पर्यावरण शिक्षा के पाठयक्रम का अर्थ

पर्यावरण शिक्षा के पाठयक्रम का अर्थ | पर्यावरण शिक्षा का पाठ्यक्रम का महत्व

पर्यावरण शिक्षा के पाठयक्रम का अर्थ | पर्यावरण शिक्षा का पाठ्यक्रम का महत्व

पर्यावरण शिक्षा का पाठ्यक्रम

शिक्षा विकास एक प्रक्रिया होती है जिसमें बालक के बहुमुखी और सर्वांगीण विकास का प्रयास किया जाता है। बचपन से ही बालक जैसे-जैसे बड़ा होता है वह अपने आसपास के वातावरण से कुछ-न-कुछ सीखता रहता है। बालक विद्यालय परिसर और बाहरी वातावरण में करके सीखता है और उसको विभिन्न प्रकार के अनुभव प्राप्त होते हैं, जिन्हें सीखने के अनुभव कहा जाता है। इन्हीं अनुभवों के द्वारा बालक अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। “इन्हीं सीखने के अनुभवों को नियोजित, क्रमबद्ध तथा उचित श्रेणीबद्ध रखने की कला पाठ्यक्रम कहलाती है।”

“किसी विशेष स्तर के बालकों के अध्ययन के लिए पढ़ाये जाने वाले सभी विषयों की प्रायोजना ही पाठ्यक्रम (Curriculum) कहलाती है।”

“किसी एक विषय की रूपरेखा को उस विषय की पाठ्यवस्तु (Syllabus) कहते हैं।” शिक्षा तथा शिक्षण का स्वरूप पाठ्यक्रम के प्रारूप द्वारा निर्धारित होता है। शिक्षा की प्रक्रिया का आधार पाठ्यक्रम है। समय के साथ-साथ पाठ्यक्रम का अर्थ एवं इसका प्रारूप बदलता रहता है। शिक्षण का सम्बन्ध पाठ्यक्रम एवं पाठ्यवस्तु दोनों से होता है।

पाठ्यक्रम (Curriculum) शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के क्यूरेरे (Currere) से मानी जाती है जिसका अर्थ है- “दौड़ का मैदान” अर्थात् पाठ्यक्रम दौड़ के मैदान के समान है। जिसमें शिक्षा की दौड़ लगाना है अर्थात् लगाना है अर्थात् पाठ्यक्रम वह रास्ता/मैदान है जिस पर चलकर बालक शक्षा के मूल लक्ष्य तक पहुँचता है दूसरे शब्दों में बालक अच्छे लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को प्राप्त कर लेता है।

परिभाषा-

(1) मुनरो के अनुसार- “पाठ्यक्रम में वे सब क्रियाएँ सम्मिलित हैं जिनका हम शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विद्यालय में उपयोग करते हैं।

(2) एच. एच. हॉर्ने (H.H. Horne) के अनुसार- “पाठ्यक्रम वह है जो बालकों को पढ़ाया जाता है। यह शान्तिपूर्ण पढ़ने या सीखने से अधिक है। इसमें उद्योग, व्यवसाय, ज्ञानोपार्जन, अभ्यास और क्रियाएँ सम्मिलित हैं ।”

(3) माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार – “पाठ्यक्रम का अर्थ रूढ़िवादी ढंग से पढ़ाये जाने वाले बौद्धिक विषयों से नहीं है परन्तु उसके अंदर वे सभी क्रिया-कलाप आ जाते हैं जो बालकों को कक्षा के बाहर तथा भीतर प्राप्त होते हैं।”

(4) कैसवेल (Caswell) के अनुसार- “पाठ्यक्रम में वे सभी वस्तुएँ आती हैं जो बालकों के, उनके माता-पिता एवं शिक्षरकों के जीवन से होकर गुजरती हैं। पाठ्यक्रम उन सभी चीजों से बनता है जो सीखने वालों को काम करने के घण्टों में घेरे रहती है। वास्तव में पाठ्यक्रम को गतिमान वातावरण कहा जाता है।”

(5) जान एफ. कीर (John. K Keer) के अनुसार- “विद्यालय द्वारा सभी प्रकार के अधिगम तथा निर्देशन आ नियोजन किया जाता है चाहे वह व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक रूप से विद्यालय के बाहर/भीतर व्यवस्थित की जायें, वे सभी पाठ्यक्रम प्रारूप होती हैं।”

(6) पाल हिस्ट (Paul Hirst) के अनुसार- “उन सभी क्रियाओं का प्रारूप जिनके द्वारा छात्र शैक्षिक लक्ष्यों अथवा उद्देश्यों को प्राप्त कर लेंगे पाठ्यक्रम कहलाता है।”

पाठ्यक्रम का महत्त्व

पाठ्यक्रम का महत्त्व जानने के लिए यह देखना आवश्यक है कि “शिक्षा कैसे दी जाती है?”‘

