ञान देते हैं। सांख्य दर्शन में इसका प्रयोग चौथे अध्याय में मिलता है।

(च) उपदेश, व्याख्या, शब्द व मौखिक विधि जिसका प्रयोग तीनों दर्शनों में किया गया है।

(छ) क्रिया व अभ्यास विधि जो सांसारिक वस्तुओं के उपयोग में पाई जाती है।

संक्षेप में न्याय, वैशेषिक एवं सांख्य दर्शनों का शैक्षिक निहितार्थ दिया गया है। इस क्षेत्र में विशेष अध्ययन को शिक्षाशास्त्र के अध्येयताओं और शिक्षाविदों से अपेक्षा की जाती है।

भारतीय दर्शन में व्यावहारिकतावादी प्रवृत्ति

आधुनिक पाश्चात्य दर्शन के क्षेत्र में अमरीकी व्यावहारिकतावाद या प्रयोजनवाद भी एक प्रमुख दर्शन है। इसने शिक्षा को भी प्रभावित किया है। फलस्वरूप भारत के दर्शन एवं शिक्षा दोनों पर व्यावहारिकतावाद का प्रभाव पड़ा है और इस दृष्टि से इसका अध्ययन आवश्यक एवं महत्वपूर्ण समझा गया और अपने पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है।

व्यावहारिकतावाद का अर्थ-

व्यावहारिकतावाद के लिए अंग्रेजी भाषा में ‘प्रेग्मेटिज्म’ शब्द का प्रयोग होता है जिसका अर्थ है व्यवहार और क्रिया सम्बन्धी विचारधारा। इसके अनुसार मनुष्य उसे ही सत्य स्वीकार करता है जो उसके जीवन में व्यावहारिक तौर पर उपयोगी होता है। प्रो० रस्क के अनुसार कि “व्यावहारिकतावाद एक नये आदर्शवाद के विकास में केवल एक अवस्था है-एक आदर्शवाद जो वास्तविकता के प्रति पूर्ण न्याय करेगा, व्यावहारिक और आध्यात्मिक मूल्यों को मिलावेगा और एक संस्कृति के निर्माण में प्रतिफलित होगा जो कुशलता का पुष्प होगा न कि उसकी नकारता का इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यावहारिकतावाद एक नयी दार्शनिक विचारधारा है जो कुशल जीवन में, उसकी व्यावहारिक उपयोगिता में तथा वर्तमान परिस्थिति के अनुकूल मूल्य-आदर्श निर्माण में विश्वास रखता है।

भारतीय दर्शन में व्यावहारिक प्रवृत्ति-

उपर्युक्त चिन्तन का प्रभाव भारतीय दर्शन एवं जीवन दोनों पर पड़ा है और इसके फलस्वरूप व्यावहारिक प्रवृत्ति का प्रचार व प्रसार हुआ है। दर्शन जीवन के प्रति एक दृष्टिकोण होता है। ऐसी स्थिति में भारतीय जीवन का दृष्टिकोण अमरीकी जीवन दर्शन के कारण व्यावहारिक हो गया जीवन में उपयोगी आदर्शों, क्रियाओं, विधाओं एवं ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी और भौतिकी का महत्व आ गया। आदर्शवाद की आध्यात्मिकता का स्थान भौतिकता और सामाजिकता ने ले लिया। लोगों का झुकाव सामाजिक, आर्थिक, व्यावसायिक प्रगति की ओर हो गया। प्रत्येक व्यक्ति अच्छे-बुरे का ख्याल अपने निजी लाभ को ध्यान में रख कर करने लगा। यही एक नवीन चिन्तन और विचारधारा बढ़ी जिसके पीछे व्यावहारिकतावादी प्रवृत्ति पाई गयी। जीवन एवं संस्कृति में यह प्रवृत्ति अच्छी तरह फैली और आज शिक्षा के क्षेत्र में व्यावहारिकतावादी प्रवृत्ति मिलती है। कोठारी शिक्षा आयोग में क्रियाओं एवं सामाजिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के विकास हेतु जो सुझाव दिये गये हैं, वे इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

शिक्षाशास्त्र महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com

About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!