एशिया में कृषि हेतु आवश्यक भौगोलिक दशाएं | एशिया में कृषि की पद्धतियाँ
एशिया में कृषि हेतु आवश्यक भौगोलिक दशाएं | एशिया में कृषि की पद्धतियाँ
एशिया में कृषि हेतु आवश्यक भौगोलिक दशाएं
एशिया महाद्वीप कृषि की आदि स्थली है। यह अनेक फसलों का उद्भव स्थल माना गया है। यहाँ की मानव संस्कृति का आधार कृषि को माना गया है। आज भी यहाँ की तीन चौथाई जनसंख्या कृषि आधारित है। एशिया के देश सर्वाधिक अन्नोत्पादन करते हैं लेकिन जनबहुल होने के कारण कृषि का व्यापारिक पक्ष उतना मजबूत नहीं है। अकेले चीन विश्व का 40% धान उत्पन्न करता है लेकिन सब देश में ही खप जाता है। भारत और चीन मिलकर विश्व का एक चौथाई गेहूं, 20% मक्का, 50% चाय, 35% कपास, 35% पटसन, 22% चीनी, 35% तम्बाकू और एक तिहाई से अधिक तिलहन पैदा करते हैं।
लगभग चार करोड़ चालीस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को घेरे एशिया विश्व का सबसे बड़ा महाद्वीप है। इस विशाल महाद्वीप पर सभी प्रकार की जलवायु, विविध भौम्याकृतियाँ, अनेक प्रकार की मिट्टियाँ और सभी प्रकार की वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। इस प्रकार के भौतिक परिवेश में भूमि उपयोग की विविधता स्वाभाविक है। चूंकि एशिया मानव संस्कृति का उद्गम स्थल है, फलतः यहाँ हजारों साल से भूमि उपयोग की विविध पद्धतियाँ उपयोग में लाई जाती रही हैं। एशिया के समान भूमि उपयोग की विविधता और विशिष्टता का उदाहरण अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है। यहाँ आदिवासियों द्वारा चलवासी पशुचारण, अस्थायी कृषि और वन वस्तु संग्रह आज भी अनेक क्षेत्रों में देखने को मिलते हैं तो वहीं गहन निर्वाहक व्यापारिक और बागाती कृषि का भी प्रचलन है। भूमि उपयोग की लम्बी विरासत के कारण एशिया की जनसंख्या को अन्य उद्यमों में लागने का कार्य अनेक देशों में कठिन सिद्ध हो रहा है। एशिया का कृषक समाज अपनी भूमि से इस प्रकार जुड़ा हुआ है कि यह उसका पेशा न होकर जीवन पद्धति बन गयी है।
एशिया में कृषि की पद्धतियाँ
एशिया में विविध प्रकार की मिट्टी, जलवायु, धरातलीय स्वयप ओर आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था के कारण अनेक प्रकार की कृषि पद्धतियाँ पाई जाती हैं जिनमें प्रमुख कृषि पद्धतियाँ निम्नलिखित हैं-
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चलवासी पशुचारण-
एशिया के उत्तरी मैदानी भागों, उच्च पठारी भागों एवं शुष्क पश्चिमी भागों में जहाँ वर्षा इतनी न्यून है कि धरातल पर मात्र घास उग सकती है वहाँ सदियों से कबीला जाति के लोग अपने पशुओं को चराते हुए घूमते रहे हैं। मध्य एशिया के किरगीज तथा कज्जाक जनजातियाँ अपने ढोरों को चराते हुए घूमती रहती हैं। पश्चिमी एशिया के बद्दू भी ऐसे ही पशुपालक हैं। इन पशुपालकों की अधिकांश भौतिक आवश्यकताएँ इनके पशुओं से ही प्राप्त होती हैं। जैसे-दूध एवं माँस से भोजन तथा चमड़ा से वस्त्र और निवास का प्रबन्ध। इनके पशुओं में गाय, बैल, घोड़ा, ऊँट, बकरी, भेड़ आदि होते हैं। भौगोलिक परिवेश की दुरूहता ने यहाँ मानव समुदाय को पशु आधारित जीवन-यापन के लिए बाध्य किया है। अनेक देशों में चलवासी पशुचारण को विकसित अर्थव्यवस्था का रूप देने के लिए सिंचाई आदि के उपयोग से चरागाहों को विकास किया जा रहा है। दक्षिणी एवं पूर्वी साइबेरिया में रूसी सरकार के प्रयास से बड़े भू-भाग पर स्थायी पशुचारण की सुविधाएँ विकसित की गयी हैं जो व्यापारिक पशुचारण का प्रथम सोपान हैं।
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स्थानान्तरणशील कृषि-