शिक्षा का केन्द्र बिन्दु शिक्षार्थी होता है। आदिकाल से वर्तमान तक इसमें क्या-क्या और कैसे-कैसे परिवर्तन हुए-

(1) पहला रूप- यह रूप उस आदिकाल के समय की स्थिति को दर्शाता है जब न तो शिक्षक की कल्पना थी और न विषय-वस्तु की और न ही कोई उद्देश्य जैसी कोई बात थी। शिक्षार्थी केवल वातावरण से देखकर, सुनकर और अपने सहयोगियों से चर्चा के आधार पर स्वयं कुछ जानकारी प्राप्त करता था। उसे कितना आता था ? क्या आता था ? इसकी कोई मूल्यांकन विधि नहीं थी और न ही इसकी कोई आवश्यकता थी।

(2) दूसरा रूप- यह रूप उस स्थिति का है जब शिक्षार्थी को ज्ञान प्राप्त करने में शिक्षक की भूमिका में अधिक ज्ञानवान व्यक्ति मिला। शिक्षार्थी ने जहाँ स्वयं अपने आप प्रकृति और वातावरण से सीखा वहीं शिक्षक द्वारा उसे निम्न प्रकार निर्देशन मिला-

  1. स्वयं सीखे ज्ञान में हो सकने वाली त्रुटियों का शुद्धीकरण।
  2. नये ज्ञान का काल और स्थिति के अनुसार परिमार्जन।
  3. अन्तःमन में छिपी शक्तियों को उद्घाटित कर और अधिक प्रेरणा।

इससे निःसंदेह शिक्षार्थी को ज्ञान प्राप्त करने में बहुत सफलता मिली परन्तु इस रूप में किन्हीं उद्देश्यों, विषयवस्तु, शिक्षण विधि का स्थान नहीं था। एक पारम्परिक व्यवस्था में शिक्षक के पास आश्रमों में भेजा जाता था और शिक्षक शिक्षार्थी की क्षमता के अनुकूल अपने सीखे हुए ज्ञान के आधार पर शिक्षा देता था। प्राचीन समय में गुरुकुल व्यवस्था भी इसी प्रतिमान के आधार पर आरम्भ हुई थी यद्यपि फिर उसमें कई घटकों का समावेश हुआ। इस प्रतिमान में शिक्षक और शिक्षार्थी के परस्पर सहयोग के फलस्वरूप शिक्षा प्राप्त हुई।

(3) तीसरा रूप (प्रतिमान)- इस प्रतिमान में शिक्षक और शिक्षार्थी के साथ-साथ पाठ्यक्रम को भी स्थान मिला। इससे शिक्षार्थी के सीखने की दिशा को व्यवस्था मिली और फिर उद्देश्यनिष्ठ शिक्षण का प्रारम्भ हुआ। जिस शिक्षार्थी को जिस तरह का ज्ञान दिया जाना था उसका पाठ्यक्रम भी उसी प्रकार का हुआ तथा स्पष्ट उद्देश्य-पूर्ति की ओर ध्यान केन्द्रित हुआ।

(4) चतुर्थ रूप- शिक्षाशास्त्री शिक्षण प्रक्रिया के कुछ घटकों (उद्देश्य और पाठ्यक्रम) से संतुष्ट नहीं थे। उनके विचार से अभी शिक्षण विधियाँ, शिक्षण सिद्धान्त, शिक्षण सहायक सामग्री, मूल्यांकन, शिक्षण के स्वरूप एवं क्षेत्र को और इस प्रक्रिया में जोड़ा जाना चाहिए था। अतः एक बहुत ही व्यापक और तुलनात्मक विशाल प्रतिमान प्रतिबिम्बित हुआ जो निम्न प्रकार है-

शिक्षण प्रक्रिया का वर्तमान स्वरूप 

इन सभी प्रतिमानों से स्पष्ट है कि ज्ञान प्रदान करने में तीन आवश्यक घटक हैं-

  • शिक्षक
  • शिक्षार्थी
  • पाठ्यक्रम

अतः पाठ्यक्रम के महत्त्व को निम्न प्रकार दर्शाया जा सकता है-

(1) पाठ्यक्रम से ही शिक्षा की प्रक्रिया व्यवस्थित होती है।

(2) पाठ्यक्रम से शक्ति और समय का सही सदुपयोग हो पाता है।

(3) पाठ्यक्रम से बालकों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।

(4) पाठ्यक्रम के अनुसार ही पाठ्यपुस्तकों का निर्माण सम्भव हो पाता है।

(5) पाठ्यक्रम के कारण ही शिक्षा का स्तर समान रहता है।

(6) पाठ्यक्रम के कारण ही बालकों का मूल्यांकन सरल व सम्भव हो पाता है।

(7) पाठ्यक्रम के कारण ही शिक्षा मूल उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होती है।

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