प्रारम्भिक निर्वाहक कृषि के रूप में दक्षिणी-पूर्वी एशिया के द्वीपों विशेषकर मलएशिया, फिलीपींस, श्रीलंका, पूर्वी भारत आदि में इस प्रकार की कृषि पद्धति प्रचलित है। जलवायु की दुरुहता, मिट्टी का अपक्षालन, घनी वनस्पतियाँ, वनवासी जनसंख्या और भूमि की अधिकता के कारण यहाँ एक ही खेत पर स्थायी रूप से कृषि करना लाभदायक नहीं समझा जाता है। कुछ वर्ष उपयोग के बाद जब भूमि की उत्पादन क्षमता घटने लगती है जो उस खेत को छोड़ दिया जाता है और नये क्षेत्र पर जंगल साफ कर खेत बना लिये जाते हैं। यहाँ अधिकतर धान और मोटे अनाज, केला, साग-सब्जी आदि की कृषि भरण-पोषण के लिए की जाती है। जिन क्षेत्रों में बागाली कृषि का विकास हुआ है, वहाँ स्थानान्तरणशील कृषि का स्थान स्थायी कृषि ले रही है।
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प्रारम्भिक स्थायी कृषि-
इस प्रकार की कृषि पद्धति मानसून एशिया के देशों में अधिक प्रचलित है। यह स्थानान्तरणशील कृषि का विकसित रूप है। जब अधिक जनभार, उर्वरक प्रयोग, सिंचाई की सुविधा और कृषि में पशुबल का प्रयोग होने लगता है तो एक ही खेत का प्रयोग लगातार किया जाने लगता है। ऐसी दशा में पशुपालन कृषि अभिन्न अंग बन जाता है। दक्षिण-पूर्वी एशिया के अनेक देशों के पठारी भागों में सदियों पूर्व ऐसी कृषि की जाती है।
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गहन निर्वाहक कृषि-
गहन निर्वाहक कृषि सर्वाधिक इस महाद्वीप में की जाती है। जिसमें विश्व की लगभग पे तिहाई जनसंख्या संलग्न है। इस प्रकार की कृषि में खाद्यान्ना विशेषकर धान की कृषि की जाती है। जहाँ वर्षा कम है वहाँ मोटे अनाज और गेहूँ की कृषि की जाती है। पशुपालन कृषि का अभिन्न अंग है जिससे विभिन्न प्रकार के उत्पाद प्राप्त करने के साथ ये कृषि में काम आते हैं। यहाँ की कृषि प्राचीन पद्धति से की जाती है जिसमें सीमित स्तर पर यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। अधिक आबादी का भार होने के कारण यहा गहन कृषि की जाती है। विभिन्न प्रकार की फसलें एक साथ इस ढंग से उगाई जाती हैं कि वर्षा के घट-बढ़ होने पर भी कुछ न कुछ उत्पादन भ्शरण-पोषण के लिए मिल जाँय। यहाँ कृषिगत भूमि का आकार लघु होता है और गाँवों के चतुर्दिक खेत बिखरे होते हैं। किसान उन्हीं फसलों की कृषि करते हैं जो उनके लिए आवश्यक होती है। साथ ही एक दो नकदी फसलों की भी कृषि करते हैं। गहन कृषि के बावजूद ऐसे क्षेत्रों में किसानों की दशा दयनीय है। ऐसे क्षेत्रों में दो प्रकार की निर्वाह कृषि की जाती है, प्रथम, धान प्रधान और दूसरी, धान विहीन। निर्वाहक कृषि के लिए भारत, म्यांमर, चीन, थाईलैण्ड आदि देश विशेष उल्लेखनीय हैं। यहाँ कृषि की सफलता वर्षा पर आधारित है। अनेक क्षेत्रों में शुष्क मौसम में सिंचाई द्वारा कृषि की जाती है।
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बागाती कृषि-
एशिया के दक्षिणी-पूर्वी परिमण्डल में बागाती कृषि की प्रधानता है। यहाँ उष्ण कटिबन्धीय जलवायु में उगने वाली फसलें जैसे चाय, रगर, कहवा, नारियल, केला, गन्ना और मसाले आदि की कृषि की जाती है। इन क्षेत्रों में जलवायु की सुविधा के साथ औपनिवेशिक प्रभाव इस पद्धति को बढ़ावा देने में सबसे बड़ा कारण रहा है। यूरोप के बाजारों के लिए इन फसलों को उगाने का श्रेय यूरोपीय प्रशासको को है जो इन क्षेत्रों के मालिक थे। अब स्वतन्त्रता के बाद भी यहाँ बागाती कृषि लाभदायक कृषि पद्धति है।
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